Friday, 24 March 2017

ध्यान विधि

             

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तुम सिर्फ देखो। दुख आए तो देखो -- और जानते रहो कि मैं देखने वाला हूँ, मैं दुख नहीं हूँ। और तुम बहुत चौंकोगे!
इस छोटे-से प्रयोग को उतारो जीवन में। यह कुंजी है, इससे अमृत के द्वार खुल जाते हैं! दुख आए, देखते रहो। जागे रहना, क्योंकि पुरानी आदत हो गई है, जन्मों-जन्मों की आदत हो गई है जल्दी से दुखी हो जाने की। कहना कि मैं देखने वाला हूँ, कि मैं तो सिर्फ दर्पण हूँ, कि दुख की छाया बन रही है ठीक। इससे दर्पण दुखी नहीं होता। छाया गई, दर्पण फिर खाली हो जाता है -- तुम दर्पण मात्र, द्रष्टा मात्र, साक्षी मात्र!
और फिर देखना, अचानक हैरान हो जाओगे -- दुख की बदली है, और तुम दुखी नहीं हो! दुख की बदली वहाँ है, तुम यहाँ हो; दोनों के बीच अनंत आकाश है! दोनों के बीच अनंत फासला है, जो कभी भरा नहीं जा सकता, कभी जोड़ा नहीं जा सकता। उदासी होगी, और तुम उदास नहीं होओगे , तुम सिर्फ निरीक्षण करोगे!
फिर खुशी भी आएगी, अब खुश मत हो जाना -- क्योंकि दुख को तो देखने की आदमी चेष्टा कर लेता है, क्योंकि दुखी तो कोई होना नहीं चाहता; लेकिन सुख... सुख को तो जल्दी से आलिंगन कर लेता है, सुख को तो जल्दी से ओढ़ लेता है।
सुख के साथ भी यही करना। वह भी बादल है। वह भी आया-गया मेहमान है। ऐसे हर मेहमान के पीछे चलने लगोगे तो जिंदगी टूट जाएगी -- टूट ही गई है! आए सुख देखते रहना!
अगर तुम सुख और दुख दोनों को देख सको तो तुम्हारे भीतर जो अवस्था पैदा होगी, उस अवस्था का नाम सहज है, साक्षी है, समाधि है!

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