कहा: "नहीं! विशवास का और ईश्वर का क्या संबंध?मैं तो ईशवर को जनता हूं!" फिर मैंने एक कहानी कही
किसी देश में क्रांति हो गई थी! वहां केक्रांतिकारी सभी कुछ बदलने में लगे थे! धर्म को भी वे नष्ट करने पर उतारूं थे! उसी सिलसिले में एक वृद्ध फ़क़ीर को पकड़ कर अदालत में लाया गया! उस फ़क़ीर से उन्होंने पूछा: "ईश्वर में क्यों विश्वास करते हो?" वह फ़क़ीर बोला: "महानुभाव, विशवास मैं नहीं करता! लेकिन, ईश्वर है! अब मैं क्या करूं?" उन्होंने पूछा: "यह
तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि ईश्वर है?" वह बूढ़ा बोला: "आंखें खोलकर जब से देखा, तब से उसके अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है!" उस फ़क़ीर के प्रत्युत्तरों ने अग्नि घृत का काम किया! वे क्रन्तिकारी बहुत क्रुद्ध हो गए और बोले: "शीघ्र ही हम तुम्हारे सारे साधुओंं को मार डालेंगे! फिर.… ? वह बूढ़ा हंसा और बोला: "जैसी ईश्वर की मर्जी!" "लेकिन हमने तो धर्म के सारे
चिन्हों को ही मिटा डालने का निशचय किया है! ईश्वर का कोई भी चिन्ह हम संसार में न छोड़ेंगे!" वह बूढ़ा बोला: "बेटे! यह बड़ा ही कठिन काम तुमने चुना है, लेकिन ईश्वर की जैसी मर्जी! सब चिन्ह कैसे मिटाओगे? जो भी शेष होगा, वही उसकी खबर देगा: कम से कम तुम तो शेष रहोगे ही, तो तुम्ही उसकी खबर दोगे! ईश्वर को मिटाना असंभव है, क्योंकि ईश्वर तो समग्रता है!" ईश्वर को एक व्यक्ति की भांति सोचने से ही सारी भ्रांतियां खड़ी हो गई है! ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं! वह तो जो है, वही है! और ईश्वर में विशवास करने के विचार से भी बड़ी भूल हो गई है! प्रकाश में विशवास करने का क्या अर्थ? उसे तो आंखें खोलकर ही जाना जा सकता है विशवास अज्ञान का समर्थक है और अज्ञान एकमात्र पाप है! आंखों पर पट्टियां बंधा विशवास नहीं, वरन पूर्णरूपेण खुली हुई आँखोंवाला विवेक ही मनुष्य को सत्य ताल ले जाता है!
और सत्य ही परमात्मा है! सत्य के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है ।।
" मानते चले जाएंगे लोग, क्योंकि शास्त्र में जो लिखा है! कुछ भी लिखा हो, उसको मानने में कोई अड़चन नहीं होती। तुम अब भी द्रोणाचार्य जैसे व्यक्तियों को सम्मान दिए चले जाते हो! और अब भी बड़े मनोभाव से एकलव्य की कथा पढ़ी जाती है और तुम बड़ी प्रशंसा करते हो एकलव्य की!
लेकिन तुम निंदा द्रोण की नहीं करते। जब की निंदा द्रोण की करनी चाहिए। यह आदमी क्या गुरु होने के योग्य है? इसने एकलव्य को इसलिए इनकार कर दिया कि वह शूद्र था, शिष्य बनाने से इनकार कर दिया! और ये सतयुग के गुरु, महागुरु! और इस आदमी की बेईमानी देखते हो!
पहले तो उसे इनकार कर दिया और फिर जब वह जाकर जंगल में इसकी मूर्ति बना कर के धनुर्धर हो गया, तो यह दक्षिणा लेने पहुंच गया। शर्म भी न आई! जिसको तुमने शिष्य ही स्वीकार नहीं किया, उससे दक्षिणा लेने पहुंच गए! और दक्षिणा भी क्या मांगा-दांए हाथ का अंगूठा मांग लिया। क्योंकि इस आदमी को डर था कि एकलव्य इतना बड़ा धनुर्धर हो गया है कि कहीं मेरे शाही शिष्य अर्जुन को पीछे न छोड़ दे! कहीं शूद्र क्षत्रियों से आगे न निकल जाए! इस बेईमान, चालबाज आदमी को तुम अब भी गुरु कहे चले जाते हो! द्रोणाचार्य! अब भी आचार्य कहे चले जाते हो। जगह-जगह इसके, जैसे रावण को जलाते हो, ऐसे द्रोणाचार्य को जलाना चाहिए। रावण ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? रावण ने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।
और एकलव्य की भी मैं प्रशंसा नहीं कर सकता। जब गुरु द्रोण पहुंचे थे लेने अंगूठा, तब अंगूठा बता देना था, देने का सवाल ही नहीं है। यह भी क्या युवा था! पिटाई-कुटाई न करता, चलो ठीक है; इनकी नाक नहीं काटी, ठीक है। लेकिन कम से कम अंगूठा तो बचा सकता था। अगूंठा दे दिया काट कर!
और सदियों से फिर इसकी प्रशंसा की जा रही है। अब भी स्कूलों में पाठ पढ़ाया जा रहा है कि अहा, एकलव्य जैसा शिष्य चाहिए! कौन पढ़ा रहे हैं? तुम्हारे शिक्षक, गुरु, अध्यापक, प्रोफेसर, वे सब पढ़ा रहे हैं-एकलव्य जैसा शिष्य चाहिए! ये सब तुम्हारा अंगूठा काटने के लिए उत्सुक हैं। इनको मौका मिले तो तुम्हारी गर्दन काट लें। जेब तो काटते ही हैं। और ये प्रशंसा कर रहे हैं! और तुम भी...और फिर तुम कहे जाते हो कि युवा हो। "
~ ओशो,

कामवासना सिर्फ वासना ही नहीं है, शक्ति का अपव्यय भी है। और जो ऊर्जा हम बाहर फेंक रहे हैं वह ऊर्जा हमें भीतर रिक्त कर जाती है, क्षीण कर जाती है, दीन कर जाती है, और भीतर हमें जड़ कर जाती है।
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