Thursday, 20 April 2017

भक्ति जितना मनुष्य को भटकाती है, उतना और कोई चीज नहीं भटकाती है।

मैंने सुना है एक गांव में एक शराबी ने एक मिठाई की दुकान से लडडू खरीदे। रुपया दिया। आठ आने उसे वापस मिलने थे। लेकिन दुकानदार ने कहा क्षमा करें, मेरे पास छुट्टे नहीं हैं। कल सुबह आ जाना!
शराबी शराब में था, उसने सोचा कि यह तो झंझट की बात है। सुबह बदल जाए! तख्ती बदल ले। अपना नाम बदल ले। शराबी को हजार तरह की कुशकाएं उठने लगी—कि आठ आने मेरे गए। उसने सोचा कि कोई ऐसा विज्ञान मुझे बना लेना चाहिए कि यह बदल न सके। उसने चारों तरफ देखा। देखा एक सांड बैठा है। सामने ही बैठा है दुकान के। उसने कहा ठीक है। जहां सांड बैठा है.......!
सुबह जब आया वापस सांड का कोई पक्का थोड़े ही है कि वह मिठाई की दुकान के सामने ही बैठा रहेगा। सांड कोई आदमियों जैसे थोड़े ही हैं कि जहां बैठ गए, बैठ गए। सांड तो मुक्त हैं। इसलिए तो शिवजी ने उन्हें चुना है। वे चले गए थे। वे बैठे थे एक नाई की दुकान के सामने!
वह आदमी तो एकदम घुस गया नाई की दुकान में। और गरदन पकड़ ली नाई की। और कहा हद्द हो गयी! आठ आने के पीछे तख्ती बदल ली? धंधा बदल लिया? जात बदल ली? आठ आने के पीछे! मगर तुम मुझे धोखा न दे सकोगे। वह सांड बैठा है!
तुम्हारे जिंदगी के नक्शे बस, सब ऐसे ही हैं। जिंदगी रोज बदल जाती है, तुम्हारे नक्शा पीछे पड जाते हैं; उनका कोई अर्थ नहीं है। तुम्हारे शास्त्र सब ऐसे हैं, क्योंकि जब बनते हैं, तब जिंदगी एक होती है। जब तक बन पाते हैं, तब तक जिंदगी दूसरी हो जाती है।
अब आज तुम वेद को बैठे पढ़ते रहो, या आज तुम बैठकर गीता को पढ़ते रहो। जिंदगी बहुत बदल गयी, गंगा में बहुत जल बह गया है।
इसीलिए मैं जब बुद्ध की व्याख्या करता हूं तो तुम खयाल कर लेना। मुझे बुद्ध की उतनी चिंता नहीं है। क्योंकि ढाई हजार साल में जिंदगी बहुत बदल गयी। मुझे तुम्हारी चिंता है। मैं जब बुद्ध की व्याख्या करता हूं, तो मुझे बुद्ध की उतनी फिकर नहीं है। मेरी निष्ठा बुद्ध के प्रति उतनी नहीं है, जितनी आज के इस क्षण के प्रति है। इस क्षण के अनुकूल नक्‍शे को बदलता हूं।
तुम्हारे और व्याख्याकार जो हैं, नक्‍शे के प्रति उनकी निष्ठा भारी है। वे कहते हैं. जिंदगी जाए भाड़ में। समय की धारा का कुछ भी हो। हम तो पक्का जो किताब में लिखा है, उसी को मानते हैं। चाहे किताब अब बिलकुल ही गलत हो गयी हो! सभी सत्य सामयिक होते हैं। और जो शाश्वत सत्य है, उसको शब्द में कहने का कोई उपाय नहीं है। उसे कभी किसी ने कहा नहीं। जो कहा गया है, वह सामयिक है। और सभी सत्य, जब सामयिक होते हैं, तो समय के बदलने पर बदल जाने चाहिए।
सत्य तुम्हारे बदलते नहीं, पत्थरों की तरह जड़ हैं। और जिंदगी फूलों की तरह बह रही है। उनमें कभी तालमेल नहीं रह जाता है।
तो तुम्हारे तथाकथित सत्य ही तुम्हारे सत्य तक पहुंचने में बाधा बन जाते हैं। तुम्हारे शास्त्र ही अवरोध हो जाते हैं। अतीत की अंध — भक्ति जितना मनुष्य को भटकाती है, उतना और कोई चीज नहीं भटकाती है।
नदी की तरह रहो। नक्‍शे को ले चलने की कोई जरूरत नहीं है। और जब नदियां तक पहुंच जाती हैं सागर तक, तो तुम क्यों न पहुंच पाओगे? तुम भी चैतन्य की धारा हो। तुम चैतन्य का सागर खोजने निकले हो। इस जगत में नदियों तक को मिल जाता है मार्ग? तो तुम्हारी चैतन्य— धारा को न मिलेगा? कुछ तो भरोसा करो। इस भरोसे का नाम श्रद्धा है।
नदी अनजाने सागर की खोज कर रही है —अनजाने। नदी को कुछ पता नहीं, कहां जा रही है? क्यों जा रही है? मगर टटोल रही है सागर को। विराट की खोज में निकली है। कोई नक्शे भी पास नहीं है। कोई शास्त्र भी पास नहीं है। कोई वेद, कुरान, बाइबिल भी पास नहीं है। अनंत की खोज पर चली है बिना नक्शे के। कोई गुरु नहीं। किसी की अनुगामी नहीं। टटोल रही है अपने से। और पहुंच जाती है।
सभी नदियां पहुंच जाती हैं —यह तुमने देखा! छोटी नदियां पहुंच जाती हैं। बडी नदियां पहुंच जाती हैं। नदी—नाले सब पहुंच जाते हैं। सब सागर पहुंच जाते हैं। अगर अपनी सामर्थ्य से नहीं पहुंच सकते, तो छोटे नाले बड़े नालों में गिर जाते हैं। बड़े नाले नदियों में गिर जाते हैं। नदियां बड़ी नदियों में गिर जाती हैं। मगर सागर तक सब पहुंच जाते हैं।
तुम खोजते ही रहो, तो परमात्मा तक पहुंच जाओगे। और नक्‍शो की कोई जरूरत नहीं है। हिंदू मुसलमान, ईसाई—नक्‍शे की कोई जरूरत नहीं है। खोज की त्वरा चाहिए। खोज की तीव्रता चाहिए। खोज की सघनता चाहिए। नक्‍शे नहीं काम आते, खोज की सघनता काम आती है।
इस भेद को समझ लेना। नदी को नक्शा पकड़ा दो, इससे कुछ अर्थ नहीं होगा। सिर्फ नदी में जलधार होना चाहिए, ऊर्जा होनी चाहिए। बस, पर्याप्त है। उसी ऊर्जा के बल नदी खोजती है।
जिन्होंने सत्य को पाया है, उन्होंने भी नक्‍शो के सहारे नहीं पाया है। क्योंकि इस परिवर्तनशील जगत में नक्शे बन ही नहीं सकते। तुम जिस जगत का नक्‍शे बनाते हो, जब तक नक्शा बनता है,  तब तक जगत बदल जाता है। यहां नक्शे हो नहीं सकते। जीवन परिवर्तन है, तो नक्‍शे होंगे कैसे?
🎉ओशो🎉

