जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--19)
प्रश्न: ओशो नारगोल शिविर में आपने कहा कि योग के आसन प्राणायाम मुद्रा और बंध का आविष्कार ध्यान की अवस्थाओं में हुआ तथा ध्यान की विभिन्न अवस्थाओं में विभित्र आसन व मुद्राएं बन जाती हैं जिन्हें देखकर साधक की स्थिति बताई जा सकती है। इसके उलटे यदि वे आसन व मुद्राएं सीधे की जाएं तो ध्यान की वही भावदशा बन सकती है। तब क्या आसन प्राणायाम मुद्रा और बंधों के अभ्यास से ध्यान उपलब्ध हो सकता है? ध्यान साधना में उनका क्या महत्व और उपयोग है?
प्रारंभिक रूप से ध्यान ही उपलब्ध हुआ। लेकिन ध्यान के अनुभव से शात हुआ कि शरीर बहुत सी आकृतियां लेना शुरू करता है। असल में, जब भी मन की एक दशा होती है तो उसके अनुकूल शरीर भी एक आकृति लेता है। जैसे जब आप प्रेम में होते हैं तो आपका चेहरा और ढंग का हो जाता है, जब क्रोध में होते हैं तो और ढंग का हो जाता है। जब आप क्रोध में होते हैं तब आपके दांत भिंच जाते हैं, मुट्ठियां बंध जाती हैं,
शरीर लड़ने को या भागने को तैयार हो जाता है। ऐसे ही, जब आप क्षमा में होते हैं तब मुट्ठी कभी नहीं बंधती, हाथ खुला हुआ हो जाता है। क्षमा का भाव अगर कोई आदमी में हो तो वह क्रोध की भांति मुट्ठी बांधकर नहीं रह सकता। जैसे मुट्ठी बांधना हमला करने की तैयारी है, ऐसा मुट्ठी खोलकर खुला हाथ कर देना हमले से मुक्त करने की सूचना है—वह दूसरे को अभय देना है; मुट्ठी बांधना दूसरे को भय देना है।
शरीर एक स्थिति लेता है, क्योंकि शरीर का उपयोग ही यही है कि मन जिस अवस्था में हो, शरीर तत्काल उस अवस्था के योग्य तैयार हो जाए। शरीर जो है, अनुगामी है; वह पीछे अनुगमन करता है।
तो साधारण स्थिति में...... यह तो हमें पता है कि एक आदमी क्रोध में क्या करेगा; यह भी पता है कि प्रेम में क्या करेगा; यह भी पता है कि श्रद्धा में क्या करेगा। लेकिन और गहरी स्थितियों का हमें कोई पता नहीं है।
जब भीतरी चित्त में वे गहरी स्थितियां पैदा होती हैं, तब भी शरीर में बहुत कुछ होता है। मुद्राएं बनती हैं, जो कि बड़ी सूचक हैं; जो भीतर की खबर लाती हैं। आसन भी बनते हैं; जो कि परिवर्तन के सूचक हैं।
असल में, भीतर की स्थितियों की तैयारी के समय तो बनते हैं आसन और भीतर की स्थितियों की खबर देने के समय बनती हैं मुद्राएं। भीतर जब एक परिवर्तन चलता है तो शरीर को भी उस नये परिवर्तन के योग्य एडजस्टमेंट खोजना पड़ता है। अब भीतर यदि कुंडलिनी जाग रही है तो उस कुंडलिनी के लिए मार्ग देने के लिए शरीर आड़ा—तिरछा, न मालूम कितने रूप लेगा। वह मार्ग कुंडलिनी को भीतर मिल सके, इसलिए शरीर की रीढ़ बहुत तरह के तोड़ करेगी। जब कुंडलिनी जाग रही है तो सिर भी विशेष स्थितियां लेगा। जब कुंडलिनी जाग रही है तो शरीर को कुछ ऐसी स्थितियां लेनी पड़ेगी जो उसने कभी नहीं ली।
अब जैसे, जब हम जागते हैं तो शरीर खड़ा होता है या बैठता है; जब हम सोते हैं तब खड़ा और बैठा नहीं रह जाता, उसे लेटना पड़ता है। समझ लें एक आदमी ऐसा पैदा हो जो सोना न जानता हो जन्म के साथ, तो वह कभी लेटेगा नहीं। तीस वर्ष की उम्र में उसको पहली दफे नींद आए, तो वह पहली दफे लेटेगा, क्योंकि उसके भीतर की चित्त—दशा बदल रही है और वह नींद में जा रहा है। तो उसको बड़ी हैरानी होगी कि यह लेटना अब तक तो कभी घटित नहीं हुआ, आज वह पहली दफा लेट क्यों रहा है! अब तक वह बैठता था, चलता था, उठता था, सब करता था, लेटता भर नहीं था।
अब नींद की स्थिति बन सके भीतर, इसके लिए लेटना बड़ा सहयोगी है। क्योंकि लेटने के साथ ही मन को एक व्यवस्था में जाने में सरलता हो जाती है। लेटने में भी अलग—अलग व्यक्तियों की अलग—अलग स्थितियां होती हैं, एक सी नहीं होतीं; क्योंकि अलग—अलग व्यक्तियों के चित्त भिन्न होते हैं। जैसे जंगली आदमी तकिया नहीं रखता है, लेकिन सभ्य आदमी बिना तकिए के नहीं सो सकता। जंगली आदमी इतना कम सोचता है कि उसके सिर की तरफ खून का प्रवाह बहुत कम होता है। और नींद के लिए जरूरी है कि सिर की तरफ खून का प्रवाह कम हो जाए। अगर प्रवाह ज्यादा है तो नींद नहीं आएगी, क्योंकि सिर के स्नायु शिथिल नहीं हो पाएंगे, विश्राम में नहीं जा पाएंगे, उनमें खून दौड़ता रहेगा। इसलिए आप तकिए पर तकिए रखते चले जाते हैं। जैसे आदमी शिक्षित होता है, सुसंस्कृत, तकिए ज्यादा होते जाते हैं, क्योंकि गर्दन इतनी ऊंची होनी चाहिए कि खून भीतर न चला जाए सिर के। जंगली आदमी बिना इसके सो सकता है।
