Monday, 13 July 2015

गुरु और शिष्य

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सारी दुनिया में बच्चों के मन से माता—पिता के प्रति श्रद्धा उठने का बड़े से बड़ा कारण यही है कि बच्चों को एक दिन यह पाखंड दिखायी पड़ जाता है। काश, तुम ईमानदार रहे होते! जब तुम्हारे बेटे ने तुमसे पूछा था कि ईश्वर है, तुमने कहा होता कि मैं तलाश रहा हूं मुझे अभी मिला नहीं, तू भी तलाशना। और जब तक मुझे मिला नहीं, मैं कैसे कहूं कि है और कैसे कहूं कि नहीं है? मैं कुछ भी नहीं कह सकूंगा, मैं असहाय हूं।

तुमने अपनी दीनता प्रगट की होती, तो जिस दिन बच्चा बड़ा होता उस दिन सदा के लिए तुम्हारे प्रति सम्मान रखता कि तुम ईमानदार आदमी हो। तुमने धोखा नहीं दिया। तुम झूठ नहीं बोले। और तुमने अगर अपने बच्चे को कहा होता कि तू भी खोजना, जैसे मैं खोज रहा हूं। और अगर तुझे पहले पता चल जाये तो तू मुझे बता देना, मुझे पहले पता चल जायेगा तो मैं तुझे बता दूंगा। तुमने काश, इतना सम्मान किया होता, तो श्रद्धा टूट नहीं सकती थी।

विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के प्रति विद्यार्थियों की कोई श्रद्धा नहीं; कारण साफ है। श्रद्धा—योग्य ही कुछ नहीं है। झूठी बातें तुम कर रहे हो, जिनका तुम्हारे जीवन से कोई तालमेल नहीं है। तुम ऐसी बातें कर रहे हो जिनका तुम्हें पता नहीं है। तुम बातें कर रहे हो, क्योंकि करनी हैं; क्योंकि पाठ्यक्रम का अंग हैं।

मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी हुआ तो मुझे एक कालेज से दूसरे कालेज में हटाया गया, निकाला गया मुझे। क्योंकि शिक्षक मुझसे नाराज होने लगे।

दर्शनशास्त्र का मैं विद्यार्थी था तो मैंने दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर को पूछा कि पहले यह बात साफ हो जाये कि जो आप समझा रहे हैं इसका आपको पता है? वह तो एकदम नाराज हो गये, कि अगर मुझे पता नहीं तो बताता कैसे?
मैंने कहा : मैं यह नहीं पूछ रहा हूं कि आपने किताबें नहीं पढ़ी हैं। किताबें तो जो आपने पढ़ी हैं वे तो मैं भी पढ़ सकता हूं मैं भी पढ़ रहा हूं। मैं यह पूछता हूं आपको अनुभव हुआ है?

वे पतंजलि के योग—शास्त्र पर बोल रहे थे, मैंने पूछा कि ध्यान आपने किया? समाधि का कोई अनुभव हुआ है? निर्विकल्प कोई दशा आपने अनुभव की है?
उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपति को लिख कर भेजा कि मैं झंझटें खड़ी करता हूं। तो या तो वे नौकरी छोड़ देंगे या मुझे कहीं और भेज दिया जाये; हम दोनों एक साथ एक ही कक्षा में नहीं हो सकते। उन्होंने कहा कि मुझे बेचैनी पैदा कर देता है। इस तरह की बातें पूछ देता है, जो कि अगर मैं ईमानदारी से कहूं तो मुझे कुछ पता नहीं। लेकिन अगर मैं यह कहूं कि मुझे पता नहीं, तो बाकी विसूतार्थी कहेंगे. फिर पढ़ा क्या रहे हैं? तो यह भी मैं कह नहीं सकता कि मुझे पता नहीं है। यह तो मान कर ही चलना पड़ेगा कि मुझे पता है।

मैं उनसे मिला भी; मैंने कहा कि आप एक दफा साफ—साफ कह दें कि पता नहीं है। मैं आप को बिलकुल बाधा नहीं दूंगा, एक दफा आप कह दें।

उन्होंने कहा कि मैं कैसे कह सकता हूं कि मुझे पता नहीं है? अगर मैं कहूं मुझे पता नहीं, तो फिर मैं कर क्या रहा हूं? यह तो मैं कह ही नहीं सकता। और तुम इस तरह के प्रश्न पूछने बंद कर दो।

मैंने कहा : मैं भी प्रश्न तब तक पूछे जाऊंगा जब तक सच्चा उत्तर न आ जाये। क्योंकि मुझे आपके चेहरे से पता चलता है कि आपको पता नहीं है। आपको निर्विकार, निर्विकल्प चित्त का कोई अनुभव नहीं है। मैं प्रश्न ही पूछता हूं तभी आप इतने बेचैन और परेशांन हो जाते हैं।

शिक्षकों के प्रति सम्मान नहीं हो सकता, क्योंकि सम्मान का मौलिक आधार नहीं है। मगर हर व्यक्ति गुरु होना चाहता है। ध्यान रखना, दोनों तुम्हारे भीतर छिपे हैं—गुरु भी और शिष्य भी। मगर शिष्य होने से शुरू करना तो गुरु होने तक पहुंच जाओगे। और तब वैसी गुरुता होगी, जो सप्राण होगी, जो अनुभव पर आधारित होगी।

~ ओशो , मरो है जोगी मरो ( गोरख )

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