स्त्री और पुरुष के शरीरों के संबंध में, पहला शरीर स्त्री का स्त्रैण है, लेकिन दूसरा उसका शरीर भी पुरुष का ही है। और ठीक इससे उलटा पुरुष के साथ है। तीसरा शरीर फिर स्त्री का है, चौथा शरीर फिर पुरुष का है।
मैंने पीछे कहा कि स्त्री का शरीर भी आधा शरीर है और पुरुष का शरीर भी आधा शरीर है, इन दोनों को मिलकर ही पूरा शरीर बनता है।
यह मिलन दो दिशाओं में संभव है। पुरुष का शरीर—पहला शरीर— अपने से बाहर स्त्री के पहले शरीर से मिले तो एक यूनिट, एक इकाई पैदा होती है। इस इकाई से प्रकृति की संतति का, प्रकृति के जन्म का काम चलता है। यदि अंतर्मुखी हो सके पुरुष या स्त्री, तो उनके भीतर के पुरुष या स्त्री से मिलन होता है और एक दूसरी यात्रा शुरू होती है जो परमात्मा की दिशा में है। बाहर के शरीर—मिलन से जो यात्रा होती है वह प्रकृति की दिशा में है; भीतर के शरीर के मिलन से जो यात्रा होती है, वह परमात्मा की दिशा में है।
पुरुष का पहला शरीर जब अपने ही भीतर के ईथरिक बॉडी के स्त्री शरीर से मिलता है, तो एक यूनिट बनता है; स्त्री का पहला शरीर जब अपने ही ईथरिक शरीर के पुरुष तत्व से मिलता है, तो एक यूनिट बनता है। यह यूनिट बहुत अदभुत है, यह इकाई बहुत अदभुत है। क्योंकि अपने से बाहर के स्त्री या पुरुष से मिलना क्षण भर के लिए ही हो सकता है। सुख क्षण भर का होगा और फिर छूटने का दुख बहुत लंबा होगा। इसलिए उस दुख में से फिर मिलने की आकांक्षा पैदा होती है। लेकिन मिलना फिर क्षण भर का होता है और फिर छूटना फिर लंबे दुख का कारण बन जाता है।
तो बाहर के शरीर से जो मिलन है वह क्षण भर को ही घटित हो पाता है, लेकिन भीतर के शरीर से जो मिलन है वह चिरस्थायी हो जाता है— वह एक बार मिल गया तो दूसरी बार टूटता नहीं। इसलिए भीतर के शरीर पर जब तक मिलन नहीं हुआ है तभी तक दुख है। जैसे ही मिलन हुआ तो सुख की एक अंतरधारा बहनी शुरू हो जाती है। वह सुख की अंतरधारा वैसे ही है, जैसे क्षण भर के लिए बाहर के शरीर से मिलने पर संभोग में घटित होती है। लेकिन वह इतनी क्षणिक है कि वह आ भी नहीं पाती कि चली जाती है। बहुत बार तो उस सुख का भी कोई अनुभव नहीं हो पाता, क्योंकि वह इतनी त्वरा, इतनी तेजी में घटना घटती है कि उसका कोई अनुभव भी नहीं हो पाता।
ध्यान : आत्मरति की प्रक्रिया:
योग की दृष्टि से अगर अंतर्मिलन संभव हो जाए, तो बाहर संभोग की वृत्ति तत्काल विलीन हो जाती है; क्योंकि जिस आकांक्षा के लिए वह की जा रही थी, वह आकांक्षा तृप्त हो गई। मैथुन के जो चित्र मंदिरों की दीवालों पर खुदे हैं, वे अंतमैंथुन की ही दिशा में इंगित करनेवाले चित्र हैं।
अंतमैंथुन ध्यान की प्रक्रिया है। और इसलिए बहिमैंधुन और अंतमैंथुन में एक विरोध खयाल में आ गया। और वह विरोध इसीलिए खयाल में आ गया कि जो भी अंतमैंथुन में प्रवेश करेगा उसका बाहर के जगत से यौन का सारा संबंध विच्छिन्न हो जाएगा। स्त्री जब अपने पहले शरीर से दूसरे शरीर से मिलेगी.. .तो यह भी समझ लेने जैसा है कि जब स्त्री अपने पहले शरीर से दूसरे शरीर से मिलेगी, तो जो यूनिट बनेगा दोनों के मिलने पर वह फिर स्त्रैण होगा—पूरा यूनिट; और पुरुष का पहला शरीर जब दूसरे शरीर से मिलेगा तो जो इकाई बनेगी वह फिर पुरुष की होगी—पूरा शरीर। क्योंकि जो प्रथम है वह द्वितीय को आत्मसात कर लेता है। जो प्रथम है वह द्वितीय को आत्मसात कर लेता है; दूसरा उसमें समाविष्ट हो जाता है।
लेकिन अब ये स्त्री और पुरुष भी बहुत दूसरे अर्थों में हैं; उस अर्थों में नहीं जैसा कि हम बाहर स्त्री—पुरुष को देखते हैं। क्योंकि बाहर जो पुरुष है वह अधूरा है, इसलिए सदा अतृप्त है; बाहर जो स्त्री है वह अधूरी है, इसलिए सदा अतृप्त है।
अगर हम जैविक विकास को खोजने जाएं तो यह पता चलेगा कि जो प्राथमिक प्राणी हैं जगत में, उनमें स्त्री और पुरुष के शरीर अलग—अलग नहीं हैं। जैसे अमीबा है, जो कि प्राथमिक जीव है। अमीबा के शरीर में दोनों एक साथ मौजूद हैं स्त्री और पुरुष। उसका आधा हिस्सा पुरुष का है, आधा स्त्री का। इसलिए अमीबा से तृप्त प्राणी खोजना बहुत कठिन है। उसमें कोई अतृप्ति नहीं है। उसमें डिसकटेंट जैसी चीज पैदा नहीं होती। इसलिए वह विकास भी नहीं कर पाया; वह अमीबा अमीबा ही बना हुआ है। तो बिलकुल जो प्राथमिक कड़ियां हैं बायोलाजिकल विकास की, वहां भी शरीर दो नहीं हैं, वहां एक ही शरीर है और दोनों हिस्से एक ही शरीर में समाविष्ट हैं।
जिन खोजा तिन पाइया।
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