Wednesday, 26 August 2015

पुरुष का अहंकार

प्रश्न :- मैं अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों में भी उत्सुक हो जाता हूं। लेकिन जब मेरी पत्नी किसी पुरुष में उत्सुकता दिखाती है तो मुझे बड़ी ईर्ष्या होती है, भयंकर अग्नि में मैं जलता हूं।
पुरुषों ने सदा से अपने लिए सुविधाएं बना रखी थीं, स्त्रियों को अवरुद्ध कर रखा था। पुरुषों ने स्त्रियों को बंद कर दिया था मकानों की चार दीवारों में, और पुरुष ने अपने को मुक्त रख छोड़ा था। अब वे दिन गए। अब तुम जितने स्वतंत्र हो, उतनी ही स्त्री भी स्वतंत्र है। और अगर तुम चाहते हो कि ईर्ष्या में न जलों तो दो ही उपाय हैं। एक तो उपाय है कि तुम स्वयं भी वासना से मुक्त हो जाओ। जहा वासना नहीं वहां ईर्ष्या नहीं रह जाती। और दूसरा उपाय है कि अगर वासना से मुक्त न होना चाहो तो कम—से—कम जितना हक तुम्हें है, उतना हक दूसरे को भी दे दो। उतनी हिम्मत जुटाओ।
मैं तो चाहूंगा कि तुम वासना से मुक्त हो जाओ। एक स्त्री जान ली तो सब स्त्रियां जान लीं। एक पुरुष जान लिया तो सब पुरुष जान लिये। फिर जो भेद हैं, वे केवल ऊपरी रेखाओं के हैं। और जो एक स्त्री को जानकर स्त्रियों को नहीं जान पाया, समझ लेना कि मूर्च्छित होकर जी रहा है। वह अनंत स्त्रियों को जानकर भी नहीं जान पायेगा। वह जान ही नहीं पायेगा। क्योंकि जानना होता है बोध से; वह मूर्च्छित है। वह भागता रहेगा एक को छोड्कर दूसरी के पीछे।
और निश्चित ही तुम जलोगे, क्योंकि पुरुष के अहंकार को चोट लगेगी। इसको तो तुम समझते हो बिलकुल ठीक है, कि तुम किसी दूसरे की स्त्री में उत्सुक हो जाओ तो कोई अड़चन नहीं। हम कहते हैं : पुरुष आखिर पुरुष है! पुरुषों ने ही गढ़ ली होगी यह कहावत कि पुरुष आखिर पुरुष है। पुरुषों ने ही यह हिसाब गढ़ लिये कि पुरुष एक से तृप्त नहीं होता, पुरुष को अनेक स्त्री चाहिये; स्त्री एक से तृप्त हो जाती है। ये पुरुषों की ही तरकीबें हैं। स्त्री को एक से तृप्त होना चाहिये—वह एक तुम हो! और तुम! तुम कैसे एक से तृप्त हो सकते हो, तुम तो पुरुष हो, पुरुष को तो सुविधा ज्यादा होनी चाहिये!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोस में श्रीमान मल्होत्रा नये—नये आकर पड़ोसी हुए। उनकी पत्नी बहुत सुंदर है। मुल्ला ने अपनी पत्नी को चिढ़ाने के लिए एक दिन सुबह उठते से ही कहा कि सुनो, नाराज न होना, कुछ दिनों से रोज मुझे सपनों में श्रीमती मल्होत्रा दिखाई पड़ती हैं।
पत्नी बोली : अकेले ही दिखाई देती हैं न? मुल्ला बोला. हां, पर तुम्हें कैसे पता चला? पत्नी ने कहा : क्योंकि श्रीमान मल्होत्रा मेरे सपनों में आते हैं। मुल्ला इससे बहुत दुखी था। चले थे पत्नी को चिढ़ाने, चिढ़ गए खुद।
जितनी स्वतंत्रता तुम अपने लिये चाहते हो, उतनी ही स्वतंत्रता तुम्हारी पत्नी की भी है। और अगर तुम पाते हो कि नहीं, पत्नी का दूसरे पुरुषों में उत्सुक होना उचित नहीं है, तो फिर तुम्हारा भी दूसरी स्त्रियों में उत्सुक होना भी उचित नहीं है। और जो तुम चाहते हो तुम्हारी पत्नी करे, वह तुम्हें पहले करना चाहिये; तभी तुम हकदार हो।
अपनी वासना की दौडों को छोड़ो। और मैं तुमसे यह बात कहे देता हूं : स्त्रियां निश्चित ही इतनी ज्यादा वासनाग्रस्त नहीं होतीं, जितने पुरुष होते हैं। स्त्रियों के पास एक तरह का समर्पणभाव होता है। और स्त्रियों के पास एक तरह की निष्ठा और आस्था और श्रद्धा होती है। पुरुष का प्रेम भी छिछला होता है, गहरा नहीं होता, ऊपर—ऊपर होता है। पुरुष की जिंदगी में प्रेम ही सब कुछ नहीं होता, और भी बहुत चीजें होती हैं; स्त्री के जीवन में बस सब कुछ प्रेम ही होता है, और सब चीजें प्रेम के ही भीतर समाविष्ट होती हैं। पुरुष के जीवन में और भी कई काम हैं, जिनमें प्रेम भी एक काम है। स्त्री के जीवन में और कोई काम ही नहीं है, सारा काम ही, सारे काम ही प्रेम में ही समाविष्ट हैं।
