Saturday, 22 August 2015

संभोग को ध्यान कैसे बनाया जाए?

संभोग को ध्यान कैसे बनाया जाए? क्या उसके लिए संभोग में किसी विशेष आसन का अभ्यास जरूरी है?
आसन अप्रासंगिक हैं, आसन  अर्थपूर्ण नहीं हैं। असली चीज दृष्टि है, रुझान है। शरीर की स्थिति नहीं, मन की स्थिति असली बात है। लेकिन अगर मन बदल जाए तो संभव है कि उसके साथ आसन भी बदल जाएं। क्‍योंकि वे एक—दूसरे से जुड़े है। लेकिन वे बुनियादी नहीं हैं।
उदाहरण के लिए, पुरुष सदा स्त्री के ऊपर होता है। इसमें पुरुष का अहंकार छिपा है, पुरुष हमेशा समझता है कि मैं श्रेष्ठ हूं, बड़ा हूं। वह स्त्री के नीचे कैसे हो सकता है? लेकिन सारी पृथ्वी पर आदिम समाजों में स्त्री पुरुष के ऊपर होती है। इसलिए अफ्रीका में लोग उस आसन को मिशनरी आसन कहने लगे जिसमें पुरुष ऊपर होता है। जब पहली बार ईसाई मिशनरी अफ्रीका गए तो आदिवासी उनके संभोग के ढंग को देखकर हैरान रह गए। उन्हें समझ में नहीं आया कि वे क्या कर रहे हैं। उन्होंने सोचा कि इसमें स्त्री तो मर जाएगी। अफ्रीका में इस आसन को मिशनरी आसन कहते हैं। अफ्रीका के आदिवासी कहते हैं कि यह हिंसापूर्ण है कि पुरुष स्त्री के ऊपर रहे। स्त्री कमनीय है, कोमल है, इसलिए उसे पुरुष के ऊपर होना चाहिए। लेकिन पुरुष के लिए अपने को स्त्री के नीचे रखना बहुत कठिन है।
अगर तुम्हारा मन बदल जाए तो बहुत चीजें बदल जाएंगी। अच्छा तो यही है कि स्त्री ऊपर रहे। इसके पक्ष में कई बातें हैं। स्त्री निष्‍क्रिय है, इसलिए अगर वह ऊपर रहेगी तो बहुत हिंसा नहीं करेगी, वह विश्राम में होगी। और अगर पुरुष नीचे होगा तो वह भी बहुत उपद्रव नहीं कर सकेगा। उसे भी विश्रामपूर्ण होना पड़ेगा। यह अच्छा रहेगा। ऊपर होकर वह बहुत हिंसात्मक होगा ही, वह बहुत कुछ करेगा। और स्त्री को तो कुछ करने की जरूरत नहीं है। तंत्र में तुम्हें विश्रामपूर्ण होना चाहिए, इसलिए स्त्री का ऊपर रहना ठीक है। वह पुरुष से अधिक विश्रामपूर्ण रह सकती है। स्त्री का चित्त निष्‍क्रिय है, इसलिए उसे विश्राम सहज होता है।
तो आसन बदलेंगे, लेकिन आसनों की बहुत चिंता मत करो। बस अपने मन को बदलो। जीवन—शक्ति के प्रति समर्पण करो, उसके साथ बहो। अगर तुम सचमुच समर्पित हो तो तुम्हारा शरीर उस समय के लिए जरूरी आसन को, सम्यक आसन को खुद ही ग्रहण कर लेगा। अगर प्रेमी—प्रेमिका गहन रूप से समर्पित हैं तो उनके शरीर आप ही उचित आसन ग्रहण कर लेंगे।
स्थिति रोज—रोज बदल जाती है, इसलिए पहले से कोई आसन तय कर लेने की जरूरत नहीं है। यही तो अड़चन है कि तुम पहले से सब तय कर लेना चाहते हो। जब भी तुम ऐसा करते हो, यह मन का ही धंधा है। तब तुम समर्पण नहीं करते हो। समर्पण में तो चीजें अपने आप घटित होती हैं, रूप लेती हैं। जब प्रेमी—प्रेमिका दोनों समर्पण करते हैं तो एक अदभुत लयबद्धता निर्मित होती है। तब वे अनेक आसन ग्रहण करेंगे, या एक भी नहीं, महज विश्राम में होंगे। वह जीवन—शक्ति पर निर्भर है, पहले से लिए गए मानसिक निर्णय पर नहीं। पहले से कुछ भी निर्णय लेने की जरूरत नहीं है।
