Tuesday, 14 July 2015

उत्सव

उत्सव मेरे जीवन जीने के ढंग की बुनियाद है--त्याग नहीं, आनंद। आनंद सभी सुंदरताओं में, सभी उल्लास में, वो सब जो कुछ जीवन लाता है, क्योंकि यह सारा जीवन परमात्मा का उपहार है। मेरे लिए जीवन और परमात्मा पर्यायवाची है। सच तो यह है कि जीवन ‘परमात्मा’ से अधिक अच्छा शब्द है। परमात्मा दार्शनिक शब्द है जबकि जीवन वास्तविक है, अस्तित्वगत है। ‘परमात्मा’ शब्द सिर्फ शास्त्रों में होता है। यह मात्र शब्द है, निरा शब्द है। जीवन तुम्हारे भीतर है और बाहर है--वृक्षों में, बादलों में, तारों में। यह सारा अस्तित्व जीवन का नृत्य है ।
जब तक चाह है, तब तक आसक्ति है। वह चाहे गुरु से मिलने की चाह हो, चाहे ज्ञान प्राप्त करने की चाह हो, चाहे मोक्ष की चाह हो; चाह—मात्र आसक्ति है। जहां सभी चाहें छूट जाती हैं, वहीं मोक्ष है। और जहां सब चाहें छूट जाती हैं, वहीं गुरु से मिलन भी है। क्योंकि जो गुरु बाहर दिखाई पड़ता है, वह तो केवल प्रतिबिंब है। सब चाह के छूट जाने पर भीतर के गुरु का आविर्भाव होता है। और जब तक तुम्हें तुम्हारे भीतर ही गुरु न मिल जाए तब तक तुम संसार में भटकते ही रहोगे। कब तक किसी के पीछे चलोगे? पीछे चलने में अंधापन तो कायम ही रहेगा।
कब तक किसी के हाथ का सहारा लोगे? सहारा तुम्हें पंगु बनाएगा। सहारे से कभी कोई स्वतंत्र थोड़े ही हुआ है। सहारे से तो पंगुता बननी निर्मित हो जाती है। बाहर किसी में तुम्हें दिखाई पडा है आविर्भाव चैतन्य का, उससे अपने भीतर के चैतन्य को स्मरण करो।
गुरु में मिल जाने की कामना भी कामना है। इस कामना से तुम मुक्त न हो सकोगे। यह तुम्हें भटकाए रहेगी, भरमाए रहेगी। अंततः एक ऐसी चैतन्य दशा को पाना है, जिसके पार पाने को कुछ भी शेष न हो, जहां होना परम तृप्ति हो, जिसके पार क्षणभर के लिए भी भविष्य की आकांक्षा न उठती हो। ऐसी चैतन्य दशा को पाना है, जिसमें भविष्य शून्य हो जाए, समय मिट जाए। जहां समय मिट जाता है, वहीं अमृत का अनुभव होता है।
इसलिए हमने मृत्यु को नाम दिया है, काल। काल का एक अर्थ समय भी होता है और दूसरा अर्थ मृत्यु भी होता है। जब तक समय है, तब तक मृत्यु है। जब समय खो गया, अकाल अनुभव हुआ। अकाल का अर्थ है, अमृत। अकाल का अर्थ है, तुम्हारा शाश्वत होना।
गीता दर्शन
ओशो

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