पुरुष उच्छृंखल है, पुरुष चंचल है। यह तुम छोटे—छोटे बच्चों में भी देख लेना। छोटा लड़का हो, शात बैठ ही नहीं सकता। चीजें पटकेगा, घड़ी खोलेगा,
मक्खियां पकड़ने लगेगा, कुछ—न—कुछ करेगा खटर—पटर। छोटी बच्ची है, वह शात बैठी है एक कोने में। हो सकता है, अपनी गुड़िया को छाती से लगाये हो।
और तुम खयाल रखना, स्त्रियों को पता चलना शुरू हो जाता है गर्भ में भी कि लड़का है कि लड़की। अगर जरा संवेदनशील स्त्री हो, उसे पता चलना शुरू हो जाता है, क्योंकि लड़का वहीं उपद्रव शुरू कर देता है। कहीं टांग मारेगा, कहीं सिर हिलायेगा। लड़की शात होती है। अनुभवी मां को पता चलना शुरू हो जाता है कि लड़का है कि लड़की। उपद्रव के अनुपात से पता चलना शुरू हो जाता है।
इसका वैज्ञानिक कारण है। जीवशास्त्र कहता है कि स्त्री के व्यक्तित्व में अनुपात है, पुरुष के व्यक्तित्व में अनुपात नहीं है। स्त्री के जो अणु हैं, वे सम हैं। दो अणुओं से मिलकर जन्म होता है व्यक्ति का—पुरुष और स्त्री के दो अणुओं से मिलकर। पुरुष में चौबीस कोष्ठों वाले अणु होते हैं और तेईस कोष्ठोवाले अणु होते हैं, दो तरह के अणु होते हैं। स्त्री में चौबीस कोष्ठों वाला ही होता है। जब पुरुष का चौबीस कोष्ठों वाला अणु स्त्री के चौबीस कोष्ठों वाले अणु से मिलता है तो लड़की का जन्म होता है। अड़तालीस अणु। सम होता है तौल। तराजू के दोनों पलड़े बराबर होते हैं। और जब पुरुष का तेईस कोष्ठों वाला अणु स्त्री के चौबीस कोष्ठों वाले अणु से मिलता है तो पुरुष का जन्म होता है। एक पलड़ा नीचा होता है, एक पलड़ा ऊंचा होता है, समतुलता नहीं होती। सैंतालीस कोष्ठ होते हैं—एक तरफ तेईस, एक तरफ चौबीस। स्त्री में चौबीस—चौबीस कोष्ठ होते हैं। इसलिये स्त्री ज्यादा सुंदर होती है, समानुपाती होती है, शात होती है। उसमें एक तरह की समता होती है। एक तरह की थिरता होती है। एक तरह की गोलाई होती है स्त्री के व्यक्तित्व में। पुरुष में थोड़ा—सा तिरछापन होता है, आडा—आड़ा जाता है। उसके वैज्ञानिक आधार भी हैं।
ढब्बू जी और उनकी पत्नी तीर्थयात्रा को गये। ढब्‍बू जी किताबों के बड़े प्रेमी हैं, चौबीस घंटे किताबें बगल में दबाये रहते हैं। मंदिर में भी गए—विश्वनाथ के मंदिर में गये होंगे काशी में। ढब्‍बू जी अपनी किताब ही पढ़ रहे हैं मंदिर में भी खड़े होकर। पत्नी प्रार्थना कर रही है। अब उसका दुख तुम समझो। उसने जोर से कहा : हे विश्वनाथ के देवता! इतना भर करना, अगले जन्म में मरकर मैं स्त्री न होऊं, किताब होऊं, ताकि कम—से—कम ढब्‍बू जी के साथ चौबीस घड़ी तो रह सकूं।
ढब्‍बू जी ने सुना। वह भी तत्‍क्षण झुक गए घुटनों के बल, हाथ जोड़कर कहा कि हे प्रभु! अगर उसकी प्रार्थना मान ही लो तो तुम इसे टेलीफोन की डायरेक्टरी बनाना, ताकि हर साल बदल सकूं।
पुरुष का चित्त ऐसा ही चंचल है। इस चंचलता को जाने दो। थोड़े थिर होओ। थोड़े शात होओ। थोड़े जीवन में समझदार होओ। बहुत दौड़ चुके जन्मों—जन्मों तक, कहां पहुंचे हो? और कब तक दौड़ते रहोगे? अब ठहरो!
ठहरें पांव तो मिले गांव। ठहर जाओ तो गांव मिल जाये। तो जिसकी तलाश है वह मिल जाये। उस ठहरने का नाम ही ध्यान है। चलते रहने का नाम संसार है। ठहर जाने का नाम परमात्मा है।
मरौ हे जोगी मरौ, ओशो

