
2-जैसे मै सबको उत्पन्न करता हुआ और सबका भरण पोषण करता हुआ भी अहंता
ममता से रहित हूँ । और सबमे रहता हुआ भी उनके आश्रित नही हूँ । उनसे सर्वथा
निर्लिप्त हूँ । एसे ही मनुष्य को चाहिए कि वह कुटुम्ब परिवार का भरण पोषण करता हुआ
उनमे अहंता ममता न करे.
3-शरीर कभी एक रुप रहता ही नही और सत्ता कभी अनेकरुप होती ही नही
।शरीर जन्म से पहले भी नही था,मरने के बाद भी नही रहेगा तथा वर्तमान मे भी
प्रतिक्षण मर रहा है।वास्तव मे गर्भ मे आते ही मरने का क्रम शुरु हो जाता है
।बाल्यावस्था मर जाये तो युवावस्था आ जाती है,युवावस्था मर जाये तो वृधावस्था आ
जाती है और वृधावस्था मर जाय तो
देहान्तर-अवस्था अर्थात दूसरे शरीर की प्राप्ति हो जाती है।
4-इतना मिल गया इतना और मिल जाय फिर एसा मिल्ता ही रहे एसे धन मकान
जमीन आदर प्रशंशा पद अधिकार आदि की तरफ बढ़ती हुयी वृति का नाम लोभ है
5-सत असत को ठीक तरह से न जानना ही मोह है । स्वय सत होते हुए भी असत के
साथ अपनी एकता मानते रहना ही मोह है । जब मनुष्य असत को ठिक तरह से जान लेता है तब
असत से उसका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और सत मे अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव
हो जाता है । इस स्थिति का अनुभव होने पर फिर कभी मोह नही होता ।
6-यह मनुष्य शरीर केवल परमात्मा प्राप्ति के लिए मिला है। साधारण से
साधारण पापी से पापी मनुष्य ही क्यो न हो अगर वह अन्तकाल मे भी अपनी स्थिति
परमात्मा मे कर ले अर्थात जड़ता से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर ले तो उसे भी शान्त ब्रह्मा की प्राप्ति हो जायेगी वह जन्म –मरण से मुक्त हो जायेगा
7-अनित्य और सुख रहित इस शरीर को पाकर अर्थात हम जीते रहे और सुख
भोगते रहे –एसी कामना को छोड़कर भगवान का भजन करना चाहिए । कारण कि संसार मे सुख है
ही नही,केवल सुख का भ्रम है। एसे ही जीने का भ्रम है । हम जी नही रहे है प्रतिक्षण
मर रहे है ।
8-आसक्ति और स्वार्थ भाव से कर्म करना ही बनधन का कारण है । आसक्ति और
स्वार्थ के न रहने पर स्वतः सबके लिए हित के लिए कर्म होते है । बन्धन भाव से होता
है क्रिया से नही । मनुष्य कर्मो से नही बन्धता,प्रत्युत कर्मो मे वह जो आसक्ति
स्वार्थभाव रखता है, उनसे ही वह बन्धता है।
9-मनुष्य कर्म बन्धन से तभी मुक्त हो सकता है जब वह संसार से मिले हुए
शरीर वस्तु धन सम्पत्ति योग्यता बल आदि संसार की सेवा मे लगा दे और बदले मे कुछ न
चाहे । इसका कारण कि संसार हमे वह वस्तु दे ही नही सकता जो हम वास्तव मे चाहते है
। हम सुख चाहते है,अमरता चाहते है निश्चिन्ता चाहते है,स्वाधिनता चाहते है शान्ति
चाहते है । लेकिन यह सब हमे संसार से नही मिलेगा बल्कि संसार से सम्बंध विच्छेद से
मिलेगा । संसार से सम्बंध विच्छेद के लिए आवश्यक है कि हमे जो संसार से मिला है
उसको केवल संसार की सेवा मे समर्पित कर दे ।
10- सत-असत का विचार करने मे पशु पक्षी वृक्ष आदि असमर्थ है फिर भी
उनके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्य पालन) होता है । लेकिन मनुष्य को तो भगवत कृपा से विशेष विवेक शक्ति मिली हुयी है । अतः यदि वह अपने विवेक को महत्व न देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोक हितार्थ कर्म हो सकते है।
11-कर्मयोगी सदा देने का भाव रखता है लेने का नही,क्योकि लेने का भाव
ही बान्धने वाला है।लेने का भाव रखने से कल्याणप्राप्ति मे बाधा लगने के साथ ही
सांसारिक पदर्थो की प्राप्ति मे भी बाधा
होने लगती है ।
प्राय सभी का अनुभव है कि संसार मे लेने का भाव रखने वाले को कोइ देना
नही चाहता । इसलिये बिना कुछ चाहे निस्वार्थ भाव से कर्तव्य कर्म करने से मनुष्य
अपनी उन्न्ति (कल्याण) कर सकता है ।