Sunday, 16 April 2017

Ego is always in competition with others..

Man’s ego is the source of all his problems, all the wars, all the conflicts, all the jealousies, fear,depression.
Feeling oneself as a failure, continuously comparing with others makes everybody hurt– and hurt tremendously, because you can’t have everything.
Somebody is more beautiful than you,that hurts; somebody has more money that you, that hurts; somebody is more knowledgeable thanyou, that hurts.
Millions of things are there to hurt you, but you don’t know, it is not those things that are hurting you, because they don’t hurt me.
They are hurting you because of your ego.
Ego is constantly trembling with fear, knowing perfectly well that it is an artifact, an artificial device created by the society to keep you running, chasing shadows.
The politicians are happy, they want
you to go on running. This game of the ego, reaching higher and higher, is politics. The priest is happy, you go on asking for his blessings.
Osho

सुख दुख होते ही नही


आस्कर वाइल्ड की एक छोटी सी कहानी है। एक आदमी मरा। जिंदगी में लोग जो करना चाहते हैं, सब करके मरा। बड़ा पद, बहुत धन, सुंदर स्त्रियां--जो भी मनुष्य की आकांक्षाएं हैं--सभी को पूरी करके मरा।
परमात्मा के सामने न्यायालय में उपस्थित किया गया। स्वभावतः परमात्मा नाराज था। उसने कहा, बहुत पाप किए तुमने। तुम्हारे पास अपने किए गए पापों के लिए कोई उत्तर है? उस आदमी ने कहा, जो मैं करना चाहता था वह मैंने किया और उत्तरदायी मैं किसी के प्रति नहीं हूं। परमात्मा थोड़ा चौंका। उसने कहा, तुम हिंसा किए, हत्या किए, खून किए? उस आदमी ने कहा, निश्चित ही। तुमने धन के लिए लोगों की जानें लीं? तुमने व्यभिचार किया, बलात्कार किया? उस आदमी ने कहा, निश्चित ही। लेकिन उस आदमी के चेहरे पर शिकन भी न थी। न अपराध का कोई भाव था। न कोई चिंता थी। परमात्मा थोड़ा बेचैन होने लगा। अपराधी बहुत आए थे, यह कुछ नए ही ढंग का आदमी था। परमात्मा ने कहा, जानते हो, तुम्हारा यह बार-बार कहना कि हां, निश्चित ही, मैं तुम्हें नर्क भेज दूंगा! उस आदमी ने कहा, तुम भेज न सकोगे। क्योंकि मैं जहां भी रहा, नर्क में ही रहा। अब तुम मुझे कहां भेजोगे? मैंने नर्क के सिवाय कभी कुछ जाना ही नहीं, अब तुम हमें और कहां भेजोगे जहां नर्क हो सकता है?
अब तो परमात्मा के चेहरे पर पसीना झलक आया। कुछ सूझा न उसे। अब तक के सारे निर्णय, अब तक की लंबी सनातन से चली आती हुई घटनाएं, कोई काम न पड़ीं। कोई फाइल सार्थक न मालूम हुई। उसने कहा--घबड़ाहट में--कि फिर मैं तुम्हें स्वर्ग भेज दूंगा। उस आदमी ने कहा, यह भी न हो सकेगा। परमात्मा ने कहा, तुम आखिर हो कौन? मेरे ऊपर कौन है, जो मुझे रोक सके तुम्हें स्वर्ग भेजने से! उस आदमी ने कहा, मैं हूं। क्योंकि मैं सुख की कल्पना ही नहीं कर सकता और हर सुख को दुख में बदल लेने में मैं इतना निष्णात हो गया हूं। तुम मुझे स्वर्ग न भेज सकोगे। तुम भेजोगे, मैं नर्क बना लूंगा। मैंने सुख का स्वप्न भी नहीं देखा। सुख की कल्पना भी नहीं कर सकता हूं, तुम मुझे स्वर्ग कैसे भेजोगे?
और कहते हैं, मामला वहीं अटका है। परमात्मा सोच रहा है, इस आदमी को कहां भेजें? नर्क भेज नहीं सकता, क्योंकि नर्क में वह रहा ही है। स्वर्ग भेज नहीं सकता, क्योंकि स्वर्ग भेजने का उपाय नहीं है।
इस कहानी को ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना। यह किसी और आदमी की कहानी नहीं, सभी आदमियों की कहानी है। तुम वहीं भेजे जा सकते हो, जहां तुम जाना चाहते हो। और अगर सुख की तुम्हारे जीवन में स्वप्न की भी क्षमता खो गयी है, तो तुम्हें कोई भी स्वर्ग नहीं दे सकता। स्वर्ग कोई दान नहीं। स्वर्ग किसी के अनुग्रह से न मिलेगा। अर्जित करना होगा।
सुख भी सीखना पड़ता है। सुख का स्वाद भी सीखना पड़ता है। और अगर तुम स्वाद को न जानो, तो सुख पड़ा रहेगा तुम्हारी थाली में, तुम उसे चख न सकोगे, तुम उसे अपना खून-मांस-मज्जा न बना सकोगे, वह तुम्हारी रक्त की धार में न बह सकेगा, वह तुम्हारे जीवन की रसधार न बनेगी। और दुख भी तुम्हारा जीवन का ढंग है। तुम्हारे हाथ में जो पड़ जाता है, तुम दुख में बदल देते हो।
जो देखते हैं दूर और गहरा, उनसे अगर पूछो, जागे हुओं से पूछो, तो वे कहेंगे, सुख और दुख होते ही नहीं। तुम्हीं हो। वही घटना सुख बन जाती है किसी के हाथ में, वही घटना दुख बन जाती है। कोई उसी घटना को दुर्भाग्य बना लेता है, कोई उसी को सौभाग्य बना लेता है। सारी बात तुम पर निर्भर है। तुम आत्यंतिक निर्णायक हो। परमात्मा भी तुम्हें स्वर्ग नहीं भेज सकता, नर्क नहीं भेज सकता। तुम जहां होना चाहते हो, वहीं हो और वहीं रहोगे। तुम्हारी स्वतंत्रता अंतिम है। तुम अपने मालिक हो।
ओशो