निर्णय ही समस्या है। संभोग के लिए भी तुम्हें निर्णय करना पड़ता है। ऐसी किताबें हैं जो सिखाती हैं कि संभोग कैसे किया जाए। इससे पता चलता है कि हमने कैसा मन निर्मित किया है। संभोग के लिए भी तुम्हें किताबों से पूछना पड़ता है। तब वह मानसिक कृत्य हो जाता है, तब तुम्हें हर बात का विचार करना पड़ता है। पहले तुम मन में रिहर्सल करते हो और तब संभोग में उतरते हो। तब तुम्हारा कृत्य नाटक हो जाता है, नकली हो जाता है। उसे सच्चा संभोग नहीं कह सकते, वह अभिनय हो गया। वह प्रामाणिक नहीं रहा।
समर्पण करो और महाशक्ति के साथ बही। भय क्या है? डर क्यों है? अगर तुम अपने प्रेमी के साथ भी निर्भय नहीं हो सकते तो किसके साथ होओगे? और एक बार तुम्हें प्रतीति हो जाए कि जीवन—शक्ति स्वयं ही सहायता करती है और स्वयं ही सम्यक मार्ग पकड़ लेती है तो उससे तुम्हें अपने पूरे जीवन के प्रति बहुत बुनियादी दृष्टि उपलब्ध हो जाएगी। तब तुम अपना समस्त जीवन परमात्मा के हाथ में छोड़ दे सकते हो, वही तुम्हारा प्रियतम है। तब तुम अपना सारा जीवन परमात्मा को सौंप देते हो। तब तुम न सोच—विचार करते हो, न योजना बनाते हो और न भविष्य को अपनी मर्जी के अनुसार चलाने की चेष्टा करते हो। तब तुम परमात्मा की मर्जी से, समग्र की मर्जी से भविष्य में गति करते हो।
लेकिन काम—कृत्य को ध्यान कैसे बनाया जाए? समर्पण करने से ही संभोग ध्यान बन जाता है। उस पर सोच—विचार मत करो, उसे बस होने दो। और विश्राम में उतर जाओ, आगे —आगे मत चलो। मन की यह एक बुनियादी समस्या है कि वह सदा आगे —आगे चलता है, वह सदा फल की खोज करता रहता है। और फल भविष्य में है। इसलिए तुम कभी कर्म में नहीं होते, तुम सदा फल की खोज करते भविष्य में होते हो। यह फल की खोज ही उपद्रव है, वह सब कुछ खराब कर देती है। बस कर्म में समग्रता से होओ। भविष्य क्या है? वह अपने आप ही आएगा, तुम्हें उसकी चिंता नहीं लेनी है। और तुम्हारी चिंताएं भविष्य को नहीं ला सकती हैं। वह आ ही रहा है, वह आया ही हुआ है। तुम उसे भूल जाओ और यहं। और अभी, वर्तमान में होओ।
यहां और अभी होने के लिए काम—कृत्य एक गहन अंतर्दृष्टि बन सकता है। मेरे देखे अब यही एक कृत्य बचा है जिसमें तुम यहां और अभी हो सकते हो। अपने आफिस में तुम यहां और अभी नहीं हो सकते हो। जब तुम कालेज में पढ़ रहे हो, वहां भी यहां और अभी नहीं हो सकते। इस आधुनिक संसार में कहीं भी यहां और अभी होना कठिन है। केवल प्रेम में यहां और अभी हुआ जा सकता है।
लेकिन तुम ऐसे हो कि प्रेम में भी वर्तमान क्षण में नहीं होते, तुम वहां भी फल की सोच रहे हो। और अनेक आधुनिक पुस्तकों ने नई कठिनाइयां पैदा कर दी हैं। तुम काम— भोग पर एक पुस्तक पढ़ते हो और तब तुम डरने लगते हो कि मैं सही ढंग से संभोग कर रहा हूं या गलत ढंग से। तुम कामासनों पर एक पुस्तक पढ़ते हो और तब तुम भयभीत हो जाते हो कि मेरा आसन सही है या गलत। मनोवैज्ञानिकों ने तुम्हारे मन में नई चिंताएं खड़ी कर दी हैं। अब वे कहते हैं कि पति को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसकी पत्नी को आर्गाज्म प्राप्त हो रहा है या नहीं।