देखने का नजरया

मैं छोटा था और मेरे पिता गरीब थे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक अपना मकान बनाया। गरीब भी थे और नासमझ भी थे, क्योंकि कभी उन्होंने मकान नहीं बनाए थे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक मकान बनाया। वह मकान नासमझी से बना होगा। वह बना और हम उस मकान में पहुंचे भी नहीं और वह पहली ही बरसात में गिर गया। हम छोटे थे और बहुत दुखी हुए। वे गांव के बाहर थे। उनको मैंने खबर की कि मकान तो गिर गया और बड़ी आशाएं थीं कि उसमें जाएंगे। वे तो सब धूमिल हो गयीं। वे आए और उन्होंने गांव में प्रसाद बांटा और उन्होंने कहा, ‘परमात्मा का धन्यवाद! अगर आठ दिन बाद गिरता, तो मेरा एक भी बच्चा नहीं बचता।’ हम आठ दिन बाद ही उस घर में जाने को थे। और वे उसके बाद जिंदगीभर इस बात से खुश रहे कि मकान आठ दिन पहले गिर गया। आठ दिन बाद गिरता, तो बहुत मुश्किल हो जाती।
यूं भी जिंदगी देखी जा सकती है। और जो ऐसे देखता है, उसके जीवन में बड़ी प्रसन्नता, बड़ी प्रसन्नता का उदभव होता है। आप जिंदगी को कैसे देखते हैं, इस पर सब निर्भर है। जिंदगी में कुछ भी नहीं है। आपके देखने पर, आपका एटीटयूड, आपकी पकड़, आपकी समझ, आपकी दृष्टि सब कुछ बनाती और बिगाड़ती है।
ध्यान-सूत्र, ओशो