Wednesday, 12 April 2017

मनुष्य आशा में जीता है


क्या तुमने पडोस का डब्बा नामक यूनानी कहानी सुनी है? किसी आदमी ने बदला लेने के लिए पडोस के पास एक डब्बा भेजा। उस डब्बे में वे सब रोग बंद थे जो अभी मनुष्यजाति के बीच फैले हैं। वे रोग उसके पहले नहीं थे; जब वह डब्बा खुला तो सभी रोग बाहर निकल आए। पडोस रोगों को देखकर डर गई और उसने डब्बा बंद कर दिया। केवल एक रोग रह गया, और वह थी आशा। अन्यथा आदमी समाप्त हो गया होता; ये सारे रोग उसे मारडालते, लेकिन आशा के कारण वह जीवित रहा।तुम क्यों जी रहे हो? क्या तुमने कभी यह प्रश्न पूछा है? यहां और अभी जीने के लिए कुछ भी नहीं है; सिर्फ आशा है। तुम भी पडोस का डब्बा ढो रहे हो। ठीक अभी तुम क्यों जीवित हो? हरेक सुबह तुम क्यों बिस्तर से उठ आते हो? क्यों तुम रोज रोज फिर वही करते हो जो कल किया था? यह पुनरुक्ति क्यों? कारण क्या है?तुम इसका कोई कारण नहीं बता सकते जो अभी से, वर्तमान से संबंधित हो कि तुम क्यों जी रहे हो। अगर कोई कारण ढूढोगे तो वह भविष्य से संबंधित होगा।वह कोई आशा होगी कि कुछ होने वाला है, किसी दिन कुछ होने वाला है। और तुम्हें यह पता नहीं है कि वह दिन कब आएगा। तुम्हें यह भी पता नहीं है कि क्या होने वाला है। लेकिन किसी दिन कुछ होने वाला है, इस उम्मीद में तुम अपने को खींचे चले जाते हो, अपने को ढोए चले जाते हो।मनुष्य आशा में जीता है। लेकिन यह जीवन नहीं है, क्योंकि आशा तो सपना है। जब तक तुम यहां और अभी नहीं जीते हो, तुम जीवित ही नहीं हो। तब तक तुम एक मृत बोझ हो। और वह कल तो कभी आने वाला नहीं है जब तुम्हारी सब आशाएं पूरी हो जाएंगी। और जब मृत्यु आएगी तो तुम्हें पता चलेगा कि अब कोई कल नहीं है, और अब स्थगित करने का भी उपाय नहीं है। तब तुम्हारा भ्रम टूटेगा; तब तुम्हें लगेगा कि यह धोखा था। लेकिन किसी दूसरे ने तुम्हें धोखा नहीं दिया है; अपनी दुर्गति के लिए तुम स्वयं जिम्मेवार हो।इस क्षण में, वर्तमान में जीने की चेष्टा करो। और आशाएं मतपालो चाहे वे किसी भी ढंग की हों। वे लौकिक हो सकती हैं, पारलौकिक हो सकती हैं; इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। वे धार्मिक हो सकती हैं, किसी भविष्य में, किसी दूसरे लोक में, स्वर्ग में, मृत्यु के बाद, निर्वाण में, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। कोई आशा मत करो। यदि तुम्हें थोड़ी निराशा भी अनुभव हो, तो भी यहीं रहो। यहां से और इस क्षण से मत हटो। हटो ही मत। दुख सह लो, लेकिन आशा को मत प्रवेश करने दो। आशा के द्वारा स्वप्न प्रवेश करते हैं। निराश रहो, अगर जीवन में निराशा है तो निराश रहो। निराशा को स्वीकार करो; लेकिन भविष्य में होने वाली किसी घटना का सहारा मत लो।और तब अचानक बदलाहट होगी। जब तुम वर्तमान में ठहर जाते होतो सपने भी ठहर जाते हैं। तब वे नहीं उठ सकते, क्योंकि उनका स्रोत ही बंद हो गया। सपने उठते हैं, क्योंकि तुम उन्हें सहयोग देते हो, तुम उन्हें पोषण देते हो।सहयोग मत दो; पोषण मत दो:ओशो

