Monday, 10 August 2015

देखने की दूसरी विधि:( ओशो तन्त्र सुत्र भाग -2)

                                                   Image result for boul                                                                                                                  देखने की दूसरी विधि:
किसी कटोरे को उसके पार्श्व— भाग या पदार्थ को देखे बिना देखो। थोड़े ही क्षणों में बोध को उपलब्ध हो जाओ।
किसी भी चीज को देखो। एक कटोरा या कोई भी चीज काम देगी। लेकिन देखने की गुणवत्ता भिन्न हो।
'किसी कटोरे को उसके पार्श्व— भाग या पदार्थ को देखे बिना देखो।’
किसी भी चीज को देखो; लेकिन इन दो शर्तों के साथ। चीज के पार्श्व— भाग को, किनारों को मत देखो, पूरे विषय को, पूरी चीज को देखो। आमतौर से हम अंशों को देखते हैं। हो सकता है कि यह सचेतन न हो; लेकिन हम अंशों को ही देखते हैं। अगर मैं तुम्हें देखता हूं तो पहले तुम्हारा चेहरा देखता हूं तब धड़ को और तब पूरे शरीर को देखता हूं।
किसी विषय को पूरे का पूरा देखो, उसे टुकड़ों में मत बांटो। क्यों? इसलिए कि जब तुम किसी चीज को हिस्सों में बांटते हो तो आंखों को हिस्सों में देखने का मौका मिलता है। चीज को उसकी समग्रता में देखो। तुम यह कर सकते हो।
मैं तुम सभी को दो ढंग से देख सकता हूं। मैं एक तरफ से देखता हुआ आगे बढ़ सकता हूं। पहले अ को देखूं तब ब को और तब स को, और इस तरह आगे बढूं। लेकिन जब मैं अ, ब या स को देखता हूं तो मैं उपस्थित नहीं रहता हूं; यदि उपस्थित भी रहूं तो किनारे पर, परिधि पर उपस्थित रहता हूं। और उस हालत में मेरी दृष्टि एकाग्र और समग्र नहीं रहती है। क्योंकि जब मैं ब को देखता हूं तो अ से हट जाता हूं और जब स को देखता हूं तो अ पूरी तरह खो जाता है, मेरी निगाह से बाहर चला जाता है। इस समूह को देखने का एक ढंग यह है। लेकिन मैं इस पूरे समूह को व्यक्तियों में, इकाइयों में बांटे बगैर भी पूरे का पूरा देख सकता हूं। इसका प्रयोग करो। पहले किसी चीज को अंश—अंश में देखो—प्ल अंश के बाद दूसरे अंश को। और तब अचानक उसे पूरे का पूरा देखो, उसे टुकड़ों में बांटो मत। जब तुम किसी चीज को पूरे का पूरा देखते हो, तो आंखों को गति करने की जरूरत नहीं रहती। आंखों को गति करने का मौका न मिले, इस उद्देश्य से ही ये शर्तें रखी गई हैं।
एक कि पूरे विषय को उसकी समग्रता में देखो, पूरे का पूरा देखो। और दूसरी कि पदार्थ को मत देखो। अगर कटोरा लकड़ी का है तो लकड़ी को मत देखो, सिर्फ कटोरे को देखो, उसके रूप को देखो। पदार्थ को मत देखो; वह सोने का हो सकता है, चांदी का हो सकता है। उसे देखो, वह किस चीज का बना है यह मत देखो। केवल उसके रूप को देखो। पहली बात कि उसे पूरे का पूरा देखो, और दूसरी कि उसके पदार्थ को नहीं, रूप को देखो। क्यों? पदार्थ कटोरे का भौतिक भाग है और रूप उसका अभौतिक भाग है। और तुम्हें पदार्थ से अपदार्थ की ओर गति करनी है। यह सहयोगी होगा, प्रयोग करो। किसी व्यक्ति के साथ भी प्रयोग कर सकते हो। कोई पुरूष या कोई स्‍त्री खड़ी है, उसे देखो। उस स्‍त्री या पुरूष को पूरे का पूरा, समग्रत: अपनी दृष्टि में समेटो।
शुरू—शुरू में यह कुछ अजीब सा लगेगा; क्योंकि तुम इसके आदी नहीं हो। लेकिन अंत में यह बहुत सुंदर अनुभव होगा। और तब यह मत सोचो कि शरीर सुंदर है या असुंदर, गोरा है या काला, मर्द है या औरत। सोचो मत; रूप को देखो, सिर्फ रूप को। पदार्थ को भूल जाओ और केवल रूप पर निगाह रखो।
'थोड़े ही क्षणों में बोध को उपलब्ध हो जाओ।’
रूप को समग्रता में देखते जाओ। आंखों को गति मत करने दो और यह मत सोचने लगो कि कटोरा किस चीज का बना है। ऐसे देखने से क्या घटित होगा?
तुम एकाएक स्वयं के प्रति, अपने प्रति बोध से भर जाओगे। किसी चीज को देखते हुए तुम अपने को जान लोगे। क्यों? क्योंकि आंखों को बाहर गति करने की गुंजाइश न रही। रूप को समग्रता में लिया गया है, इसलिए तुम उसके अंशों में नहीं जा सकते। पदार्थ को छोड़ दिया गया है, शुद्ध रूप को लिया गया है। अब तुम उसके पदार्थ सोना, चांदी, लकड़ी वगैरह के —संबंध में नहीं सोच सकते। रूप शुद्ध है; उसके संबंध में सोचना संभव नहीं है। रूप बस रूप है, उसके संबंध में क्या सोचोगे?
अगर वह सोने का है तो तुम हजार बातें सोच सकते हो। तुम सोच सकते हो कि यह मुझे पसंद है, कि मैं इसे चुरा लूं र या इसके संबंध में कुछ करूं, या इसे बेच दूं या हो सकता है कि तुम उसकी कीमत की सोचो। बहुत सी बातें संभव हैं। लेकिन शुद्ध रूप के संबंध में सोचना संभव नहीं है। शुद्ध रूप सोच—विचार को बंद कर देता है।
और तुमने कटोरे को उसकी समग्रता में लिया है। इसलिए उसके एक भाग से दूसरे भाग पर गति करने की संभावना न रही। तुम्हें समग्र के साथ रहना है और रूप के साथ रहना है। तब हठात तुम स्वयं को, अपने को जान लोगे। क्योंकि अब आंखें गति नहीं कर सकती हैं। और आंखों को गति करने की जरूरत है, यह उनका स्वभाव है। इसलिए अब तुम्हारी दृष्टि तुम पर लौट आएगी। यह दृष्टि की अंतर्यात्रा है; दृष्टि स्रोत पर लौट आएगी और तुम अचानक स्वयं के प्रति जाग जाओगे।
यह स्वयं के प्रति जागना जीवन का सर्वाधिक आनंदपूर्ण क्षण है, यही समाधि है। जब पहली बार तुम स्वयं के बोध से भरते हो तो उसमें जो सौंदर्य, जो आनंद होता है, उसकी तुलना तुम किसी भी जानी हुई चीज से नही कर सकते। सच तो यह है कि पहली बार तुम स्वयं होते हो, आत्मवान होते हो, पहली बार तुम जानते हो कि मैं हूं। तुम्हारा होना बिजली की कौंध की तरह पहली बार प्रकट होता है। तंत्र सूत्र भाग2

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