Tuesday, 25 August 2015

तीसरी आँख को विकसित करने लिए कुछ महत्‍वपूर्ण ध्‍यान: --ओशो

(1) साक्षी को खोजना—ओशो
तीसरी आँख को विकसित करने लिए कुछ महत्‍वपूर्ण ध्‍यान: --ओशो
शिव ने कहा: होश को दोनों भौहों के मध्‍य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो। देह को पैर से सिर तक प्राण तत्‍व से भर जाने दो, ओर वहां वह प्रकाश की भांति बरस जाए।
वह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस वह विधि लेकर ग्रीस गया। और वास्‍तव में यह पश्‍चिम में सारे रहस्‍यवाद का उद्गम बन गया। स्‍त्रोत बन गया। वह पश्‍चिम में पूरे रहस्‍यवाद का जनक है।
यह विधि बहुत गहन पद्धतियों में से है। इसे समझने का प्रयास करो: ‘’होश को दोनों भौहों के मध्‍य में लाओ।‘’
आधुनिक मनोविज्ञान और वैज्ञानिक शोध कहती है कि दोनों भौंहों के मध्‍य में एक ग्रंथि है जो शरीर का सबसे रहस्‍यमय अंग है। यह ग्रंथि, जिसे पाइनियल ग्रंथि कहते है। यही तिब्‍बतियों का तृतीय नेत्र है—शिवनेत्र : शिव का, तंत्र का नेत्र। दोनों आंखों के बीच एक तीसरी आँख का अस्‍तित्‍व है, लेकिन साधारणत: वह निष्‍कृय रहती है। उसे खोलने के लिए तुम्‍हें कुछ करना पड़ता है। वह आँख अंधी नहीं है। वह बस बंद है। यह विधि तीसरी आँख को खोलने के लिए ही है।
‘’होश को दोनों भौंहों के मध्‍य में लाऔ।‘’......अपनी आंखें बंद कर लो, और अपनी आंखों को दोनों भौंहों के ठीक बीच में केंद्रित करो। आंखे बंद करके ठीक मध्‍य में होश को केंद्रित करो, जैसे कि तुम अपनी दोनों आँखो से देख रहे हो। उस पर पूरा ध्‍यान दो।
वह विधि सचेत होने के सरलतम उपायों में से है। तुम शरीर के किसी अन्‍य अंग के प्रति इतनी सरलता से सचेत नहीं हो सकते। यह ग्रंथि होश को पूरी तरह आत्‍मसात कर लेती है। यदि तुम उस पर होश को भ्रूमध्‍य पर केंद्रित करो तो तुम्‍हारी दोनों आंखें तृतीय नेत्र से सम्‍मोहित हो जाती है। वे जड़ हो जाती है, हिल भी नहीं सकती। यदि तुम शरीर के किसी अन्‍य अंग के प्रति सचेत होने का प्रयास कर रहे हो तो यह कठिन है। यह तीसरी आँख होश को पकड़ लेती है। होश को खींचती है। वह होश के लिए चुम्‍बकीय है। तो संसार भर की सभी पद्धतियों ने इसका उपयोग किया है। होश को साधने का यह सरलतम उपाय है। क्‍योंकि तुम ही होश को केंद्रित करने का प्रयास नहीं कर रहे हो; स्‍वयं वह ग्रंथि भी तुम्‍हारी मदद करती है; वह चुम्‍बकीय है। तुम्‍हारा होश बलपूर्वक उनकी और खींच लिया जाता है। वह आत्‍मसात हो जाता है।
तंत्र के प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि होश तीसरी आँख का भोजन है। वह आँख भूखी है; जन्‍मों-जन्‍मों से भूखी है। यदि तुम उस पर होश को लाओगे तो वह जीवंत हो जाती है। उसे भोजन मिल जाता है। एक बार बस तुम इस कला को जान जाओं। तुम्‍हारा होश स्‍वयं ग्रंथि द्वारा ही चुम्‍बकीय ढंग से खिंचता है। आकर्षित होता है। तो फिर होश को साधना कोई कठिन बात नहीं है। व्‍यक्‍ति को बस ठीक बिंदु जान लेना होता है। तो बस अपनी आंखें बंद करों, दोनों आँखो को भ्रूमध्‍य की और चले जाने दो, और उस बिंदु को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के समीप आओगे तो अचानक तुम्‍हारी आँख जड़ हो जाएंगी। जब उन्‍हें हिलाना कठिन हो जाए तो जानना कि तुमने ठीक बिंदु को पकड़ लिया है।
‘’होश को दोनों भौंहों के मध्‍य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो।‘’......यदि यह होश लग जाए तो पहली बार तुम्‍हें एक अद्भुत अनुभव होगा। पहली बार तुम विचारों को अपने सामने दौड़ता हुआ अनुभव करोगे। तुम साक्षी हो जाओगे। यह बिलकुल फिल्‍म के परदे जैसा होता है। विचार दौड़ रहे है और तुम एक साक्षी हो।
सामान्‍यतया तुम साक्षी नहीं होते: तुम विचारों के साथ एकात्‍म हो। यदि क्रोध आता है तो तुम क्रोध ही हो जाते हो। कोई विचार उठता है तो तुम उसके साक्षी नहीं हो सकते। तुम विचार के साथ एक हो जाते हो। एकात्‍म हो जाते हो, और इसके साथ ही चलने लगते हो। तुम एक विचार ही बन जाते हो। जब काम उठता है तो तुम काम ही बन जाते हो। जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध ही बन जाते हो। जब लोभ बनता है तो तुम लोभ ही बन जाते हो। कोई चलता हुआ विचार और उनसे तुम्‍हारा तादात्म्य हो जाता है। विचार और तुम्‍हारे बीच में कोई अंतराल नहीं होता।
लेकिन तृतीय नेत्र पर केंद्रित होकर तुम अचानक एक साक्षी हो जाते हो। तृतीय नेत्र के द्वारा तुम विचारों को ऐसे ही देख सकते हो जैसे की आकाश में बादल दौड़ रहे हों, अथवा सड़क पर लोग चल रहे है।
साक्षी होने का प्रयास करो। जो भी हो रहा हो, साक्षी होने का प्रयास करो। तुम बीमार हो, तुम्‍हारा शरीर दुःख रहा है और पीड़ित है, तुम दुःखी और पीड़ित हो , जो भी हो रहा है, स्‍वयं का उससे तादात्‍म्‍य मत करो। साक्षी बने रहो। द्रष्‍टा बने रहो। फिर यदि साक्षित्‍व संभव हो जाए तो तुम तृतीय नेत्र मे केंद्रित हो जाओगे।
दूसरा, इससे उल्‍टा भी हो सकता है। यदि तुम तृतीय नेत्र में केंद्रित हो तो तुम साक्षी बन जाओगे। ये दोनों चीजें एक ही प्रक्रिया के हिस्‍से है। तो पहली बात: तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से साक्षी का प्रादुर्भाव होगा। अब तुम अपने विचारों से साक्षात्‍कार कर सकते हो। यह पहली बात होगी। और दूसरी बात यह होगी कि अब तुम श्‍वास के सूक्ष्‍म और कोमल स्‍पंदन को अनुभव कर सकोगे। अब तुम श्‍वास के प्रारूप को श्‍वास के सार तत्व को अनुभव कर सकते हो।
पहले यह समझने का प्रयास करो कि ‘’प्रारूप’’ का, श्‍वास के सार तत्व का क्‍या अर्थ है। श्‍वास लेते समय तुम केवल हवा मात्र भीतर नहीं ले रहे हो। विज्ञान कहता है कि तुम केवल वायु भीतर लेते हो—बस ऑक्‍सीजन, हाइड्रोजन व अन्‍या गैसों का मिश्रण। वे कहते है कि तुम ‘’वायु’’ भीतर ले रहे हो। लेकिन तंत्र कहता है कि वायु बस एक वाहन है, वास्‍तविक चीज नहीं है। तुम प्राण को, जीवन शक्‍ति को भीतर ले रहे हो। वायु केवल माध्‍यम है; प्राण उसकी अंतर्वस्‍तु है। तुम केवल वायु नहीं, प्राण भीतर ले रहे हो।
तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से अचानक तुम श्‍वास के सार तत्व को देख सकते हो—श्‍वास को नहीं बल्‍कि श्‍वास के सार तत्व को, प्राण को। और यदि तुम श्‍वास के सार तत्व को, प्राण को देख सको तो तुम उसे बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लगती है, अंतस क्रांति घटित होती है।
ओशो
ध्‍यानयोग
प्रथम और अंतिम मुक्‍ति