तो अब पति इसी चिंता में फंसा है। और इस चिंता से कुछ हासिल होने वाला नहीं है, वरन वह बाधा ही बनने वाली है। और पत्नी चिंतित है कि पति पूर्ण विश्राम को उपलब्ध हो रहा है या नहीं। उसे दिखाना होगा कि मैं बहुत आनंदित हो रही हूं। फिर सब कुछ झूठा हो जाता है। दोनों फल के लिए चिंतित हैं। और इसी चिंता में फल कभी हाथ नहीं आएगा।
सब भूल जाओ और क्षण में बहो। अपने शरीर को अभिव्यक्ति का मौका दो। तुम्हारा शरीर सब जानता है, उसका अपना विवेक है। तुम्हारा शरीर काम—कोशिकाओं से बना है, उसका अपना बिल्ट—इन प्रोग्राम है। उसे तुमसे कुछ पूछने की जरूरत नहीं है। सब शरीर पर छोड़ दो और शरीर अपने आप ही गति करेगा। यह प्रकृति के हाथों में अपने को छोड़ना, यह समर्पण ही ध्यान बन जाएगा।
और अगर तुम्हें सेक्स में यह अनुभव हो जाए तो तुम्हें राज हाथ लग गया कि जहां भी तुम समर्पण करोगे वहीं तुम्हें यह अनुभव होगा। तब तुम गुरु को समर्पित हो सकते हो, यह प्रेम—संबंध है। गुरु के प्रति समर्पण करते हुए जब तुम उसके चरणों पर अपना सिर रखोगे, तुम्हारा सिर शून्य हो जाएगा, तुम ध्यान में चले जाओगे। और फिर गुरु की भी जरूरत नहीं रहेगी। तब बाहर जाओ और आकाश को समर्पित हो जाओ। और तब तुम जान गए कि समर्पण कैसे किया जाए—और यही असली बात है। तब तुम जाकर एक वृक्ष के प्रति समर्पण कर सकते हो।
लेकिन यह बात मूढ़तापूर्ण मालूम देगी, अगर तुम्हें समर्पण करना नहीं आता है। हम देखते हैं, एक ग्रामीण, एक आदिवासी नदी जाता है और नदी के प्रति झुक जाता है। वह नदी को माता कहकर पुकारता है। वह उगते हुए सूरज के प्रति झुक जाता है और उसे देवता कहकर पुकारता है। या वह किसी झाडू के पास उसकी जड़— पर अपना सिर रख देता है और झुक जाता है। हमें यह अंधविश्वास जैसा मालूम पड़ता है। तुम कहते हो, यह क्या मूढ़ता कर रहा है! वृक्ष क्या करेगा? नदी क्या करेगी? वे कोई देवी—देवता नहीं हैं। सूरज कोई देवता नहीं है।
लेकिन अगर तुम समर्पण करो तो कोई भी चीज परमात्मा है। समर्पण करने वाला चित्त ही भगवत्ता का निर्माण करता है। पत्नी को समर्पण करो और वह दिव्य हो जाती है। पति को समर्पण करो और वह भगवान हो जाता है। भगवत्ता समर्पण के द्वारा प्रकट होती है। पत्थर को समर्पण करो और पत्थर पत्थर नहीं रह जाता, पत्थर ग्रतइr बन जाता है, जीवित व्यक्ति हो जाता है।
इसलिए सिर्फ जानो कि समर्पण कैसे किया जाता है। और जब मैं कहता हूं कि समर्पण कैसे किया जाता है तो उसका यह मतलब नहीं है कि उसकी कोई विधि है, मेरा मतलब है कि प्रेम में समर्पण की सहज संभावना है। प्रेम में समर्पण करो और वहां उसका अनुभव लो। और फिर उसको अपने पूरे जीवन पर फैल जाने दो। तंत्र सूत्र।भाग2

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