Friday, 31 July 2015

आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों मनाते हैं गुरु पूर्णिमा

आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों मनाते हैं गुरु पूर्णिमा
:-ओशो
आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मानने का क्या राज़ है? धर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है। सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा आषाढ़ में पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश खुला न होगा।
और भी प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों नहीं चुन लिया? ज्यादा ठीक होता, ज्यादा मौजूं मालूम पड़ता। नहीं, लेकिन चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है। वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से।
शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।
ध्यान रखना, अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए काव्य-प्रतीक, तो तुम आषाढ़ की तरह हो, अंधेरे बादल हो। न मालूम कितनी कामनाओं और वासनाओं का जल तुममें भरा है, और न मालूम कितने जन्मों-जन्मों के संस्कार लेकर तुम चल रहे हो, तुम बोझिल हो। तुम्हारे अंधेरे से घिरे हृदय में रोशनी पहुंचानी है। इसलिए पूर्णिमा की जरूरत है!
चांद जब पूरा हो जाता है, तब उसकी एक शीतलता है। चांद को ही हमने गुरु के लिए चुना है। सूरज को चुन सकते थे, ज्यादा समीचीन होता, तथ्यगत होता, क्योंकि चांद के पास अपनी रोशनी नहीं है। इसे थोड़ा समझना होगा। चांद की रोशनी उधार है। सूरज के पास अपनी रोशनी है। चांद पर तो सूरज की रोशनी का प्रतिफलन होता है। जैसे कि तुम दीये को आईने के पास रख दो, तो आईने में से भी रोशनी आने लगती है। वह दीये की रोशनी का प्रतिफलन है, वापस लौटती रोशनी है। चांद तो केवल दर्पण का काम करता है, रोशनी सूरज की है।
हमने गुरु को सूरज कहा होता, तो बात ज्यादा दिव्य और गरिमापूर्ण लगती। और सूरज के पास प्रकाश भी विराट है। चांद के पास कोई बहुत बड़ा प्रकाश थोड़े ही है, बड़ा सीमित है। पर हमने सोचा है बहुत, सदियों तक, और तब हमने चांद को चुना है -दो कारणों से। एक, गुरु के पास भी रोशनी अपनी नहीं है, परमात्मा की है। वह केवल प्रतिफलन है। वह जो दे रहा है, अपना नहीं है, वह केवल निमित्त मात्र है, वह केवल दर्पण है।
तुम परमात्मा की तरफ सीधा नहीं देख पाते, सूरज की तरफ सीधे देखना भी बहुत मुश्किल है। प्रकाश की जगह आंखें अंधकार से भर जाएंगी। परमात्मा की तरफ भी सीधा देखना असंभव है। रोशनी ज्यादा है, बहुत ज्यादा है, तुम संभाल न पाओगे, असह्य हो जाएगी। तुम उसमें टूट जाओगे, खंडित हो जाओगे, विकसित न हो पाओगे।
इसलिए हमने सूरज की बात छोड़ दी। वह थोड़ा ज्यादा है, शिष्य की सामर्थ्य के बिल्कुल बाहर है। इसलिए हमने बीच में गुरु को लिया है।
गुरु एक दर्पण है, पकड़ता है सूरज की रोशनी और तुम्हें दे देता है। लेकिन इस देने में वह रोशनी को मधुर और सहनीय बना देता है। इस देने में रोशनी की त्वरा और तीव्रता समाप्त हो जाती है। दर्पण को पार करने में रोशनी का गुणधर्म बदल जाता है। सूरज इतना प्रखर है, चांद इतना मधुर है।
इसीलिए तो कबीर ने कहा है, गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय। किसके छुऊं पैर? वह घड़ी आ गई, जब दोनों सामने खड़े हैं। फिर कबीर ने गुरु के ही पैर छुए, क्योंकि बलिहारी गुरु आपकी, जो गोविंद दियो बताय।
( ओशो गीता दर्शन भाग-8, अध्याय 18)आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों मनाते हैं गुरु पूर्णिमा