धर्म का सब आधार " नॉलेज "

ओशो - -
आवागमन गलत है, ऐसा मैंने नहीं कहा है । आवागमन को मानना गलत है, ऐसा मैंने कहा है । और मानना सब भांति का गलत है । धर्म का संबंध मानने से है ही नहीं । धर्म का संबंध जानने से है । और जो मानता है, वह जानता नहीं है, इसलिए मानना पडता है । और जो जानता है, उसे मानने की कोई जरुरत नहीं है । जानता ही है, तो मानने की कोई जरुरत नहीं है । धर्म का मुल संबंध ज्ञान से है, विश्वास से नहीं । तो जो आवागमन को जानता है, जो ऐसा अनुभव करता है, जिसकी ऐसी प्रतीति है, जिसका खुद का ऐसा अनुभव है कि आवागमन है, इस आदमी की जिंदगी में तो बहुत फायदे होंगे । लेकिन जो ऐसा सिर्फ "मानता" है कि आवागमन है, इसकी जिंदगी में बहुत नुकसान पहुंचेगे । सबसे बडा नुकसान तो यह पहुंचेगा की जिस बात को हम बिना जाने मान लेते हैं, उसे जानने की खोज "बंद" हो जाती है । खोजते हम उसी को हैं जिसे हम मान ही नहीं लेते । इसलिए विज्ञान खोज बन जाता है । और विश्वास खोज के द्वार को बंद कर देता है । मेरे लिए धर्म भी परम विज्ञान है, सुप्रीम "साइंस" है । इसलिए मैं नहीं कहूंगा कि धर्म का कोई भी आधार फेथ पर है । कोई आधार धर्म का फेथ पर नहीं है । धर्म का सब आधार " नॉलेज " पर है ।

अनहद नाद (osho)

