Wednesday, 29 July 2015

प्रेम का स्वभाव (ओशो)

प्रेम स्‍वभाव की बात है। संबंध की बात नहीं है।

प्रेम रिलेशनशिप नहीं है। प्रेम है ‘’स्‍टेट ऑफ माइंड’’ मनुष्‍य के व्‍यक्‍तित्‍व का भीतरी अंग है।

प्रेमपूर्ण आदमी प्रेमपूर्ण होता है। आदमी से कोई संबंध नहीं है उस बात का। अकेले में बैठता है तो भी प्रेमपूर्ण होता है। कोई नहीं होता तो भी प्रेमपूर्ण होता है। प्रेमपूर्ण होना उसके स्‍वभाव की बात है। वह आपसे संबंधित होने का सवाल नहीं है।

क्रोधी आदमी अकेले में भी क्रोधपूर्ण होता है। घृणा से भरा आदमी घृणा से भरा हुआ होता है। वह अकेले भी बैठा है तो आप उसको देख कर कह सकते है कि यह आदमी क्रोधी है, हालांकि वह किसी पर क्रोध नहीं कर रहा है। लेकिन उसका सारा व्‍यक्‍तित्‍व क्रोधी है।

प्रेम पूर्ण आदमी अगर अकेले में बैठा है, तो आप कहेंगे यह आदमी कितने प्रेम से भरा हुआ बैठा है।

फूल एकांत में खिलते है जंगल के तो वहां भी सुगंध बिखेरते रहते है। चाहे कोई सूंघने वाला हो या न हो। रास्‍तें से कोई निकले या न निकले। फूल सुगंधित होता रहता है। फूल का सुगंधित होना स्‍वभाव है। इस भूल में आप मत पड़ना कि आपके लिए सुगंधित हो रहा है।

प्रेमपूर्ण होना व्‍यक्‍तित्‍व बनाना चाहिए। वह हमार व्‍यक्‍तित्‍व हो, इससे कोई संबंध नहीं कि वह किसके प्रति।

लेकिन जितने प्रेम करने वाले लोग है, वे सोचते है कि मेरे प्रति प्रेमपूर्ण हो जाये। और किसी के प्रति नहीं। और उनको पता नहीं है कि जो सबके प्रति प्रेम पूर्ण नहीं है वह किसी के प्रति भी प्रेम पूर्ण नहीं हो सकता।

ओशो

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