Sunday, 9 April 2017

जिसको तुम धर्मगुरु कहते हो

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक आदमी आया, बड़ा डरा हुआ था। मुल्ला मौलवी! उसने कहा कि मुल्ला, बचाओ। बड़ी भूल हो गई। आज सात दिन से सोया भी नहीं। एक बकरा चुरा लिया किसी का, और मित्रों ने मिलकर खा-पी भी लिया। अब मुझे यह पाप कचोटता है कि निर्णय के दिन, कयामत के दिन पुकारा तो मैं जाऊंगा। चुराया तो मैंने था बकरा। खा तो ये सब गए।फंस मैं गया। चोरी मैंने की थी। मुल्ला, मुझे कुछ रास्ता बताओ कि मैं निकल आऊं।
मुल्ला तो बहुत चिल्लाया, नाराज हुआ एकदम। उसने पूरा का पूरा नरक का दृश्य खड़ा कर दिया कि दोजख में सड़ोगे, जलाए जाओगे कड़ाहों में, कीड़े-मकोड़े काटेंगे, जन्मों-जन्मों तक दुख पाओगे। खूब डराया उस आदमी को।
वह बहुत घबड़ा गया। उसने कहा कि मुल्ला, अब और मत घबड़ाओ। मैं वैसे ही सात दिन से सोया नहीं, तुम तो ऐसी हालत किए दे रहे हो। मैं क्या करूं, यह बताओ। मुल्ला ने कहा, कुछ करना है अगर तो केवल बातचीत से न होगा, कुछ नगद प्रमाण चाहिए।
नगद प्रमाण? उस आदमी ने कहा, तुम्हारा मतलब क्या है?
मुल्ला ने कहा, नगद नहीं समझते?
उसकी अकल में आया, उसने पांच रुपए का नोट निकालकर मुल्ला को दिया कि लो।
मुल्ला ने उसे खीसे में रखा और कहा घबड़ाओ मत, डर झंझट के बाहर मार्ग है, लेकिन तुम समय पर आ गए। कयामत में बुलाए तो जाओगे। ईश्वर पूछेगा कि बकरा क्यों चुराया? तो तुम साफ मुकर जाना। तुम कहना चुराया ही नहीं।
वह आदमी बोला, साफ मुकर जाना?
मुल्ला ने कहा, कोई गवाह है? कहा, गवाह कहां?किसी ने देखा तुम्हें चुराते?
उस आदमी ने कहा, किसी ने नहीं देखा।
मुल्ला ने कहा, फिर बेफिक्र रहो। जब कोई गवाह ही नहीं है तो कोई छोटी-मोटी अदालत भी कुछ नहीं कर सकती। तो उसकी तो बड़ी अदालत है। गवाह तो पूछेगा ही कि कोई गवाह है, जिसने देखा?
वह आदमी बोला, बात तो ठीक है, लेकिन परमात्मा तो सभी विराट शक्तिमान है, उसके लिए क्या कमी है? वह चाहे तो बकरे को ही बुला सकता है कि यह बकरा खड़ा है। बकरे ने तो देखा। मुल्ला ने कहा, यह अड़चन आ गई।
नगद प्रमाण फिर से दो। तो उस आदमी ने फिर पांच रुपए का नोट निकाला।
वह खीसे में रखकर मुल्ला ने कहा, देखो ऐसा है, अगर वह बकरे को बुलाए सामने तो जल्दी से बकरे को पकड़कर उस आदमी को दे देना, जिसका चुराया है। कहना झंझट मिटी। बात ही खतम हो गई। लेना देना पूरा। अब कैसा मामला! वह आदमी भी खुश हुआ, मुल्ला भी प्रसन्न है। उस आदमी को भी बात जंच गई कि यह बात ठीक है।
जिसको तुम धर्मगुरु कहते हो वह व्यवसाय कर रहा है। उसकी रोटी-रोजी है। उसे तुमसे कुछ मतलब नहीं है, न तुम्हारे भविष्य से कुछ प्रयोजन है। उसे अपने ही भविष्य का पता नहीं है, तुम्हारे भविष्य का क्या प्रयोजन होगा? लेकिन व्यवसाय है, संप्रदाय है। जल्दी ही पंडित-पुरोहितों का व्यवसाय बन जाता है।
-ओशो
कानो सुनी सो झूठ सब -प्रवचन-04