अनहद नाद कृपया समझाएं कि अनाहत नाद एक प्रकार की ध्वनि है या कि वह समग्रत: निर्ध्‍वनि है। और यह भी बताने की कृपा करें कि समग्र ध्वनि और समय निध्र्वर्नि की अवस्थाएं समान कैसे हो सकती हैं?
अनाहत नाद कोई ध्वनि नहीं है। यह निर्ध्वनि है, यह मौन है। लेकिन यह मौन सुना जा सकता है। इसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है, क्योंकि तब यह तर्कसम्मत प्रश्न उठता है कि निर्ध्वनि कैसे सुनी जा सकती है!
यह बात समझने जैसी है। मैं इस कुर्सी पर बैठा हूं। अगर मैं कुर्सी छोड़कर चला जाऊं तो क्या तुम कुर्सी में मेरी अनुपस्थिति नहीं देखो? जिसने मुझे इस कुर्सी में बैठा नहीं देखा है उसे मेरी अनुपस्‍थिति नहीं दिखाई पड़ सकती है। उसे सिर्फ कुर्सी दिखाई पड़ेगी। लेकिन एक क्षण पहले मैं यहां बैठा था और तुमने यह देखा है। अगर मैं हट जाऊं और तुम कुर्सी को देखो तो तुम्हें एक साथ दो चीजें दिखाई देंगी : कुर्सी और मेरी अनुपस्थिति। लेकिन मेरी अनुपस्थिति तभी दिखाई देगी जब तुमने मुझे देखा है और तुम्हें स्मरण है कि मैं यहां था।
वैसे ही हम ध्वनि को सुनते हैं, ध्वनि को जानते हैं; और जब निर्ध्वनि आती है, अनाहत नाद आता है तो हमें अनुभव होता है कि ध्वनि खो गई और उसकी अनुपस्थिति अनुभव होती है। इसीलिए इसे अनाहत नाद कहते हैं। इसे नाद भी कहते हैं, लेकिन अनाहत नाद होना नाद की गुणवत्ता को बदल देता है। अनाहत का अर्थ है. जो अनिर्मित है। वह अनिर्मित, असृष्ट ध्वनि है। प्रत्येक ध्वनि पैदा की गई ध्वनि है। जो भी ध्वनि तुम सुनते हो सब पैदा की हुई है। और जो ध्वनि पैदा की गई है वह नष्ट होगी। मैं हाथ की ताली बजाता हूं तो ध्वनि पैदा होती है। एक क्षण पहले वह नहीं थी और अब फिर वह नहीं है। वह पैदा हुई और मर गई। निर्मित की गई ध्वनि को आहत नाद कहते हैं, अनिर्मित ध्वनि को अनाहत नाद कहते हैं। अनाहत नाद वह है जो सदा है। सदा रहने वाला नाद कौन सा है? दरअसल यह नाद नहीं है, हम उसे नाद इसलिए कहते हैं क्योंकि अनुपस्थिति सुनी जाती है।
अगर तुम रेलवे स्टेशन के पास रहते हो और किसी दिन मजदूर संघ हड़ताल कर दे तो तुम्हें कुछ ऐसा सुनाई देगा जो किसी दूसरे को नहीं सुनाई देगा। तुम्हें आती—जाती रेलगाड़ियों की अनुपस्थिति सुनाई देगी।
पहले मैं हर महीने कम से कम तीन हफ्ते यात्रा पर रहा करता था। शुरू—शुरू में रेलगाड़ी में सोना कठिन होता था, पर पीछे चलकर घर पर सोना कठिन हो गया। फिर जब—जब मुझे गाड़ी में नहीं सोना पड़े, गाड़ी की आवाज की अनुपस्थिति महसूस होती थी। जब मैं घर आता था तो वहां सोना कठिन लगता था, क्योंकि मुझे लगे कि कुछ चूक रहा हूं। मुझे रेल की आवाज की अनुपस्थिति अनुभव होने लगी।
हम ध्वनियों के आदी हैं। प्रत्येक क्षण ध्वनि से भरा है। हमारी खोपड़ी निरंतर ध्वनि से लबालब है। लेकिन जब तुम्हारा मन विदा हो जाता है—अतिक्रमण कर जाता है या नीचे उतर जाता है—जब तुम ध्वनियों के संसार में नहीं होते हो, तब तुम ध्वनियों की अनुपस्थिति को सुन सकते हो। वह अनुपस्थिति निर्ध्वनि है। लेकिन हमने इसे अनाहत नाद कहा है। क्योंकि यह सुना जाता है, इसलिए इसे नाद कहते हैं। और क्योंकि यह ध्वनि नहीं है, इसलिए इसे अनाहत नाद कहते हैं। अनाहत नाद विरोधाभासी शब्द है। ध्वनि तो आहत ही होती है, अनाहत कहना विरोधाभासी है।
पर जीवन के सभी गहन अनुभव विरोधाभासों में व्यक्त किए जाते हैं। अगर तुम इकहार्ट या जेकब बोहमे जैसे गुरुओं से पूछो, या हयाकुजो, उबाकू और बोधिधर्म जैसे झेन गुरुओं से पूछो, या नागार्जुन से पूछो, या वेदांत और उपनिषदों से पूछो, तो सभी जगह गहन अनुभवों की अभिव्यक्ति परस्पर विरोधी शब्दों में मिलेगी।
वेद ईश्वर के संबंध में कहते हैं कि वह है और वह नहीं है। अब इससे अधिक नास्तिक वक्तव्य और क्या होगा? वह है और नहीं है! वे कहते हैं : वह दूर से दूर है और
निकट से निकट। ऐसे विरोधी वक्तव्य क्यों? उपनिषद कहते हैं. तुम उसे नहीं देख सकते, लेकिन जब तक तुमने उसे नहीं देखा तब तक कुछ भी नहीं देखा। यह किस तरह की भाषा है?