ये हमारे शरीर की स्थितियां हमारे भीतर की स्थितियों के अनुकूल खड़ी होती हैं। तो आसन बनने शुरू होते हैं तुम्हारे भीतर की ऊर्जा के जागरण और विभिन्न रूपों में गति करने से। विभिन्न चक्र भी शरीर को विभिन्न आसनों में ले जाते हैं। और मुद्राएं पैदा होती हैं जब तुम्हारे भीतर एक स्थिति बनने लगती है—तब भी तुम्हारे हाथ, तुम्हारे चेहरे, तुम्हारे आंख की पलकें, सबकी मुद्राएं बदल जाती हैं।
यह ध्यान में होता है। लेकिन इससे उलटी बात भी स्वाभाविक खयाल में आई कि यदि हम इन क्रियाओं को करें तो क्या ध्यान हो जाएगा? इसे थोड़ा समझना जरूरी है।
आसनों से चित्त में परिवर्तन अनिवार्य नहीं:
ध्यान में ये क्रियाएं होती हैं, लेकिन फिर भी अनिवार्य नहीं हैं। यानी ऐसा नहीं है कि सभी साधकों को एक सी क्रिया हो। एक कंडीशन खयाल में रखनी जरूरी है, क्योंकि प्रत्येक साधक की स्थिति अलग है, और प्रत्येक साधक की चित्त की और शरीर की स्थिति भी भिन्न है। तो सभी साधकों को ऐसा होगा, ऐसा नहीं है।
अब जैसे किसी साधक के चित्त में, मस्तिष्क में अगर खून की गति बहुत कम है और कुंडलिनी जागरण के लिए सिर में खून की गति की ज्यादा जरूरत है उसके शरीर को, तो वह तत्काल शीर्षासन में चला जाएगा— अनजाने। लेकिन सभी नहीं चले जाएंगे; क्योंकि सभी के सिर में खून की स्थिति और अनुपात अलग—अलग है, सबकी अपनी जरूरत अलग—अलग है। तो प्रत्येक साधक की स्थिति के अनुकूल बनना शुरू होगा। और सबकी स्थिति एक जैसी नहीं है।
तो एक तो यह फर्क पड़ेगा कि जब ऊपर से कोई आसन करेगा तो हमें कुछ भी पता नहीं है कि वह उसकी जरूरत है या नहीं है। कभी सहायता भी पहुंचा सकता है, कभी नुकसान भी पहुंचा सकता है। अगर वह उसकी जरूरत नहीं है तो नुकसान पड़ेगा, अगर उसकी जरूरत है तो फायदा पड जाएगा। लेकिन वह अंधेरे में रास्ता होगा—एक कठिनाई। दूसरी कठिनाई और है और वह यह है कि हमें जो भीतर होता है, उसके साथ जब बाहर कुछ होता है, तब—तब भीतर से ऊर्जा बाहर की तरफ सक्रिय होती है; जब हम बाहर कुछ करते हैं तब वह केवल अभिनय होकर भी रह जा सकता है।
जैसे कि मैंने कहा कि जब हम क्रोध में होते हैं तो मुट्ठियां बंध जाती हैं। लेकिन मुट्ठियां बंध जाने से क्रोध नहीं आ जाता। हम मुट्ठियां बांधकर बिलकुल अभिनय कर सकते हैं और भीतर क्रोध बिलकुल न आए। फिर भी, अगर भीतर क्रोध लाना हो तो मुट्ठियां बांधना सहयोगी सिद्ध हो सकता है। अनिवार्यत: भीतर क्रोध पैदा होगा, यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन मुट्ठी न बांधने और बांधने में अगर चुनाव करना हो तो बांधने में क्रोध के पैदा होने की संभावना बढ़ जाएगी बजाय मुट्ठी खुली होने के। तो इतनी थोड़ी सी सहायता मिल सकती है।
अब जैसे एक आदमी शांत स्थिति में आ गया तो उसके हाथ की शांत मुद्राएं बनेंगी, लेकिन एक आदमी हाथ की शांत मुद्राएं बनाता रहे, तो चित्त अनिवार्य रूप से शांत होगा, यह नहीं है। हां, फिर भी चित्त को शांत होने में सहायता मिलेगी, क्योंकि शरीर तो अपनी अनुकूलता जाहिर कर देगा कि हम तैयार हैं, अगर चित्त को बदलना हो तो वह बदल जाए। लेकिन फिर भी सिर्फ शरीर की अनुकूलता से चित्त नहीं बदल जाएगा। और उसका कारण यह है कि चित्त तो आगे है, शरीर सदा अनुगामी है। इसलिए चित्त बदलता है, तब तो शरीर बदलता ही है; लेकिन शरीर के बदलने से सिर्फ चित्त के बदलने की संभावना भर पैदा होती है बदलाहट नहीं हो जाती।
Wednesday, 29 July 2015
जिन खोजा तिन पाइयां (ओशो)
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