ध्यान में प्रवेश

जो गुरु के गर्भ से गुजरता है वही ब्राह्मण हो पाता है...
एक जन्म तो मां से मिलता है; उससे तो सभी शुद्र पैदा होते हैं। और एक जन्म गुरु से मिलता है; उस जन्म के बाद ही कोई ब्राह्मण होता है। जो गुरु के गर्भ से गुजरता है वही ब्राह्मण हो पाता है।
जब गुरु से संग जुड़ा तो तुम फिर गर्भ में प्रविष्ट हुए, फिर नया गर्भ मिला। नए जीवन का द्वार खुला। अब तुम जान सकोगे अपने सच्चे स्वरूप को, अपनी सच्चाई को। अब पुनरुज्जीवन होगा। बहुत संभल कर रहना। क्योंकि मां के पेट में तो बच्चा सोया रहता है, क्योंकि जन्म शुद्र का होनेवाला है। बच्चे को जागने की जरूरत नहीं है। बच्चा चौबीस घंटे सोता है मां के पेट में। जन्म के बाद फिर तेईस घंटे सोता है, फिर बाईस घंटे, फिर अठारह घंटे, फिर आठ घंटे पर ठहर जाता है। आठ घंटे आंख बंद करके सोता है और बाकी सोलह घंटे आंख खोलकर सोता है। मगर नींद जारी रहती है।
गुरु के गर्भ में प्रवेश का अर्थ होता है——ध्यान में प्रवेश। अब जागकर जीना।.. .परन सम्हारल हो! अपने प्रण को संभालना।
गुरु जन्म है और मृत्यु भी। दूसरी बात भी खयाल में ले लेना। मां से जो जन्म मिला था—— देह का——उसकी तो मृत्यु हो जाएगी गुरु के साथ। और गुरु से नया जन्म मिलेगा। नया जन्म तभी मिल सकता है जब पुराने की मृत्यु हो जाए। जब तुम जान लो कि मैं देह नहीं हूं, तभी तुम जान सकोगे कि मैं कौन हूं। पदार्थ नहीं हो तो जान सकोगे कि मैं परमात्मा हूं। तत्वमसि श्वेतकेतु! श्वेतकेतु, वह तू है! तू वह है! लेकिन उसे जानने के पहले इस देह के तादात्म्य से छूटना होगा। यही मृत्यु है।
तो गुरु कठोर भी होगा। गुरु चोट भी करेगा, तो ही तो जगा सकता है। इसलिए जो गुरु सिर्फ सांत्वना देता हो, बचना, सावधान रहना! वहां से तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति घटनेवाली नहीं है। जो गुरु तुम्हें सांत्वना देता हो, वह तुम्हें लोरी का गीत सुना रहा है। उससे तुम्हारी नींद और गहरी हो जाएगी। जो गुरु तुम्हें जगाना चाहता है, कठोर होगा, झकझोरेगा।
सुबह देखते हो न, तीन बजे रात उठना है, अलार्म बजता है, कैसा क्रोध आता है! अपनी ही घड़ी को पटक देते हैं लोग उठाकर! खुद ही अलार्म भर कर रात सोए थे, अलार्म दुश्मन जैसा मालूम पड़ता है। तुम्हीं जाकर गुरु से प्रार्थना करते हो मुझे जगाओ! लेकिन जब वह जगाएगा तो जन्मों—जन्मों की नींद टूटेगी, बड़ी पीड़ा होगी, बड़े कष्ट होंगे। अगर अपने प्रण की याद रखी तो ही जग पाओगे, अन्यथा भाग जाओगे। करोड़ों में एक—आध गुरु के पास पहुंचता है। फिर जो पहुंचते हैं गुरु के पास, सब टिक नहीं पाते; उनमें से बहुसंख्यक भाग जाते हैं।
पुरानी तिब्बत में कहावत है : हजार बुलाए जाते हैं तो दस पहुंचते हैं; जो दस पहुंचते हैं, उनमें से नौ भाग जाते हैं, एक ही बचता है। मगर जो बच जाए, वह धन्यभागी है। वही ब्राह्मण हो पाता है।
ओशो, का सोवै दिन रैन, प्रवचन 7

Thursday, 30 July 2015

ध्यान मे सिर पर पगड़ी का रहस्य (ओशो)