माँसाहारी बनकर अपनी धार्मिक उर्जा खो मत देना‼

                                   Image result for ओशो
आदमी को, स्वाभाविक रूप से, एक शाकाहारी होना चाहिए, क्योंकि पूरा शरीर शाकाहारी भोजन के लिए बना है। वैज्ञानिक इस तथ्य को मानते हैं कि मानव शरीर का संपूर्ण ढांचा दिखाता है कि आदमी गैर-शाकाहारी नहीं होना चाहिए। आदमी बंदरों से आया है। बंदर शाकाहारी हैं, पूर्ण शाकाहारी। अगर डार्विन सही है तो आदमी को शाकाहारी होना चाहिए
अब जांचने के तरीके हैं कि जानवरों की एक निश्चित प्रजाति शाकाहारी है या मांसाहारी: यह आंत पर निर्भर करता है, आंतों की लंबाई पर। मांसाहारी पशुओं के पास बहुत छोटी आंत होती है। बाघ, शेर इनके पास बहुत ही छोटी आंत है, क्योंकि मांस पहले से ही एक पचा हुआ भोजन है। इसे पचाने के लिये लंबी आंत की जरूरत नहीं है। पाचन का काम जानवर द्वारा कर दिया गया है। अब तुम पशु का मांस खा रहे हो। यह पहले से ही पचा हुआ है, लंबी आंत की कोई जरूरत नहीं है। आदमी की आंत सबसे लंबी है: इसका मतलब है कि आदमी शाकाहारी है। एक लंबी पाचनक्रिया की जरूरत है, और वहां बहुत मलमूत्र होगा जिसे बाहर निकालना होगा।
अगर आदमी मांसाहारी नहीं है और वह मांस खाता चला जाता है, तो शरीर पर बोझ पड़ता है। पूरब में, सभी महान ध्यानियों ने, बुद्ध, महावीर, ने इस तथ्य पर बल दिया है। अहिंसा की किसी अवधारणा की वजह से नहीं, वह गौण बात है, पर अगर तुम यथार्थतः गहरे ध्यान में जाना चाहते हो तो तुम्हारे शरीर को हल्का होने की जरूरत है, प्राकृतिक, निर्भार,प्रवाहित। तुम्हारे शरीर को बोझ हटाने की जरूरत है; और एक मांसाहारी का शरीर बहुत बोझिल होता है।
. जरा देखो, क्या होता है जब तुम मांस खाते हो: जब तुम एक पशु को मारते हो, क्या होता है पशु को, जब वह मारा जाता है? बेशक, कोई भी मारा जाना नहीं चाहता। जीवन स्वयं को लंबाना चाहता है, पशु स्वेच्छा से नहीं मर रहा है। अगर कोई तुम्हें मारता है, तुम स्वेच्छा से नहीं मरोगे। अगर एक शेर तुम पर कूदता है और तुमको मारता है, तुम्हारे मन पर क्या बीतेगी? वही होता है जब तुम एक शेर को मारते हो। वेदना, भय, मृत्यु, पीड़ा, चिंता, क्रोध, हिंसा, उदासी ये सब चीजें पशु को होती हैं। उसके पूरे शरीर पर हिंसा, वेदना, पीड़ा फैल जाती है। पूरा शरीर विष से भर जाता है, जहर से। शरीर की सब ग्रंथियां जहर छोड़ती हैं क्योंकि जानवर न चाहते हुए भी मर रहा है। और फिर तुम मांस खाते हो, वह मांस सारा विष वहन करता है जो कि पशु द्वारा छोड़ा गया है। पूरी ऊर्जा जहरीली है। फिर वे जहर तुम्हारे शरीर में चले जाते हैं।
वह मांस जो तुम खा रहे हो एक पशु के शरीर से संबंधित था। उसका वहां एक विशेष उद्देश्य था। चेतना का एक विशिष्ट प्रकार पशु-शरीर में बसता था। तुम जानवरों की चेतना की तुलना में एक उच्च स्तर पर हो, और जब तुम पशु का मांस खाते हो, तुम्हारा शरीर सबसे निम्न स्तर को चला जाता है, जानवर के निचले स्तर को। तब तुम्हारी चेतना और तुम्हारे शरीर के बीच एक अंतर मौजूद होता है, और एक तनाव पैदा होता है और चिंता पैदा होती है।
व्यक्ति को वही चीज़ें खानी चाहिए जो प्राकृतिक हैं, तुम्हारे लिए प्राकृतिक। फल, सब्जियां , मेवे आदि, खाओ जितना ज्यादा तुम खा सको। खूबसूरती यह है कि तुम इन चीजों को जरूरत से अधिक नहीं खा सकते। जो कुछ भी प्राकृतिक है हमेशा तुम्हें संतुष्टि देता है, क्योंकि यह तुम्हारे शरीर को तृप्त करता है, तुम्हें भर देता है। तुम परिपूर्ण महसूस करते हो। अगर कुछ चीज अप्राकृतिक है वह तुम्हें कभी पूर्णता का एहसास नहीं देती। आइसक्रीम खाते जाओ, तुमको कभी नहीं लगता है कि तुम तृप्त हो। वास्तव में जितना अधिक तुम खाते हो, उतना अधिक तुम्हें खाते रहने का मन करता है। यह खाना नहीं है। तुम्हारे मन को धोखा दिया जा रहा है। अब तुम शरीर की जरूरत के हिसाब से नहीं खा रहे हो; तुम केवल इसे स्वाद के लिए खा रहे हो। जीभ नियंत्रक बन गई है।
