Thursday, 2 July 2015

osho story

बुद्ध के शिष्यों में एक भिक्षु थे उनका नाम था समंजनी। उन्हें सफाई का पागलपन था। क्योंकि बुद्ध ने कहा स्वच्छ रहो साफ— सुथरे रहो। वह उनको धुन पकड़ गयी पागल तो पागल वह ठीक बात में से भी गलत बात निकाल लेते। उनको ऐसी धुन पकड़ गयी कि चौबीस घंटे वह झाडू ही लिए रहते। इधर जाला दिखायी पड़ गया उधर कचड़ा दिखायी पड़ गया सफाई ही सफाई।
कई स्त्रियों को यह रोग रहता है, सफाई ही सफाई। किसके लिए सफाई कर रही हैं, यह भी कुछ पक्का नहीं।
मैं एक घर में कुछ दिन तक रहता था, बड़ा साफ—सुथरा घर था, ऐसा साथ— सुथरा घर मैंने देखा ही नहीं। घर कहना ही नहीं चाहिए उसको, इतना साफ—सुथरा था। उसमें रहने की सुविधा ही नहीं थी। वह महिला अपने पति को भी अपने बैठकखाने में नहीं बैठने देती थी, कि तुम उठो! अखबार भीतर चलकर पढ़ो! क्योंकि इधर बैठे रहे घंटेभर तो उसकी गद्दी खराब हो जाए। मेहमानों को वह पसंद न करती कि कोई घर में आएं, क्योंकि वह सफाई! बच्चे बैठकखाने में प्रवेश न कर सकते, क्योंकि सफाई!
मैं दो—चार दिन देखता रहा, मैंने उससे कहा कि सफाई तो बड़ी तू गजब की कर रही है। उसको मैंने यह कहानी कही थी जो मैं तुम्हें सुना रहा हूं बुद्ध की। मैंने कहा, यह तो ठीक है, मगर किसलिए? मेहमान आ नहीं सकते, पति बैठ नहीं सकता, बच्चे आ नहीं सकते, तुझे मैंने कभी बैठा देखा नहीं, बस तू सफाई में ही लगी है। वह दिनभर लिए है कपडा और बाल्टी और जगह—जगह घिस रही है। सफाई तो बुरी बात नहीं, उसने मुझसे कहा। मैंने कहा, नहीं, सफाई बुरी बात नहीं। लेकिन सफाई ही सफाई करते रहो सफाई का प्रयोजन क्या है? कि साफ—सुथरे घर में रहो, मगर रहने का मौका भी चाहिए न! रहने का अवकाश चाहिए।
……यह बुद्ध के भिक्षु थे समंजनी बुद्ध की बात सुनकर कि स्वच्छ रहो उनको पकड़ गयी। पागल रहे होंगे दिमाग कुछ झक्की रहा होगा। उन्होंने कहा ठीक! जब बुद्ध ने कहा तो फिर..? तो वह झाडू लिए रहते दिनभर और दिनभर झाडू लगाया करते। कभी यहां गंदा कभी वहां गंदा उन्हें मौका ही न मिलता भीतरी सफाई का जिसके लिए भिक्षु हुए थे जिसके लिए संन्यास लिया था।
एक दिन एक वृद्ध भिक्षु रेवत ने उन्हें कहा आमुस भिक्षु को सदा बाहर की सफाई ही नहीं करते रहना चाहिए। बाहर की सफाई ठीक है तो कभी सुबह कर ली सांझ कर ली बाकी चौबीस घंटे यही काम। तो झाडू से तुम स्वर्ग नहीं पहुंच जाओगे! कुछ ध्यान भी करो कुछ भीतर की सफाई भी करो। कुछ भीतर की झाडू उठाओ। कभी ध्यान किया करो कभी शांत बैठा करो कभी विश्राम में भीतर जाया उसे कुछ भीतर भी तो झांको। उससे ही असली सफाई होगी। भीतर कब झाडू मारोगे? उस बूढे फकीर ने पूछा। या कि जीवनभर ऐसा ही बिता देना है!
बात चोट खा गयी। समंजनी को बोध हुआ। होश आया बात तो उसे हासगस्पद लगी कि मैं क्या करता रहा! कोई दस साल हो गए बुद्ध के पास यही काम ताम करते जैसे नीदं टूटी। तंद्रा की जैसे एक पर्त आंखों से गिर गयी। बाहर नहीं जैसे भीतर की आंख अचानक खुल गयी। जैसे सुबह कोई रात का सोया हुआ जागे और सपने खो जाएं।
दूसरे दिन उसे झाडू न लगाते देखकर अन्य भिक्षु हैरान हुए यह तो बात ही भरोसे की न थी कि समजनी और झाडू न लगाएं। और दूसरे दिन देखा कि झाडू बगैरह उनके हाथ में भी नहीं है तो उनको तो भरोसा ही नहीं आए क्योंकि वह तो झाडू वाले ही भिक्षु की तरह प्रसिद्ध थे। झाडू वाले बाबा! उन्होंने पूछा आवुस समंजनी स्थविर, आज झाडू कहां? यह आपके स्वभाव में परिवर्तन कैसा? आप होश में तो हैं तबीयत तो ठीक है न? कुछ बीमार इत्यादि तो नहीं हो गए यह कैसा पतन! यह कैसा चरित्र का हास! देखो इस जगह कूड़ा इकट्ठा हो गया है उस जगह मकड़ी का जाला लगा है लोग मजाक करने लगे।
समंजनी हंसे और बोले भंते सोते समय मैं ऐसा करता था। सोते समय मैं ऐसा करता था लेकिन अब जाग गया हूं। मेरा प्रमाद गया और अप्रमाद का मुझमें उदय हुआ है। सुबह—सांझ झाडू लगा दूंगा उतना पर्याप्त है शेष समय भीतर की सफाई। और ऐसा कहकर वह फिर ध्यान में लीन हो गए।
भिक्षुओं ने यह बात जाकर बुद्ध को कही। बुद्ध ने कहा हां भिक्षुओ मेरा वह पुत्र प्रमाद के समय ऐसा करता था। लेकिन अब जाग गया है और उस व्यर्थ के विक्षिप्त व्यवहार से मुक्त हो गया है।
ओशो

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