लाओत्‍सु कहता है कि सत्‍य नहीं कहा जा सकता है और वह कह भी रहा है। यह भी तो कहना ही हुआ। वह कहता है कि सत्य नहीं कहा जा सकता और जो कहा जाए वह सत्य नहीं है। और फिर वह एक किताब लिखता है, जिसमें सत्य के संबंध में कुछ कहता है। यह विरोधाभासी है।
एक महान वृद्ध संत के पास एक दिन एक विद्यार्थी आया। विद्यार्थी ने कहा गुरुदेव अगर आप मुझे क्षमा कर दें तो मैं अपने संबंध में आपको कुछ बताना चाहता हूं। मैं नास्तिक हो गया हूं अब मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करता। के संत ने पूछा : कितने दिनों से तुम धर्मशास्त्रों का अध्ययन कर रहे हो? कितने दिनों से? उस साधक ने, उस विद्यार्थी ने कहा. कोई बीस वर्षों से मैं वेदों का, शास्त्रों का अध्ययन कर रहा हूं। के संत ने आह भरकर कहा : सिर्फ बीस वर्ष और तुम्हें यह कहने की हिम्मत आ गई कि मैं नास्तिक हूं?
युवक तो हैरान रह गया। उसने सोचा, यह बूढ़ा आदमी क्या कह रहा है? उसने पूछा मैं समझा नहीं कि आप क्या कह रहे हैं। आपने तो मुझे और भी उलझन में डाल दिया। इस पर संत ने कहा वेदों का अध्ययन जारी रखो। आरंभ में आदमी कहता है कि ईश्वर है, केवल अंत में वह कहता है कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर आरंभ में है, अंत में ईश्वर नहीं है। जल्दी मत करो। वह युवक तो और भी बिगचन में पड़ गया।
ईश्वर है और ईश्वर नहीं है—यह वक्तव्य उनका है जो जानते हैं। जो नहीं जानते हैं वे कहते हैं कि ईश्वर है। जो नहीं जानते हैं वे यह भी कहते हैं कि ईश्वर नहीं है। जो जानते हैं वे दोनों बातें साथ—साथ कहते हैं ईश्वर है और ईश्वर नहीं है।
अनाहत नाद विरोधाभासी वक्तव्य है, लेकिन जानकर, बहुत सोच—विचार के साथ उसका उपयोग किया गया है। वह अर्थपूर्ण है। वह कहता है कि वह ध्वनि जैसी लगती है और वह ध्वनि नहीं है। वह ध्वनि जैसी लगती है, क्योंकि तुमने केवल ध्वनि ही जानी है। कोई दूसरी भाषा तुम नहीं जानते, केवल ध्वनियों की भाषा जानते हो। यही कारण है कि वह ध्वनि जैसी लगती है। लेकिन असल में वह मौन है, ध्वनि नहीं। तंत्र सूत्र भाग 2

मन को भगाना (ओशो)

फ्रायड ने अपनी जीवन कथा में एक छोटा-सा
उल्लेख किया है। उसने लिखा है कि एक बार
वह बगीचे में अपनी पली और छोटे बच्चे के साथ
घूमने गया। देर तक वह पत्नी से बातचीत करता
रहा, टहलता रहा। फिर जब सांझ होने लगी
और बगीचे के द्वार बंद होने का समय करीब
हुआ, तो फ्रायड की पत्नी को खयाल आया
कि ‘उसका बेटा न-मालूम कहां छूट गया है?
इतने बड़े बगीचे में वह पता नहीं कहां होगा?
द्वार बंद होने के करीब हैं, उसे कहां खोजूं?’
फ्रायड की पत्नी चिंतित हो गयी, घबड़ा
गयी।
फ्रायड ने कहा, ‘‘घबड़ाओ मत! एक प्रश्र मैं
पूछता है तुमने उसे कहीं जाने से मना तो नहीं
किया? अगर मना किया है तो सौ में
निन्यानबे मौके तुम्हारे बेटे के उसी जगह होने
के हैं, जहां जाने से तुमने उसे मना किया है।
”उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘मना तो किया था
कि फव्वारे पर मत पहुंच जाना।’
फ्रायड ने कहा, ” अगर तुम्हारे बेटे में थोड़ी भी
बुद्धि है, तो वह फव्वारे पर ही मिलेगा। वह
वहीं होगा। क्योंकि कई बेटे ऐसे भी होते हैं,
जिनमें बुद्धि नहीं होती। उनका हिसाब
रखना फिजूल है। ” फ्रायड की पत्नी बहुत
हैरान हो गयी। वे गये दोनों भागे हुए फव्वारे
की ओर। उनका बेटा फव्वारे पर पानी में पैर
लटकाए बैठा पानी से खिलवाड़ कर रहा था।
फ्रायड की पत्नी ने कहा, ‘‘बड़ा आश्चर्य! तुमने
कैसा पता लगा लिया कि हमारा बेटा यहां
होगा? फ्रायड ने कहा, ”आश्रर्य इसमें कुछ भी
नहीं है। मन को जहां जाने से रोका जाये, मन
वहीं जाने के लिए आकर्षित होता है। जहां के
लिए कहा जाये, मत जाना वहां, एक छिपा
हुआ रहस्य शुरू हो जाता है कि मन वहीं जाने
को तत्पर हो जाता है।
” फ्रायड ने कहा, यह तो आश्चर्य नहीं है कि
मैंने तुम्हारे बेटे का पता लगा लिया, आश्चर्य
यह है कि मनुष्य-जाति इस छोटे-से सूत्र का
पता अब तक नहीं लगा पायी। और इस छोटे-से
सूत्र को बिना जाने जीवन का कोई रहस्य
कभी उदघाटित नहीं हो पाता। इस छोटे-से
सूत्र का पता न होने के कारण मनुष्य-जाति ने
अपना सारा धर्म; सारी नीति, सारे समाज
की व्यवस्था सप्रेशन पर, दमन पर खड़ी की हुई
है।
  मनुष्य का जो व्यक्तित्व हमने खड़ा किया है,
वह दमन पर खड़ा है, दमन उसकी नींव है। और
दमन पर खड़ा हुआ आदमी लाख उपाय करे,
जीवन की ऊर्जा का साक्षात्कार उसे कभी
नहीं हो सकता है। क्योंकि जिस-जिस का
उसने दमन किया है, मन में वह उसी से उलझा-
उलझा नष्ट हो जाता है। थोड़ा सा प्रयोग
करें और पता चल जायेगा। किसी बात से मन
को हटाने की कोशिश करें और पायेंगे मन उसी
बात के आसपास घूमने लगा है। किसी बात को
भूलने की कोशिश करें, तो भूलने की वही
कोशिश उस बात को स्मरण करने का आधार
बन जाती है। किसी बात को, किसी विचार
को, किसी स्मृति को, किसी इमेज को,
किसी प्रतिमा को मन से निकालने की
कोशिश करें, और मन उसी को पकड़ लेता है।
भीतर, मन में लड़े और आप पायेंगे कि जिससे आप
लड़ेगें, उसी से हार खायेंगे; जिससे भागेंगे, वही
पीछा करेगा। जैसे छाया पीछा कर रही है।
जितनी तेजी से भागते हैं, छाया उतनी ही
तेजी से पीछा करती है।
मन को हमने जहां-जहां से भगाया है, मन वहीं-
वहीं हमें ले गया है; जहां-जहां जाने से हमने उसे
इंकार किया है, जहां-जहां जाने से हमने द्वार
बंद किये हैं, मन वहीं-वहीं हमें ले गया है।
क्रोध से लड़े-और मन क्रोध के पास ही खड़ा
हो जायेगा; हिंसा से लड़े-और मन हिंसक हो
जायेगा। मोह से लड़े-और मन मोह मस्त हो
जायेगा। लोभ से लड़े- और मन लोभ में गिर
जायेगा। धन से लड़े-और मन धन के प्रति ही
पागल हो उठेगा। काम से लड़ने वाला मन,
सेक्स से लड़ने वाला मन, सेक्स में चला जायेगा।
जिससे लड़ेंगे मन वही हो जायेगा। यह बड़ी
अदभुत बात है। जिसको दुश्मन बनायेंगे, मन पर
उस दुश्मन की ही प्रतिच्छवि अंकित हो
जायेगी।...

