Monday, 24 August 2015

wine & meditation (osho)

शराब और ध्यान

शराब का ध्यानियों ने विरोध किया है, क्योंकि शराब परिपूरक है।
यह सस्ते में ध्यान की भ्रांति करवा देती है।
ध्यानी को भी शराबी जैसा मस्ती में ड़ूबा हुआ पाओगे,
और शराब में भी तुम्हें ध्यान की थोड़ी सी गंध मिलेगी—रसमुगध।
फर्क इतना ही होगा शराबी बेहोश है, ध्यानी होश में है।
शराबी ने अपनी स्मृति खो दी और ध्यानी ने अपनी स्मृति पूरी जगा ली।
मनुष्य बीच में है, मनुष्य द्वंद्व में है, मनुष्य आधा चेतन है, आधा अचेतन है।
ध्यानी पूरा चेतन में है।
शराब पी कर एकरसता को पा लेगा—सस्ती एक एकरसता,
बोतल पी डाली, मिल गई एकरसता, सस्ते में मिल गई गयी।
ध्यान तो वर्षो के श्रम से मिलेगा, ध्यान के लिए तो बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।
इंच-इंच बढ़ेगा, बूंद-बूंद बढ़ेगा, लंबी यात्रा है, पहाड़ की चढाई है।
शराब तो उतार है, जैसे पत्थर को ढकेल दिया पहाड़ से;
बस एक दफा धक्का मार दिया, काफी है।
फिर तो अपने आप ही उतार पर उतरता जाएगा।
नीचे खाई-खंदक तक खूद ही पहुंच जाएगा,
धक्का मारने के बाद और धक्का मारने की जरूरत नहीं है।
लेकिन पहाड़ पर चढ़ना हो तो, ऊर्ध्व यात्रा करनी पड़ेगी,
धक्के से काम नहीं चलेगा, धकाते ही रहना पड़ेगा,
जब तक चोटी पर नहीं पहूंच जाओ, और जरा भूक की कि पत्थर नीचे लुढक जाएगा।
कहीं से भी गिरने की संभावना है,
इसलिए तुमने एक शबद सुना होगा—योगभ्रष्ट।
तुमने भोगभ्रष्ट शब्द सुना, भोगी के भ्रष्ट होने की संभावना ही नहीं है।
भोगी कभी गिरता ही नहीं, वह गिरा हुआ है आखिरी जगह,
योगी ही गिरता है, भोगी होने से योगभ्रष्ट हो ना बेहतर है।
चेष्टा तो कि थी एक प्रयास तो किया था, एक यात्रा की चुनौती स्वीकार तो की थी।
गिर गए—कोर्इ बात नहीं, हजार बार गिरो,
मगर उठ-उठ कर चलते रहना।
ओशो–एस धम्मो सनंतनो

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