प्रश्न: ओशो साष्टांग दंडवत प्रणाम करना दिव्य पुरुषों के चरणों पर माथा रखना या हाथों से चरण— स्पर्श करना पवित्र स्थानों में माथा टेकना दिव्य पुरुषों का अपने हाथ से साधक के सिर अथवा पीठ को छूकर आशीर्वाद देना सिक्कों व मुसलमानों का सिर ढांककर गुरुद्वारे व मस्जिद जाना इन सब प्रथाओं का कुंडलिनी ऊर्जा के संदर्भ में आकल्ट व स्त्रिचुअल अर्थ व महत्व समझाने की कृपा करें।

अर्थ तो है, अर्थ बहुत है। जैसा मैंने कहा, जब हम क्रोध से भरते हैं तो किसी को मारने का मन होता है। जब हम बहुत क्रोध से भरते हैं तो ऐसा मन होता है कि उसके सिर पर पैर रख दें। चूंकि पैर रखना बहुत अड़चन की बात होगी, इसलिए लोग जूता मार देते हैं। पैर रखना, एक पांच—छह फीट के आदमी के सिर पर पैर रखना बहुत मुश्किल की बात है, इसलिए सिंबालिक, उतारकर जूता उसके सिर पर मार देते हैं। लेकिन कोई नहीं पूछता दुनिया में कि दूसरे के सिर में जूता मारने का क्या अर्थ है? सारी दुनिया में! ऐसा नहीं है कि कोई एक कौम, कोई एक देश..... .यह बड़ा युनिवर्सल तथ्य है कि क्रोध में दूसरे के सिर पर पैर रखने का मन होता है। और कभी जब आदमी निपट जंगली रहा होगा, तो जूता तो नहीं था उसके पास, वह सिर पर पैर रखकर ही मानता था।
ठीक इससे उलटी स्थितियां भी हैं चित्त की। जैसे क्रोध की स्थिति है, तब किसी के सिर पर पैर रखने का मन होता है; और श्रद्धा की स्थिति है, तब किसी के पैर में सिर रखने का मन होता है। उसके अर्थ हैं उतने ही, जितने पहले के। कोई क्षण है जब तुम किसी के सामने पूरी तरह झुक जाना चाहते हो; और झुकने के क्षण वही हैं, जब तुम्हें दूसरे के पास से अपनी तरफ ऊर्जा का प्रवाह मालूम पड़ता है। असल में, जब भी कोई प्रवाह लेना हो तब झुक जाना पड़ता है। नदी से भी पानी भरना हो तो झुकना पड़ता है। झुकना जो है, वह किसी भी प्रवाह को लेने के लिए अनिवार्य है। असल में, सब प्रवाह नीचे की तरफ बहते हैं। तो ऐसे किसी व्यक्ति के पास अगर लगे किसी को कि कुछ बह रहा है उसके भीतर— और कभी लगता है—तो उस क्षण में उसका सिर जितना झुका हो उतना सार्थक है।

शरीर के नुकीले हिस्सों से ऊर्जा का प्रवाह:

फिर शरीर से जो ऊर्जा बहती है वह उसके उन अंगों से बहती है जो प्याइंटेड हैं—जैसे हाथ की अंगुलियां या पैर की अंगुलियां। सब जगह से ऊर्जा नहीं बहती। शरीर की जो विद्युत—ऊर्जा है, या शरीर से जो शक्तिपात है, या शरीर से जो भी शक्तियों का प्रवाह है, वह हाथ की अंगुलियों या पैर की अंगुलियों से होता है, पूरे शरीर से नहीं होता। असल में, वहीं से होता है जहां नुकीले हिस्से हैं; वहां से शक्ति और ऊर्जा बहती है। तो जिसे लेना है ऊर्जा, वह तो पैर की अंगुलियों पर सिर रख देगा, और जिसे देना है ऊर्जा, वह हाथ की अंगुलियों को दूसरे के सिर पर रख देगा।
ये बड़ी आकल्ट और बड़ी गहरी विज्ञान की बातें थीं।
स्वभावत:, बहुत से लोग नकल में उन्हें करेंगे। हजारों लोग सिर पर पैर रखेंगे जिन्हें कोई प्रयोजन नहीं है, हजारों लोग किसी के सिर पर हाथ रख देंगे जिन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। और तब जो एक बहुत गहरा सूत्र था, धीरे— धीरे औपचारिक बन जाएगा। और जब लंबे अरसे तक वह औपचारिक और फार्मल होगा तो उसकी बगावत भी शुरू होगी। कोई कहेगा कि यह सब क्या बकवास है! पैर पर रखने से सिर क्या होगा? सिर पर हाथ रखने से क्या होगा?
सौ में निन्यानबे मौके पर बकवास है। हो गई है बकवास। क्योंकि.... .सौ में एक मौके पर अब भी सार्थक है। और कभी तो सौ में सौ मौके पर ही सार्थक थी; क्योंकि कभी वह स्पांटेनिअस एक्ट था। ऐसा नहीं था कि तुम्हें औपचारिक रूप से लगे तो किसी के पैर छुओ। नहीं, किसी क्षण में तुम न रुक पाओ और पैर में गिरना पड़े तो रुकना मत, गिर जाना। और ऐसा नहीं था कि किसी को आशीर्वाद देना है तो उसके सिर पर हाथ रखो ही। यह उसी क्षण रखना था, जब तुम्हारा हाथ बोझिल हो जाए और बरसने को तैयार हो जाए और उससे कुछ बहने को राजी हो, और दूसरा लेने को तैयार हो, तभी रखने की बात थी।
मगर सभी चीजें धीरे— धीरे प्रतीक हो जाती हैं। और जब प्रतीक हो जाती हैं तो बेमानी हो जाती हैं। और जब बेमानी हो जाती हैं तो उनके खिलाफ बातें चलने लगती हैं। और वे बातें बड़ी अपील करती हैं। क्योंकि जो बातें बेमानी हो गई हैं उनके पीछे का विज्ञान तो खो गया होता है। है तो बहुत सार्थक।

