Thursday, 16 July 2015

कृष्ण और बांसुरी

कृष्‍ण और बांसुरी
ठीक पूछते हैं कि कृष्ण की यह बांसुरी और ये बांसुरी पर बजाए गए स्वर परमात्मा की तरफ की गई प्रार्थनाएं नहीं हैं? प्रार्थना मैं न कहूंगा। क्योंकि कृष्ण जैसा आदमी प्रार्थना नहीं करता। प्रार्थना किससे करेगा? प्रार्थना में थोड़ा फासला हो जाता है। प्रार्थना में थोड़ा भेद हो जाता है। प्रार्थना में प्रार्थी अलग हो जाता है उससे, जिससे प्रार्थना करता है। प्रार्थना द्वैत है। इसे थोड़ा समझना अच्छा होगा।
प्रार्थना द्वैत है। नहीं, कृष्ण बांसुरी बजाते वक्त प्रार्थना में नहीं, ध्यान में हैं। ध्यान अद्वैत है। और प्रार्थना और ध्यान शब्द में यही फर्क है। प्रार्थना द्वैतवादी की खोज है। वह कहता है, इधर मैं हूं, उधर परमात्मा है, निवेदन करता हूं। ध्यान अद्वैतवादी की स्थिति है। वह कहता है; वहां कोई परमात्मा नहीं, यहां मैं नहीं, बीच में दोनों के सब हैं। कृष्ण की बांसुरी प्रार्थना का उठा हुआ गीत नहीं, ध्यान से उठा हुआ स्वर है। यह किसी परमात्मा से की गई प्रार्थना नहीं, यह स्वयं को दिया गया धन्यवाद है। “सेल्फ कांग्रेचुलेशन’ है, स्वयं को दिया गया धन्यवाद है। स्वयं के प्रति प्रगट गई अनुगृहीत भावना। यह अनुग्रह-भाव है, यह “ग्रेटीटयूड’ है, “प्रेयर’ नहीं। यह अनुग्रह-बोध है, यह अहोभाव है, क्योंकि प्रार्थना में पैर उतने मुक्त नहीं हो सकते जितने अहोभाव में होते हैं। प्रार्थना में संकोच और डर तो बना ही रहता है। प्रार्थना में भय और आकांक्षा तो बनी ही रहती है। प्रार्थना सुनी जाएगी, नहीं सुनी जाएगी, इसका संशय तो बना ही रहता है। कोई प्रार्थना सुनने वाला है या नहीं, इसका संदेह तो खड़ा ही रहता है।
अनुग्रह में कोई सवाल नहीं रह जाता। कोई सुनता है या नहीं सुनता है, यह सवाल ही नहीं है। कोई गुनता है, नहीं गुनता है, यह सवाल ही नहीं है। कोई मानेगा, नहीं मानेगा, यह सवाल ही नहीं है। यह किसी के लिए “एड्रेस्ड’ नहीं है। ध्यान जो है, “अनएड्रेस्ड’ है। इस पर किसी का कोई पता ही नहीं है। सीधा अनुग्रह का भाव है, जो समस्त के प्रति निवेदित है। आकाश सुने तो सुने, फूल सुने तो सुने, बादल सुने तो सुने, हवाएं ले जाएं तो ले जाएं न ले जाएं तो न ले जाएं। इसके पीछे कोई आकांक्षा नहीं है। “देअर इज नो एंड टु इट’। यह अपने-आप में पूरी है बात। बांसुरी बज गई है, बात खत्म हो गई है। कृष्ण ने अपने हृदय को निवेदन कर दिया, “अनएड्रेस्ड’। यह किसी के प्रति नहीं है निवेदन। यह निपट निवेदन है। इसीलिए कृष्ण आनंद से बजा सके इस बांसुरी को। मीरा उतने आनंद से नहीं नाच सकी। मीरा ध्यान में नहीं है, प्रार्थना में है। मीरा के लिए कृष्ण वहां पराए की तरह खड़े हैं। कितने ही निकट हों, पर पराए हैं। कितने ही पास हों, पर फिर भी दूर हैं। और कितने ही हों, फिर भी एक नहीं हो गए हैं।
इसलिए मीरा के नाचने में वह स्वतंत्रता नहीं है, जो कृष्ण के नाचने में है। मीरा के घुंघरुओं में परतंत्रता का तो थोड़ा-सा स्वर है। मीरा के भजन में दुख है, पीड़ा है। कृष्ण की बांसुरी में सिवाय आनंद के और कुछ भी नहीं है। मीरा के भजन में आंसू भी हैं–“एड्रेस्ड’ है न भजन, किसी का पता लिखा है; पहुंचेगा नहीं, सुनेगा नहीं; पता नहीं आएगा, नहीं आएगा; सेज उसने तैयार कर रखी है, निवेदन भेज दिया है, प्रतीक्षा जारी है। मीरा के भजन के पीछे कोई लक्ष्य है। मीरा के भजन के पीछे कोई आकांक्षा है, अभीप्सा है, इसलिए मीरा की आंख में आंसू भी हैं, मीरा के मन में प्रतीक्षा भी है, पूरी होगी कि नहीं होगी आकांक्षा, इसका भय भी है। इसका कंपन भी है। कृष्ण के मन में कोई कंपन नहीं है। ये ध्यान से उठे हुए स्वर हैं, किसी परमात्मा के प्रति प्रेरित नहीं, बल्कि किसी परमात्मा से ही उठे हुए हैं। अनंत के प्रति विस्तीर्ण, “अनएड्रेस्ड’, कोई पता-ठिकाना नहीं है। कृष्ण किसीलिए बांसुरी नहीं बजा रहे हैं, अकारण बजा रहे हैं। या इसीलिए बजा रहे हैं कि अब और करने का कोई कारण नहीं रहा, अब बांसुरी ही बजाई जा सकती है।
आमतौर से हम बांसुरी को चैन से जोड़ते हैं। हम कहते हैं, फलां आदमी चैन की बांसुरी बजा रहा है। असल में बांसुरी का मतलब ही यह है कि कोई आदमी चैन में है। कोई आदमी “एट ईज’ हो गया, अब बांसुरी बजाने के सिवाय कोई बचा नहीं कुछ करने को। नाहक का काम है, बेकार काम है, कुछ फल तो होता नहीं। कुछ आता तो नहीं, कुछ मिलता तो नहीं। लेकिन कुछ मिल गया है, कुछ पा लिया गया है, वह फूट-फूटकर बह जाता है।
ओशो, कृष्‍ण स्‍मृति, प्रवचन 8

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