जीभ नियंत्रक नहीं होनी चाहिए, यह पेट के बारे में कुछ नहीं जानती। यह शरीर के बारे में कुछ भी नहीं जानती। जीभ का एक विशेष उद्देश्य है: खाने का स्वाद लेना। स्वाभाविक रूप से, जीभ को परखना होता है, केवल यही चीज है, कौन सा खाना शरीर के लिए है, मेरे शरीर के लिए और कौन सा खाना मेरे शरीर के लिए नहीं है। यह सिर्फ दरवाजे पर चौकीदार है; यह स्वामी नहीं है, और अगर दरवाजे पर चौकीदार स्वामी बन जाता है, तो सब कुछ अस्तव्यस्त हो जाएगा।
अब विज्ञापनदाता अच्छी तरह जानते हैं कि जीभ को बरगलाया जा सकता है, नाक को बरगलाया जा सकता है। और वे स्वामी नहीं हैं। हो सकता है तुम अवगत नहीं हो: भोजन पर दुनिया में अनुसंधान चलता रहता है, और वे कहते हैं कि अगर तुम्हारी नाक पूरी तरह से बंद कर दी जाए, और तुम्हारी आंखें बंद हों, और फिर तुम्हें खाने के लिए एक प्याज दिया जाए, तुम नहीं बता सकते कि तुम क्या खा रहे हो। तुम सेब और प्याज में अंतर नहीं कर सकते अगर नाक पूरी तरह से बंद हो क्योंकि आधा स्वाद गंध से आता है, नाक द्वारा तय किया जाता है, और आधा जीभ द्वारा तय किया जाता है। ये दोनों नियंत्रक हो गए हैं। अब वे जानते हैं कि : आइसक्रीम पौष्टिक है या नहीं यह बात नहीं है। उसमें स्वाद हो सकता है, उसमें कुछ रसायन हो सकते हैं जो जीभ को परितृप्त भले ही करें मगर शरीर के लिए आवश्यक नहीं होते।
    आदमी उलझन में है, भैंसों से भी अधिक उलझन में। तुम भैंसों को आइसक्रीम खाने के लिए राजी नहीं कर सकते। कोशिश करो!
एक प्राकृतिक खाना…और जब मैं प्राकृतिक कहता हूं, मेरा मतलब है जो कि तुम्हारे शरीर की जरूरत है। एक बाघ की जरूरत अलग है, उसे बहुत ही हिंसक होना होता है। यदि तुम एक बाघ का मांस खाओ तो तुम हिंसक हो जाओगे, लेकिन तुम्हारी हिंसा कहां व्यक्त होगी? तुमको मानव समाज में जीना है, एक जंगल में नहीं। फिर तुमको हिंसा को दबाना होगा। फिर एक दुष्चक्र शुरू होता है।
जब तुम हिंसा को दबाते हो, तब क्या होता है? जब तुम क्रोधित, हिंसक महसूस करते हो, एक तरह की जहरीली ऊर्जा निकलती है, क्योंकि वह जहर एक स्थिति उत्पन्न करता है जहां तुम वास्तव में हिंसक हो सकते हो और किसी को मार सकते हो। वह ऊर्जा तुम्हारे हाथ की ओर बहती है; वह ऊर्जा तुम्हारे दांतों की ओर बहती है। यही वे दो स्थान हैं जहां से जानवर हिंसक होते हैं। आदमी जानवरों के साम्राज्य का हिस्सा है।
जब तुम गुस्सा होते हो, तो ऊर्जा निकलती है और यह हाथ और दांत तक आती है, जबड़े तक आती है, लेकिन तुम मानव समाज में जी रहे हो और क्रोधित होना हमेशा लाभदायक नहीं है। तुम एक सभ्य दुनिया में रहते हो और तुम एक जानवर की तरह बर्ताव नहीं कर सकते। यदि तुम एक जानवर की तरह व्यवहार करते हो, तो तुम्हें इसके लिए बहुत अधिक भुगतान करना पड़ेगा और तुम उतना देने को तैयार नहीं हो। तो फिर तुम क्या करते हो? तुम हाथ में क्रोध को दबा देते हो, तुम दांत में क्रोध को दबा देते हो, तुम एक झूठी मुस्कान चिपका लेते हो और तुम्हारे दांत क्रोध को इकट्ठा करते जाते हैं।
मैंने शायद ही कभी प्राकृतिक जबड़े के साथ लोगों को देखा है। वह प्राकृतिक नहीं होता, अवरुद्ध, कठोर क्योंकि उसमें बहुत ज्यादा गुस्सा है। यदि तुम किसी व्यक्ति के जबड़े को दबाओ, क्रोध निकाला जा सकता है। हाथ बदसूरत हो जाते हैं। वे मनोहरता खो देते हैं, वे लचीलापन खो देते हैं, क्योंकि बहुत अधिक गुस्सा वहां दबा है। जो लोग गहरी मालिश पर काम कर रहे हैं, उन्हें पता चला है कि जब तुम हाथ को गहराई से छूते हो, हाथ की मालिश करते हो, व्यक्ति क्रोधित होना शुरू होता है। कोई कारण नहीं है। तुम आदमी की मालिश कर रहे हो और अचानक वह गुस्से का अनुभव करने लगता है। यदि तुम जबड़े को दबाओ, व्यक्ति फिर गुस्सा हो जाता हैं। वे इकट्ठे किए हुए क्रोध को ढोते हैं। ये शरीर की अशुद्धताएं हैं: उन्हें निकालना ही है। अगर तुम उन्हें नहीं निकालोगे तो शरीर भारी रहेगा
ओशो

