Wednesday, 26 August 2015

देखने का नजरया

मैं छोटा था और मेरे पिता गरीब थे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक अपना मकान बनाया। गरीब भी थे और नासमझ भी थे, क्योंकि कभी उन्होंने मकान नहीं बनाए थे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक मकान बनाया। वह मकान नासमझी से बना होगा। वह बना और हम उस मकान में पहुंचे भी नहीं और वह पहली ही बरसात में गिर गया। हम छोटे थे और बहुत दुखी हुए। वे गांव के बाहर थे। उनको मैंने खबर की कि मकान तो गिर गया और बड़ी आशाएं थीं कि उसमें जाएंगे। वे तो सब धूमिल हो गयीं। वे आए और उन्होंने गांव में प्रसाद बांटा और उन्होंने कहा, ‘परमात्मा का धन्यवाद! अगर आठ दिन बाद गिरता, तो मेरा एक भी बच्चा नहीं बचता।’ हम आठ दिन बाद ही उस घर में जाने को थे। और वे उसके बाद जिंदगीभर इस बात से खुश रहे कि मकान आठ दिन पहले गिर गया। आठ दिन बाद गिरता, तो बहुत मुश्किल हो जाती।
यूं भी जिंदगी देखी जा सकती है। और जो ऐसे देखता है, उसके जीवन में बड़ी प्रसन्नता, बड़ी प्रसन्नता का उदभव होता है। आप जिंदगी को कैसे देखते हैं, इस पर सब निर्भर है। जिंदगी में कुछ भी नहीं है। आपके देखने पर, आपका एटीटयूड, आपकी पकड़, आपकी समझ, आपकी दृष्टि सब कुछ बनाती और बिगाड़ती है।
ध्यान-सूत्र, ओशो

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