ऊर्जा पाने के लिए खाली और खुला हुआ होना जरूरी:

और फिर, जैसा मैंने पीछे तुम्हें कहा, यह तो जिंदा आदमी की बात हुई। यह जिंदा आदमी की बात हुई। एक महावीर, एक बुद्ध, एक जीसस के चरणों में कोई सिर रखकर पड गया है और उसने अपूर्व आनंद का अनुभव किया है, उसने एक वर्षा अनुभव की है जो उसके भीतर हो गई है। इसे कोई बाहर नहीं देख पाएगा, यह घटना बिलकुल आंतरिक है। उसने जो जाना है वह उसकी बात है। और दूसरे अगर उससे प्रमाण भी  मांगेंगे तो उसके पास प्रमाण भी नहीं है।
असल में, सभी आकल्ट फिनामिनन के साथ यह कठिनाई है कि व्यक्ति के पास अनुभव होता है, लेकिन समूह को देने के लिए प्रमाण नहीं होता। और इसलिए वह ऐसा मालूम पड़ने लगता है कि अंधविश्वास ही होगा। क्योंकि वह आदमी कहता है कि भई, बता नहीं सकते कि क्या होता है, लेकिन कुछ होता है। जिसको नहीं हुआ है, वह कहता है कि हम कैसे मान सकते हैं! हमें नहीं हुआ है। तुम किसी भ्रम में पड़ गए हो, किसी भूल में पड़ गए हो। और फिर हो सकता है, जिसको खयाल है कि नहीं होता है, वह भी जाकर जीसस के चरणों में सिर रखे। उसे नहीं होगा। तो वह लौटकर कहेगा कि गलत कहते हो! मैंने भी उन चरणों पर सिर रखकर देख लिया। वह ऐसा ही है कि एक घड़ा जिसका मुंह खुला है वह पानी में झुके और लौटकर घड़ों से कहे कि मैं झुका और भर गया। और एक बंद मुंह का घड़ा कहे कि मैं भी जाकर प्रयोग करता हूं। और वह बंद मुंह का घड़ा भी पानी में झुके, और बहुत गहरी डुबकी लगाए, लेकिन खाली वापस लौट आए। और वह कहे कि झुका भी, डुबकी भी लगाई, कुछ नहीं भरता है, गलत कहते हो!
घटना दोहरी है। किसी व्यक्ति से शक्ति का बहना ही काफी नहीं है, तुम्हारी ओपनिंग, तुम्हारा खुला होना भी उतना ही जरूरी है। और कई बार तो ऐसा मामला है कि दूसरे व्यक्ति से ऊर्जा का बहना उतना जरूरी नहीं है, जितना तुम्हारा खुला होना जरूरी है। अगर तुम बहुत खुले हो तो दूसरे व्यक्ति में जो शक्ति नहीं है, वह भी उसके ऊपर की, और ऊपर की शक्तियों से प्रवाहित होकर तुम्हें मिल जाएगी। इसलिए बड़े मजे की बात है कि जिनके पास नहीं है शक्ति, अगर उनके पास भी कोई पूरे खुले हृदय से अपने को छोड़ दे, तो उनसे भी उसे शक्ति मिल जाती है। उनसे नहीं आती वह शक्ति, वे सिर्फ माध्यम की तरह प्रयोग में हो जाते हैं; उनको भी पता नहीं चलता, लेकिन यह घटना भी घट सकती है।