Saturday, 8 April 2017

Think Without Mind

Remember: be ordinary; don’t try to be special in any way, otherwise you will be moving in a wrong direction. To be special means to be egoistic, and ego is the only Problem. There is no other problem. Forget about being special. Just be ordinary. And there is great joy in being ordinary.
Just be human. And by being ordinary you will come to know – you will know the art of walking without feet and flying without wings. That art simply means that ”I am not the doer. I have relaxed. Now God walks in me,God talks in me, God loves through me, but I am a hollow bamboo. I have no special goal in life –His goal is my goal. And if He has no goals, I am perfectly happy with no goal. I am flowing with the
river. Wherever it leads, that is my home – if it leads anywhere. If it doesn’t lead anywhere, then that is my home.”
his is relaxation. And to relax in reality is to attain, is to be enlightened. Enlightenment is an utter let-go.
CHAPTER 6. THINK WITHOUT MIND
Walk Without Feet
Fly Without Wings And
Think Without Mind
-- Osho

प्रेम

                                  Image result for krishna sudama
      भगवान श्री, आपने कहा है कि कृष्ण न मित्र बनाते, न शत्रु बनाते। लेकिन अपने बालसखा सुदामा से उनका इतना प्रेम है कि सिंहासन छोड़कर उसके लिए भागे आते हैं। और तीन मुट्ठी चावल पाकर उसे त्रिलोक का वैभव दे डालते हैं। कृपया, कृष्ण-सुदामा के इस विशेष मैत्री-संबंध पर प्रकाश डालें।'
विशिष्ट मैत्री-संबंध नहीं है, बस मैत्री-संबंध है। यहां भी हमारी ही तकलीफ है। हमें लगता है कि तीन मुट्ठी चावल के लिए तीनों लोक का साम्राज्य दे डालना, जरा ज्यादा है। लेकिन सुदामा के लिए तीन मुट्ठी चावल देना जितना कठिन था, कृष्ण के लिए तीन लोकों का साम्राज्य देना उतना कठिन नहीं है। उसका हमें खयाल नहीं है। सुदामा के लिए तीन मुट्ठी चावल भी बहुत बड़ी बात थी, बहुत मुश्किल था। इसमें अगर दान दिया है तो सुदामा ने ही दिया है। इसमें दान कृष्ण का नहीं है। लेकिन आमतौर से हमें यही दिखाई पड़ता रहा है कि दान दिया है कृष्ण ने। सुदामा क्या लाया था! तीन मुट्ठी चावल ही लाया था! फटे कपड़े में बांधकर!
लेकिन हमें पता नहीं कि सुदामा कितनी दीनता में जी रहा था। उसके लिए एक दाना भी जुटाना और लाना बड़ा कठिन था। और कृष्ण के लिए तीन लोक का साम्राज्य देना भी कठिन नहीं था। इसलिए कोई कृष्ण ने सुदामा पर उपकार कर दिया हो, इस भूल में कोई न रहे। कृष्ण ने सिर्फ "रिसपांस', उत्तर दिया है और उत्तर बहुत बड़ा नहीं है। बड़े-से-बड़ा जो हो सकता था, उतना है। इसलिए तीन लोक के साम्राज्य की बात कही। बड़ी-से-बड़ी जो कल्पना है कवि की, वह यह है कि तीन लोक हैं और तीनों लोक का साम्राज्य है। लेकिन एक गरीब हृदय के पास, जिसके पास कुछ भी नहीं है, तीन चावल के दाने भी नहीं हैं, वह तीन मुट्ठी चावल ले आया है, उसे हम कब समझ पाएंगे?नहीं, कृष्ण देकर भी तृप्त नहीं हुए हैं। क्योंकि जो सुदामा ने दिया है वह बहुत असाधारण है। और जो कृष्ण ने दिया है, उनकी हैसियत के आदमी के लिए बहुत साधारण है। इसलिए ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि कोई सुदामा के साथ विशेष मैत्री दिखाई गई है। सुदामा आदमी ऐसा है कि सुदामा ने ही विशेष मैत्री दिखाई है। कृष्ण ने सिर्फ उत्तर दिया है।
और जैसा मैंने कहा कि वे मित्र और शत्रु किसी के भी नहीं हैं। लेकिन सुदामा जैसा मित्र,सुदामा की तरफ से मैत्री का इतना भाव लेकर आए, तो कृष्ण तो वैसा ही "रिसपांस' करते हैं जैसे घाटियों में हम आवाज दें तो घाटियां सात बार आवाज को दोहराकर लौटाती हैं। घाटियांहमारी आवाज की प्रतीक्षा नहीं कर रही हैं, नघाटियां हमारी आवाज के उत्तर देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं, न उसका कोई "कमिटमेंट' है,लेकिन जब हम घाटियों में आवाज देते हैं तोघाटियां उसको सातगुना करके वापस लौटा देती हैं। वह घाटियों का स्वभाव है। वह प्रतिध्वनि,वह "इकोइंग' घाटी का स्वभाव है। कृष्ण ने जो उत्तर दिया है वह कृष्ण का स्वभाव है। और सुदामा जैसा व्यक्ति जब सामने आ गया हो और इतनी प्रेम की आवाज दी हो, तो कृष्ण उसे अगर हजारगुना करके भी लौटा दें तो भी कुछ नहीं है। वह कृष्ण का स्वभाव है। यह कोई भी कृष्ण के द्वार पर गया होता, सुदामा का हृदय लेकर...।