Monday, 24 August 2015

wine & meditation (osho)

शराब और ध्यान

शराब का ध्यानियों ने विरोध किया है, क्योंकि शराब परिपूरक है।
यह सस्ते में ध्यान की भ्रांति करवा देती है।
ध्यानी को भी शराबी जैसा मस्ती में ड़ूबा हुआ पाओगे,
और शराब में भी तुम्हें ध्यान की थोड़ी सी गंध मिलेगी—रसमुगध।
फर्क इतना ही होगा शराबी बेहोश है, ध्यानी होश में है।
शराबी ने अपनी स्मृति खो दी और ध्यानी ने अपनी स्मृति पूरी जगा ली।
मनुष्य बीच में है, मनुष्य द्वंद्व में है, मनुष्य आधा चेतन है, आधा अचेतन है।
ध्यानी पूरा चेतन में है।
शराब पी कर एकरसता को पा लेगा—सस्ती एक एकरसता,
बोतल पी डाली, मिल गई एकरसता, सस्ते में मिल गई गयी।
ध्यान तो वर्षो के श्रम से मिलेगा, ध्यान के लिए तो बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।
इंच-इंच बढ़ेगा, बूंद-बूंद बढ़ेगा, लंबी यात्रा है, पहाड़ की चढाई है।
शराब तो उतार है, जैसे पत्थर को ढकेल दिया पहाड़ से;
बस एक दफा धक्का मार दिया, काफी है।
फिर तो अपने आप ही उतार पर उतरता जाएगा।
नीचे खाई-खंदक तक खूद ही पहुंच जाएगा,
धक्का मारने के बाद और धक्का मारने की जरूरत नहीं है।
लेकिन पहाड़ पर चढ़ना हो तो, ऊर्ध्व यात्रा करनी पड़ेगी,
धक्के से काम नहीं चलेगा, धकाते ही रहना पड़ेगा,
जब तक चोटी पर नहीं पहूंच जाओ, और जरा भूक की कि पत्थर नीचे लुढक जाएगा।
कहीं से भी गिरने की संभावना है,
इसलिए तुमने एक शबद सुना होगा—योगभ्रष्ट।
तुमने भोगभ्रष्ट शब्द सुना, भोगी के भ्रष्ट होने की संभावना ही नहीं है।
भोगी कभी गिरता ही नहीं, वह गिरा हुआ है आखिरी जगह,
योगी ही गिरता है, भोगी होने से योगभ्रष्ट हो ना बेहतर है।
चेष्टा तो कि थी एक प्रयास तो किया था, एक यात्रा की चुनौती स्वीकार तो की थी।
गिर गए—कोर्इ बात नहीं, हजार बार गिरो,
मगर उठ-उठ कर चलते रहना।
ओशो–एस धम्मो सनंतनो

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