सिर पर कपड़ा बांधने का रहस्य:

दूसरी जो बात है सिर में कुछ बांधकर गुरुद्वारा या किसी मंदिर या किसी पवित्र जगह में प्रवेश की बात है। ध्यान में भी बहुत फकीरों ने सिर में कुछ बांधकर ही प्रयोग करने की कोशिश की है। उसका उपयोग है। क्योंकि जब तुम्हारे भीतर ऊर्जा जगती है तो तुम्हारे सिर पर बहुत भारी बोझ की संभावना हो जाती है। और अगर तुमने कुछ बांधा है तो उस ऊर्जा के विकीर्ण होने की संभावना नहीं होती, उस ऊर्जा के वापस आत्मसात हो जाने की संभावना होती है।
तो बांधना उपयोगी सिद्ध हुआ है, बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। अगर तुम ध्यान, कपड़ा बांधकर सिर पर करोगे, तो तुम फर्क अनुभव करोगे फौरन; क्योंकि जिस काम में तुम्हें पंद्रह दिन लगते, उसमें पांच दिन लगेंगे। क्योंकि तुम्हारी ऊर्जा जब सिर में पहुंचती है तो उसके विकीर्ण होने की संभावना है, उसके बिखर जाने की संभावना है। अगर वह बंध सके और एक वर्तुल बन सके तो उसका अनुभव प्रगाढ़ और गहरा हो जाएगा।
लेकिन अब तो वह औपचारिक है, मंदिर में किसी का जाना या गुरुद्वारे में किसी का सिर पर कपड़ा बांधकर जाना बिलकुल औपचारिक है। उसका अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। लेकिन कहीं उसमें अर्थ है।
और व्यक्ति के चरणों में सिर रखकर तो कोई ऊर्जा पाई जा सके, व्यक्ति के हाथ से भी कोई ऊर्जा आशीर्वाद में मिल सकती है, लेकिन एक आदमी एक मंदिर में, एक वेदी पर, एक समाधि पर, एक मूर्ति के सामने सिर झुकाता है, इसमें क्या हो सकता है? तो इसमें भी बहुत सी बातें हैं; एक दो—तीन बातें समझ लेने जैसी हैं। जिन खोजा तिन पाइया।

Wednesday, 29 July 2015

अति नही करनी चाहिए (ओशो)

