श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 1)
(श्लोक 1) धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्स्व:
मामका: पाण्डवा श्रेच्व किमकुर्वत संजय धृतराष्ट्र बोले - हे संजय धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु पुत्रो ने क्या किया ?
ध्रतराष्ट्र आँख से नहीं देख सकते थे। आँख से नहीं देख सकने का मतलब यह नहीं है कि मोह ख़त्म हो जाता है आँखों को मन का द्धार कहा जाता है। आँखों से हम देखते है तो हम संसार में जाते है और संसार में खो जाते है और हमारे अंदर कामनाये उठनी शुरू हो जाती है। चेतना जाग्रत हो जाती है जब हम नींद में होते है हम अचेतन हो जाते है शिथिल हो जाते है। मगर हम आँखों से कहा देखते है। हम आँख के माध्यम से देखतें है अगर आँखो तक जीवन धारा न पहुंचे तो देख नहीं सकते आँख तो सिर्फ देखने का जरिया मात्र है। महत्पूर्ण आँखे नहीं है वह जीवन है जिसके द्वारा हमारे हाथ पैर आँख मस्तिषक आदि काम करते है शरीर जिस अंग में जीवनधारा बहनी बंद हो जाती है वही अंग हमारा निष्क्रिय है।
वह सिर्फ देख नहीं पाते उनकी मन की आँखे खुली हुयी है जब वे जाग्रत अवस्था में होते है तो चेतना भी जाग्रत होती है। उनके सभी पुत्र युद्धभूमि में है। अपने पुत्रो को लेकर वह चिंतित है वह जानना चाहते है। धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है जिस भूमि पर युद्ध हो रहा हो उसे उसे धर्मभूमि कैसे कहा जा सकता है जहा धर्म होता है वहां युद्ध नहीं हो सकता जहाँ युद्ध होता है वहां धर्म नहीं हो सकता। आज धर्म के नाम पर सबसे ज्यादा झगडे होते है युद्ध होते है. उन्हें हम धर्मयुद्ध कैसे कह सकते है। यह सिर्फ धर्म के नाम पर अपने अहंकार को तृप्त करना है. जो धार्मिक होगा।उसके मन में युद्ध तो क्या गलत विचार भी नहीं आ सकते ,धार्मिक वही हो सकता है जो सरल हो गया है. युद्ध कभी धार्मिक नहीं होता वह तो हमेशा अपने अहम की तृप्ति के लिए होता है युद्ध का जन्म ही अहंकार से होता है।
इस बात को ध्रतराष्ट्र नही जानते ऐसा नहीं है। कुरुक्षेत्र को उन्होंने धर्मभूमि कहा है। कुरुक्षेत्र आज भी हरियाणा राज्य में है। यहा प्राचीन काल में ऋषि मुनियो ने तप किया था। धर्मभूमि कहने से उनका प्रायोजन यह भी हो सकता है कि दुर्योधन को हो सकता है वहा बुद्धि आ गयी हो उसने अपनी हठ छोड़ दी हो या धर्मराज युधिष्ठिर ने युद्ध का निर्णय बदल दिया हो। उनकी व्याकुलता किसी से छिपी नहीं थी जब हम अधर्म के मार्ग पर चलते है तो भय भी हमारे व हमारे अपने के साथ रहता है अगर कोई अपराधिक प्रवर्ति का है उसके मन में किसी कोने में भय छिपा ही रहता है मगर उसके जो अपने होते है माँ -बाप,पत्नी आदि वह भी प्रत्येक पल भय मे जीते है। यहा धृतराष्ट्र भी भयभीत है वह जानते थे दुर्योधन अधर्म के रस्ते पर चल रहा है अधर्म के राह पर चलने वाले का पतन निश्चित है वह चाहे कितना ही बलशाली क्यों न हो। पुत्र मोह के कारण उसके गलत कार्यो का विरोध न करना उन्हें भयभीत कर रहा है।
अपने बच्चो को उचित संस्कार देना। सही गलत का ज्ञान देना। यह माँ -बाप का फर्ज है।
,
No comments:
Post a Comment