12-जो मनुष्य कामना ममता आसक्ति आदि से युक्त होकर इन्द्रियो द्वारा
भोग भोगता है वह भोगो मे रमण करने वाला है । एसा मनुष्य पशु से भी नीचा है क्योकि
पशु नये पाप नही करता है बल्कि पहले किये गये पापो का फल भोगकर निर्मलता की और
जाता है लेकिन इन्द्रियो द्वारा भोगो मे रमण करने वाला मनुष्य नये-नये पाप करके
पतन की और जाता है और साथ ही सृष्टी चक्र मे बाधा उत्पन्न करके सम्पूर्ण सृष्टी को दुख पहुचाता है ।
13-मनुष्य के लिये जो भी कर्तव्य कर्म का विधान किया गया है उसका
उददेश्य परम कल्याण स्वरुप परमात्मा को प्राप्त करना ही है । किसी भी साधन (
कर्मयोग भक्तियोग ज्ञानयोग ) के द्वारा उद्देश्य की सिद्धि हो जाने पर मनुष्य के
लिये कुछ भी करना जानना अथवा पाना शेष नही रहता,जो मनुष्य जीवन की परम सफलता है।
14-जब जीव मनुष्य योनि मे जन्म लेता है तब उसको शरीर धन मकान आदि सब
सामग्री मिलती है और जब वह यहा से जाता है तब सब सामग्री यही छुट जाती है इस
सीदी-सादी बात से यह सिध्द होता है कि शरीर धन सम्पत्ति आदि सब सामग्री मिली हुयी
है अपनी नही है । मनुष्य को शरीर धन सम्पत्ति आदि सामग्री संसार की सेवा करने के
लिये ही मिली हुयी है अपनी मानने के लिये नही।
15-जिसके मन मे सांसारिक वस्तुओ की कामना है वह मनुष्य अगर दूसरे
प्राणी धन सम्पत्ति आदि पर विजय प्राप्त कर ले तो भी वह वास्तव मे पराजित ही है ।
कारण कि वह उन पदार्थो मे महत्वबुद्धि रखता है और अपने जीवन को उनके अधीन मानता है
। शरीर से विजय तो पशु भी प्राप्त कर लेता है । पर वास्तविक विजय ह्रदय से वस्तु की
अधीनता दूर होने पर प्राप्त होती है ।
16-पराजित वयक्ति ही दूसरे को पराजित करना चाहता है दूसरे को अपने
आधीन बनाना चाहता है। वास्तव मे अपने को पराजित किये बिना कोइ दूसरे को पराजित कर
ही नही सकता । जैसे कोइ राजा या विद्वान किसी दूसरे पर विजय प्राप्त करना
चाहता है तो उसे सबसे पहले अपनी सेना सामर्थ्य बुद्धि आदि का सहारा लेना पड़ता है ।
यानी इनके आधिन होना पड़ता है।
17-मनुष्य मे दो प्रकार की इच्छाये होती है –सांसारिक अर्थात भोग एवं
संग्रह की इच्छा और परमार्थिक अर्थात अपने कल्याण की इच्छा । इसमे भोग और संग्रह
की इच्छा परधर्म अर्थात शरीर का धर्म है । क्योकि असत के साथ सम्बंध जोड़ते से ही
भोग और संग्रह की इच्छा होती है । अपने कल्याण की इच्छा स्वधर्म है क्योकि
परमात्मा का अंश होने से स्वयं की इच्छा परमात्मा की ही है,संसार की नही ।
18-स्थूल,सूक्ष्म,और कारण –तीनो शरीरो से किये जाने वाले तीर्थ व्रत
दान तप चिन्तन ध्यान समाधि आदि समस्त शुभ कर्म सकामभाव से अर्थात अपने लिये करने
पर परधर्म हो जत है और निष्काम भाव से अर्थात दूसरो के लिये करने पर स्वधर्म हो
जाते है कारण कि स्वरुप निष्काम है और सकामभाव प्रकृति के संबन्ध से आता है। इसलिये कामना होने पर परधर्म होता है ।
स्वधर्म मुक्त करने वाला और परधर्म बांधने वाला होता है।
19-अपने प्रति कोइ अप्रिय एवं असत्य बोले तो वह बुरा लगता है और प्रिय
एवं सत्य मधुर वचन बोले तो अच्छा लगता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अच्छे बुरे ,सदगुण
दुरगुण,कर्तव्य अकर्तव्य आदि का ज्ञान अर्थात विवेक सभी मनुष्यो मे रहता है ।
परन्तु एसा होने पर भी वह अप्रिय असत्य बोलता है अपने कर्तव्य का पालन नही करता,
तो इसका कारण यही है कि कामना ने उसका विवेक ढक दिया है ।
20-परमात्मा के लिये न तो कोई कर्तव्य है और न ही उन्हे कुछ पाना ही
शेष है फिर भी वे समय-समय पर अवतार लेकर केवल संसार का हित करने के लिये सब कर्म
करते है । इसलिये मनुष्य को भी केवल दुसरो के हित के लिये ही कर्तव्य कर्म करने
चाहिए ।
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