Monday, 3 April 2017

आकांक्षा का पात्र

मैंने सुना है कि एक सूफी फकीर अपने एक शिष्य के साथ हज की यात्रा को गया। हजारों मील से पैदल चल कर वे आ रहे थे। मरुस्थल में मार्ग खो गया। बड़ी प्यास लगी। किसी तरह खोज कर एक छोटा सा झरना मिल गया। बड़े प्रसन्न हुए। न केवल झरना मिला, बल्कि झरने के पास ही पड़ा एक पात्र भी मिल गया, क्योंकि उनके पास पात्र भी न था। उनके आनंद का कोई ठिकाना न रहा।
उन्होंने उस पात्र में झरने का पानी भरा, लेकिन जब पीने गए तो वह इतना तिक्त और कड़वा था, जहरीला था, कि घबड़ा गए कि यह तो मरने की बात हो जाएगी। यह तो झरना जहर का है।
उस झरने को तो छोड़ा, दूसरे झरने की तलाश में निकले, लेकिन पात्र को साथ ले लिया। दूसरे झरने पर जाकर पानी पीया, वह भी जहरीला था। अब तो बहुत घबड़ा गए कि मौत निश्चित है। जल सामने है, पी नहीं सकते। कंठ सूख रहा है।
तीसरे झरने की तलाश में गए, वह भी मिल गया; लेकिन पानी पीया तो वह भी कड़वा था। पर तीसरे झरने पर एक और आदमी, एक फकीर बैठा था। उससे उन्होंने कहा कि हम समझते नहीं कि यह मामला क्या है, सब झरने कड़वे हैं!
उस फकीर ने गौर से देखा उन्हें और कहा कि झरने तो कड़वे नहीं हैं, जरूर तुम्हारे पात्र में कुछ खराबी होगी। क्योंकि मैं तो इन्हीं झरनों पर जी रहा हूं। तुम झरने से सीधा पानी पीओ, पात्र में मत भरो।
सीधा पानी पीया तो ऐसा मीठा पानी कभी पीया ही न था। वह पात्र गंदा था। वह पात्र जहरीला था।
तो जिस आकांक्षा के पात्र में तुमने सारे संसार के जहर भोगे हैं, उसी आकांक्षा के पात्र में परमात्मा को भी डाल लोगे, वह भी कड़वा हो जाएगा। इसीलिए तो तुम्हारी परमात्मा की आकांक्षा भी दुख ही देती है, सुख कहां देती है!
सांसारिक का गणित कम से कम सीधा-साफ-सुथरा है: पद चाहिए, धन चाहिए, यश चाहिए; ठीक है; खाओ-पीओ, मौज करो। तुम उसे थोड़ा कभी-कभी मुस्कुराते भी देख लोगे, हंसते भी देख लोगे।
धार्मिक आदमी की हालत तो बहुत ही खस्ता है। उसके हाल तो बड़े बुरे हैं। उसको धन भी चाहिए, पद भी चाहिए, यश भी चाहिए, परमात्मा भी चाहिए, ध्यान भी चाहिए, शांति भी चाहिए। उसकी हालत ऐसी है जैसे एक ही बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जुते हों।
अस्थिपंजर बैलगाड़ी के डगमगा जाएंगे, दोनों तरफ बैल खींच रहे हैं। यात्रा तो हो ही नहीं सकती।
-ओशो
सबै सयाने एक मत- प्रवचन-06

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