बड़े मजे की बात है कि गरीब हमेशा मांगने जाता है, सुदामा देने गया था। और जब गरीब देने जाता है तो उसकी अमीरी का कोई मुकाबला नहीं। इससे उलटी बात अमीर के साथ घटती है, अमीर हमेशा देने जाता है। लेकिन जब अमीर मांगने जाता है, जैसे बुद्ध की तरह भिक्षा का पात्र लेकर सड़क पर खड़ा हुआ, तब मामला बिलकुल बदल जाता है। अगर बुद्ध की तरह भिक्षा का पात्र लेकर सड़क पर खड़ा हुआ, तब मामला बिलकुल बदल जाता है। अगर बुद्ध और सुदामा को साथ सोचेंगे तो खयाल में आ सकेगा। इधर सुदामा गरीब है और देने गया है, और बुद्ध के पास सब कुछ है और भीख मांगने चले गए हैं। जब अमीर भीख मांगने जाता है तब अलौकिक घटना घटती है और जब गरीब दान देने जाता है, तब अलौकिक घटना घटती है। ऐसे अमीर तो दान देते रहते हैं और गरीब मांगते रहते हैं, यह बहुत सामान्य घटना है। इसमें कोई विशेष बात नहीं है। सुदामा उसी विशिष्ट हालत में है जिस हालत में बुद्ध का सड़क पर भीख मांगना है। बुद्ध को क्या कमी है कि भीख मांगने जाएं? सुदामा के पास क्या है जो देने को उत्सुक हो गया है?पागल ही है। बुद्ध भी पागल, वह भी पागल। और देने भी किसको गया है! कृष्ण को देने गया है, जिनके पास सब कुछ है। लेकिन प्रेम यह नहीं देखता कि आपके पास कितना है। आपके पास कितना ही हो तो भी प्रेम देता है। प्रेम यह मान ही नहीं सकता कि आपके पास पर्याप्त है।
इसे थोड़ा समझना चाहिए।
प्रेम कभी यह मान ही नहीं सकता कि आपके पास पर्याप्त है। प्रेम तो देता ही चला जाता है। ऐसी कोई घड़ी नहीं आती कि जब वह कहे कि बस, अब काफी दे चुके, बहुत तुम्हारे पास है, अब देने की कोई जरूरत न रही। "इटइज़ नेवर इनफ'। कभी पर्याप्त होता ही नहीं। प्रेम देता ही चला जाता है, उलीचता ही चला जाता है और सदा कम ही रहता है। अगर हम एक मां से पूछें कि तूने अपने बेटे के लिए इतना-इतना किया, तो अगर वह नर्स होगी तो बताएगीकि हां, इतना-इतना किया। और अगर वह मां होगी तो वह कहेगी, कहां किया! मुझे बहुत कुछ करना था, वह मैं कर नहीं पाई। मां हमेशा लेखा-जोखा रखेगी उसका, जो वह नहीं कर पाई। और अगर मां लेखा-जोखा रखती हो कि कितना उसने किया, तो वह मां होने के भ्रम में है, उसने सिर्फ नर्स का काम किया है, इससे ज्यादा कोई उसका काम नहीं है? प्रेम सदा लेखा-जोखा रखता है कि क्या मैं कर नहीं पाया। कृष्ण के पास क्या कमी है? फिर भी सुदामा देने को आतुर है। घर से चलते वक्त उसकी पत्नी ने तो कहा है कि कुछ मांग लेना। लेकिन वह देने को चला आया है।
दूसरी भी बात है, बड़े संकोच से भरा है,अपनी पोटली को बहुत छिपा लिया है। प्रेम देता भी है और संकोच भी अनुभव करता है, क्योंकि प्रेम को सदा लगता है कि देने योग्य है क्या? प्रेम देता भी है और छिपाता भी है। अंधेरे में देना चाहता है, अज्ञात देना चाहता है, बिना नाम के देना चाहता है, पता न चले। तो वह अपनी पोटली को छिपाए हुए है कि दूं कैसे! देने योग्य है भी क्या! ऐसा नहीं है कि चावल है, इसलिए;अगर हीरे भी लेकर सुदामा गया होता तो भी ऐसा ही छिपाता। वह सवाल चावल का नहीं है,उसके लिए तो हीरे से भी ज्यादा कीमती चावल हैं। बड़ा सवाल यह है कि प्रेम कभी घोषणा करके नहीं देता। क्योंकि जब घोषणा ही हो गई तो प्रेम कहां रहा! वहां तो अहंकार शुरू हो गया। प्रेम चुपचाप दे देता है और भाग जाता है। पता भी न चल पाए कि कौन दे गया। और वह बड़ा डरा हुआ है और छिपाए हुए है। वह घड़ी बड़ी अदभुत रही होगी। लेकिन बड़े मजे की बात है, और कृष्ण उससे आते ही से पूछने लगते हैं कि लाए क्या हो? देने को क्या लाए हो? क्योंकि कृष्ण यह मान ही नहीं सकते कि प्रेम बिना देने के खयाल से, और आ गया हो। प्रेम जब भी आता है तो देने ही आता है। सुदामा है कि छिपाए जा रहा है। और कृष्ण हैं कि खोजेजा रहे हैं कि लाए क्या हो? अब ऐसे कृष्ण को क्या कमी है, कि सुदामा क्या लाएगा जिससे उनकी कोई बढ़ती हो जाए! लेकिन वे जानते हैं कि प्रेम जब भी आता है तो देने ही आता है, लेने नहीं आता। सुदामा जरूर कुछ लाया ही होगा। उसने जरूर छिपा रखा होगा, क्योंकि वे जानते हैं कि प्रेम सदा छिपाता है। और फिर उन्होंने उसकी पोटली खोज-बीन कर छीन ही ली। और फिर उस भरे दरबार, जहां कि खाली चावल कभी भी न आए होंगे, वे उन चावलों को खाने लगे।
इसमें कोई विशेष घटना नहीं है। प्रेम के लिए बड़ी सामान्य घटना है। लेकिन चूंकि प्रेम ही हमें सामान्य नहीं रह गया, इसलिए विशेष मालूम पड़ता है।-
ओशो - कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन-

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