अप्रसन्नता
यदि तुम अप्रसन्न हो तो इसका सरल सा अर्थ यहहै कि तुम अप्रसन्न होने की तरकीब सीख गए हो। और कुछ नहीं! अप्रसन्नता तुम्हारे मन के सोचने के ढंग पर निर्भर करतीहै। यहां ऐसे लोग हैं जो हर स्थिति में अप्रसन्न होते हैं। उनके मन में एक तरह का कार्यक"महै जिससे वे हर चीज को अप्रसन्नता में बदल देते हैं। यदि तुम उन्हें गुलाब की सुंदरता के बारे में कहो, वे तत्काल कांटों की गिनती शुरू कर देंगे। यदि उन्हें तुम कहो, "कितनी सुंदर सुबहहै, कितना उजला दिनहै!' वे कहेंगे, "दो अंधेरी रातों के बीच एक दिन, तो इतनी बड़ी बात क्यों बना रहे हो?'ली इसी बात को विधायक ढंग से भी देखा जा सकताहै; तब अचानक हर रात दो दिनों से घिर जातीहै। और अचानक चमत्कार होताहै कि गुलाब संभव होताहै। इतने सारे कांटों के बीच इतना नाजुक फूल संभव हुआ!
सब इस बात पर निर्भर करताहै कि किस तरह के मन का ढांचा तुम लिए हुए हो। लाखों लोग सूली लिए घूम रहे हैं। स्वाभाविक ही, निश्चित रूप से, वे बोझ से दबे हैं; उनका जीवन बस घिसटना मात्रहै। उनका ढांचा ऐसाहै कि हर चीज तत्काल नकारात्मक की तरफ चली जातीहै। यह नकारात्मक को बहुत बड़ा कर देताहै। जीवन के प्रति यह रुग्ण, विक्षिप्त, रवैयाहै। लेकिन वे सोचते चले जाते हैं कि "हम क्या कर सकते हैं? दुनिया ऐसी हीहै।'
नहीं, दुनिया ऐसी नहींहै! दुनिया पूरी तरह से तटस्थहै। इसमें कांटे हैं, इसमें गुलाब के फूल हैंै, इसमें रातें हैं, इसमें दिन भी हैं। दुनिया पूरी तरह से तटस्थहै, संतुलित--इसमें सब कुछहै। अब यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करताहै कि तुम क्या चुनते हो। इसी तरह से लोग इसी पृथ्वी पर नर्क और स्वर्ग दोनों ही पैदा करते हैं। ओशो
Sunday, 19 July 2015
अप़सऩता
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