कहानी
मैंने एक तिब्बती कहानी पढ़ी है। कहते हैं दूर तिब्बत की पहाड़ियों में छिपा हुआ एक सरोवर है। उस सरोवर के किनारे एक वृक्ष है। वृक्ष बड़ा अनूठा है। वृक्ष से भी ज्यादा अनूठा सरोवर है। कहते हैं, उस वृक्ष को जो खोज ले, उस सरोवर को जो खोज ले, और वृक्ष पर से छलांग लगा कर सरोवर में कूद जाए तो रूपांतरित हो जाता है। कभी भूलचूक से कोई पक्षी गिर जाता है सरोवर में तो मनुष्य हो जाता है। कभी कोई मनुष्य खोज लेता है और उस वृक्ष से कूद जाता है तो देवता हो जाता है।
ऐसा एक दिन हुआ, एक बंदर और एक बंदरिया उस वृक्ष पर बैठे थे। उन्हें कुछ पता न था। और एक मनुष्य न मालूम कितने वर्षों की खोज के बाद अंतत: वहां पहुंच गया। उस मनुष्य ने वृक्ष पर चढ़ कर झंपापात किया। सरोवर में गिरते ही वह दिव्य ज्योतिर्धर देवता हो गया। स्वभावत: बंदर और बंदरिया को बड़ी चाहत जागी। उन्हें पता ही न था। उसी वृक्ष पर वे रहते थे लेकिन कभी वृक्ष पर से झंपापात न किया था। कभी सरोवर में कूदे न थे। फिर तो देर करनी उचित न समझी। दोनों तत्क्षण कूद पड़े। बाहर निकले तो चकित हो गए। दोनों सुंदर मनुष्य हो गए थे। बंदर पुरुष हो गया था, बंदरिया सुंदर, सुंदरतम नारी हो गई थी।
बंदर ने कहा, अब हम एक बार और कूदें। बंदर तो बंदर! उसने कहा, अब अगर हम कूदे तो देवता होकर निकलेंगे। बंदरिया ने कहा कि देखो, दुबारा कूदना या नहीं कूदना, हमें कुछ पता नहीं। स्त्रियां साधारणत: ज्यादा व्यावहारिक होती हैं। सोच—समझ कर चलती हैं ज्यादा। देख लेती हैं, हिसाब—किताब बांध लेती हैं, करने योग्य कि नहीं। आदमी तो दुस्साहसी होते हैं।
बंदर ने कहा, तू फिकर छोड़। तू बैठ, हिसाब कर। अब मैं चूक नहीं सकता। बंदरिया ने फिर कहा, सुना है पुरखे हमारे सदा कहते रहे ‘ अति सर्वत्र वर्जयेत्’। अति नहीं करनी चाहिए। अति का वर्जन है। अब जितना हो गया इतना क्या कम है? मगर बंदर न माना। मान जाता तो बंदर नहीं था। कूद गया। कूदा तो फिर बंदर हो गया। उस सरोवर का यह गुण था—एक बार कूदो तो रूपांतरण। दुबारा कूदे तो वही के वही। बंदरिया तो रानी हो गई। एक राजा के मन भा गई। बंदर पकड़ा गया एक मदारी के हाथों में। फिर एक दिन मदारी लेकर राजमहल आया तो बंदर अपनी बंदरिया को सिंहासन पर बैठा देख कर रोने लगा। याद आने लगी। और सोचने लगा, अगर मान ली होती बात दुबारा न कूदा होता! तो बंदरिया ने उससे कहा, अब रोओ मत। आगे के लिए इतना ही स्मरण रखो. अति सर्वत्र वर्जयेत्। अति वर्जित है।
अष्‍टावक्र: महागीता (भाग–5) प्रवचन–74

स्त्री पुरुष का मिलन

स्त्री और पुरुष के शरीरों के संबंध में, पहला शरीर स्त्री का स्त्रैण है, लेकिन दूसरा उसका शरीर भी पुरुष का ही है। और ठीक इससे उलटा पुरुष के साथ है। तीसरा शरीर फिर स्त्री का है, चौथा शरीर फिर पुरुष का है।
मैंने पीछे कहा कि स्त्री का शरीर भी आधा शरीर है और पुरुष का शरीर भी आधा शरीर है, इन दोनों को मिलकर ही पूरा शरीर बनता है।
यह मिलन दो दिशाओं में संभव है। पुरुष का शरीर—पहला शरीर— अपने से बाहर स्त्री के पहले शरीर से मिले तो एक यूनिट, एक इकाई पैदा होती है। इस इकाई से प्रकृति की संतति का, प्रकृति के जन्म का काम चलता है। यदि अंतर्मुखी हो सके पुरुष या स्त्री, तो उनके भीतर के पुरुष या स्त्री से मिलन होता है और एक दूसरी यात्रा शुरू होती है जो परमात्मा की दिशा में है। बाहर के शरीर—मिलन से जो यात्रा होती है वह प्रकृति की दिशा में है; भीतर के शरीर के मिलन से जो यात्रा होती है, वह परमात्मा की दिशा में है।
पुरुष का पहला शरीर जब अपने ही भीतर के ईथरिक बॉडी के स्त्री शरीर से मिलता है, तो एक यूनिट बनता है; स्त्री का पहला शरीर जब अपने ही ईथरिक शरीर के पुरुष तत्व से मिलता है, तो एक यूनिट बनता है। यह यूनिट बहुत अदभुत है, यह इकाई बहुत अदभुत है। क्योंकि अपने से बाहर के स्त्री या पुरुष से मिलना क्षण भर के लिए ही हो सकता है। सुख क्षण भर का होगा और फिर छूटने का दुख बहुत लंबा होगा। इसलिए उस दुख में से फिर मिलने की आकांक्षा पैदा होती है। लेकिन मिलना फिर क्षण भर का होता है और फिर छूटना फिर लंबे दुख का कारण बन जाता है।
तो बाहर के शरीर से जो मिलन है वह क्षण भर को ही घटित हो पाता है, लेकिन भीतर के शरीर से जो मिलन है वह चिरस्थायी हो जाता है— वह एक बार मिल गया तो दूसरी बार टूटता नहीं। इसलिए भीतर के शरीर पर जब तक मिलन नहीं हुआ है तभी तक दुख है। जैसे ही मिलन हुआ तो सुख की एक अंतरधारा बहनी शुरू हो जाती है। वह सुख की अंतरधारा वैसे ही है, जैसे क्षण भर के लिए बाहर के शरीर से मिलने पर संभोग में घटित होती है। लेकिन वह इतनी क्षणिक है कि वह आ भी नहीं पाती कि चली जाती है। बहुत बार तो उस सुख का भी कोई अनुभव नहीं हो पाता, क्योंकि वह इतनी त्वरा, इतनी तेजी में घटना घटती है कि उसका कोई अनुभव भी नहीं हो पाता।

ध्यान : आत्मरति की प्रक्रिया:

योग की दृष्टि से अगर अंतर्मिलन संभव हो जाए, तो बाहर संभोग की वृत्ति तत्काल विलीन हो जाती है; क्योंकि जिस आकांक्षा के लिए वह की जा रही थी, वह आकांक्षा तृप्त हो गई। मैथुन के जो चित्र मंदिरों की दीवालों पर खुदे हैं, वे अंतमैंथुन की ही दिशा में इंगित करनेवाले चित्र हैं।
अंतमैंथुन ध्यान की प्रक्रिया है। और इसलिए बहिमैंधुन और अंतमैंथुन में एक विरोध खयाल में आ गया। और वह विरोध इसीलिए खयाल में आ गया कि जो भी अंतमैंथुन में प्रवेश करेगा उसका बाहर के जगत से यौन का सारा संबंध विच्छिन्न हो जाएगा। स्त्री जब अपने पहले शरीर से दूसरे शरीर से मिलेगी.. .तो यह भी समझ लेने जैसा है कि जब स्त्री अपने पहले शरीर से दूसरे शरीर से मिलेगी, तो जो यूनिट बनेगा दोनों के मिलने पर वह फिर स्त्रैण होगा—पूरा यूनिट; और पुरुष का पहला शरीर जब दूसरे शरीर से मिलेगा तो जो इकाई बनेगी वह फिर पुरुष की होगी—पूरा शरीर। क्योंकि जो प्रथम है वह द्वितीय को आत्मसात कर लेता है। जो प्रथम है वह द्वितीय को आत्मसात कर लेता है; दूसरा उसमें समाविष्ट हो जाता है।
लेकिन अब ये स्त्री और पुरुष भी बहुत दूसरे अर्थों में हैं; उस अर्थों में नहीं जैसा कि हम बाहर स्त्री—पुरुष को देखते हैं। क्योंकि बाहर जो पुरुष है वह अधूरा है, इसलिए सदा अतृप्त है; बाहर जो स्त्री है वह अधूरी है, इसलिए सदा अतृप्त है।
अगर हम जैविक विकास को खोजने जाएं तो यह पता चलेगा कि जो प्राथमिक प्राणी हैं जगत में, उनमें स्त्री और पुरुष के शरीर अलग—अलग नहीं हैं। जैसे अमीबा है, जो कि प्राथमिक जीव है। अमीबा के शरीर में दोनों एक साथ मौजूद हैं स्त्री और पुरुष। उसका आधा हिस्सा पुरुष का है, आधा स्त्री का। इसलिए अमीबा से तृप्त प्राणी खोजना बहुत कठिन है। उसमें कोई अतृप्ति नहीं है। उसमें डिसकटेंट जैसी चीज पैदा नहीं होती। इसलिए वह विकास भी नहीं कर पाया; वह अमीबा अमीबा ही बना हुआ है। तो बिलकुल जो प्राथमिक कड़ियां हैं बायोलाजिकल विकास की, वहां भी शरीर दो नहीं हैं, वहां एक ही शरीर है और दोनों हिस्से एक ही शरीर में समाविष्ट हैं।

जिन खोजा तिन पाइया।

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