Saturday, 28 February 2015

सफल प्रेम भी हो जाते हैं क्यों असफल-...... Osho

सफल प्रेम भी हो जाते हैं
क्यों असफल-......

जॉर्ज बर्नाड शॉ ने कहा है, दुनिया में दो ही दुख हैं- एक
तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा तुम जो चाहो वह मिल जाए। और
दूसरा दुख मैं कहता हूं कि पहले से बड़ा है।
क्योंकि मजनू को लैला न मिले तो भी विचार में
तो सोचता ही रहता है कि काश, मिल जाती! काश
मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में,
कि करता सवारी बादलों की, चांद-तारों से बातें,
खिलता कमल के फूलों की भांति। नहीं मिल
पाया इसलिए दुखी हूं।
मजनू को मैं कहूंगा, जरा उनसे पूछो जिनको लैला मिल गई है। वे
छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे है कि मजनू
धन्यभागी था, बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम
बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।
जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल
हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल
हो ही नहीं सकती। बाहर
की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं।
क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर
मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते
हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।
रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल
का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है और पहुंचता है, पाता है
झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने
साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए
भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा ‍कर लिया। प्यास
इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर
लिया।
बाहर जिसे हम तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब
तक हम बाहर से बिलकुल न हार जाएं, समग्ररूपेण न हार जाएं तब तक
हम भीतर लौट भी नहीं सकते।
तुम्हारी बात मैं समझा।
किस-दर्जा दिलशिकन थे
मुहब्बत के हादिसे
हम जिंदगी में फिर कोई
अरमां न कर सके।
एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर
वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान
भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम
की अभीप्सा भी नहीं कर
सकता।
दिल की वीरानी का क्या मजकूर
है,
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया।
और इतनी दफे लुट चुका है यह दिल! इतनी बार
तुमने प्रेम किया और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे
हो, अब घबड़ाने लगे हो

मैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने
की भी कला होती है। लुटने के
भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने
का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत
लुटेरों से लुटे।
तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अद्भुत कौम है। उसने
परमात्मा को एक नाम दिया हरि। हरि का अर्थ होता है- लुटेरा, जो लूट ले,
जो हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने
ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। जो हरण कर ले।
लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-
छोटी बातों में लुट गए! चुल्लू-चुल्लू पानी में डूबकर
मरने की कोशिश की, मरे
भी नहीं, पानी भी खराब
हुआ, कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब मैं
तुमसे कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने
की बात
ही नहीं जंचती क्योंकि हम डूबे कई
दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और
कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे
थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़
मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर
भी है।
मेरी मायूस मुहब्बत की
हकीकत मत पूछ
दर्द की लहर है
अहसास के पैमाने में।
तुम्हारा प्रेम सिर्फ एक दर्द
की प्रतीति रही।
रोना ही रोना हाथ लगा, हंसना न आया। आंसू
ही आंसू हाथ लगे। आनंद, उत्सव की कोई
घड़ी न आई।
इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।
लेकिन संसार के दुख का हासिल यही है कि दर्द के सिवा कुछ
भी नतीजा नहीं है।
इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम।
दुख और दर्द के सिवा कुछ
भी नतीजा नहीं है।
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।
यहां से कोशिश करो, वहां से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम
में पड़े, सब तरफ से हासिल यही होगा। अंतत: तुम पाओगे
कि हाथ में दुख के अतिरिक्त और कुछ
भी नहीं है। राख के सिवा कुछ हाथ में
नहीं रह गया है। धुआं ही धुआं!
लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूं जहां धुआं
होता ही नहीं। मैं तुमसे उस जगत
की बात कर रहा हूं जहां आग
जलाती नहीं, जिलाती है। मैं
भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूं।
मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे
ही उपयोग करने पड़ते हैं, जो तुम भी उपयोग
करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने
अपने अर्थ दे रखे हैं।
जैसे ही तुमने सुना 'प्रेम', कि तुमने जितनी फिल्में
देखी हैं, उनका सबका सार आ गया। सबका निचोड़, इत्र। मैं
जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह कुछ और।
मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया,
जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मोंवाला प्रेम
नहीं, नाटक नहीं। और जिन्होंने यह प्रेम
किया उन सबने यहीं कहा कि वहां हार नहीं है,
वहां जीत ही जीत है। वहां दुख
नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त
खुलती चली जाती है। और अगर तुम
इस प्रेम को न जान पाए तो जानना, जिंदगी व्यर्थ गई।
दूर से आए थे साकी,
सुनकर मैखाने को हम।
पर तरसते ही चले,
अफसोस पैमाने को हम।
मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आए
थे। दूर से आए थे साकी सुनकर मैखाने को हम-
मधुशाला की खबर सुनकर कहां से तुम्हारा आना हुआ
जारा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आए हो।
पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम- यहां एक घूंट
भी न मिला।
मरते वक्त अधिक लोगों की आंखों में यही भाव
होता है। तरसते हुए जाते हैं। हां, कभी-
कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई
प्रेमी परमात्मा का तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब
जाता है।
मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख
खोलकर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम
होता है, व अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम
होता है वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम
होता है, वही भक्ति है।
तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित
करना चाहता है, स्त्री पुरुष को शोषित
करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री-
पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति-
पत्नी लड़ते रहते हैं। उनके बीच एक कलह
का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक-दूसरे
को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम
देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाए इसकी चेष्टा है। यह
संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है। मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जहां तुम परमात्मा से
कुछ मांगते नहीं, कुछ भी नहीं।
सिर्फ कहते हो, मुझे अंगीकार कर लो। मुझे
स्वीकार कर लो। मुझे चरणों में पड़ा रहने दो। यह
मेरा हृदय किसी कीमत
का नहीं है, किसी काम
का नहीं है, मगर चढ़ाता हूं तुम्हारे चरणों में। और कुछ
मेरे पास है भी नहीं। और चढ़ा रहा हूं
तो भी इसी भाव से चढ़ा रहा हूं-
-'
त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पयेत्।'
तेरी ही चीज है।
तुझी को वापस लौटा रहा हूं। मेरा इसमें कुछ है
भी नहीं। देने का सवाल
भी नहीं है, देने की अकड़
भी नहीं है। मगर तुझे और तेरे चरणों में रखते
ही इस हृदय को शांति मिलती है, आनंद मिलता है,
रस मिलता है। जो खंड टूट गया था अपने मूल से, फिर जुड़ जाता है।
जो वृक्ष उखड़ गया था जमीन से, उसको फिर जड़ें मिल
जाती हैं; फिर हरा हो जाता है, फिर रसधार
बहती है, फिर फूल खिलते हैं, फिर
पक्षी गीत गाते है, फिर चांद-तारों से मिलन
होता हैं।
परमात्मा से प्रेम का अर्थ है कि इस समग्र अस्तित्व के साथ मैं अपने
को जोड़ता हूं। मैं इससे अलग-अलग नहीं जिऊंगा, अपने
को भिन्न नहीं मानूंगा। अपने को पृथक मानकर
नहीं अपनी जीवन-व्यवस्था बनाऊंगा।
मैं इसके साथ एक हूं। इसकी जो नियति है
वही मेरी नियति है। मैं इस धारा के साथ बहूंगा,
तैरूंगा नहीं। यह जहां ले जाए! यह डुबा दे तो डूब जाऊंगा।
ऐसा समर्पण परमात्म प्रेम का सूत्र है। खाली मत जाना।
मैकशों ने पीके तोड़े जाम-ए-मै
हाये वो सागर जो रक्खे रह गए।
ऐसे ही रक्खे मत रह जाना।
पी लो जीवन का रस। तोड़ चलो ये प्यालियां। और
उसकी नजर एक बार तुम पर पड़ जाए और
तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जाएगा।
लाखों में
इंतिखाब के काबिल बना दिया।
जिस दिल को
तुमने देख लिया दिल बना दिया।।
जरा रखो उसके चरणों में। जरा झुको। एक नजर उसकी पड़
जाए, एक किरण उसकी पड़ जाए, और तुम रूपांतरित हुए।
लोहा सोना हुआ। मिट्टी में अमृत के फूल खिल जाते हैं।
आखिरी जाम में क्या बात थी
ऐसी साकी।
हो गया पी के जो खामोश
वो खामोश रहा।
यहां तुमने बहुत तरह के जाम पीए। आखिरी जाम
- उसकी मैं बात कर रहा हूं।
आखिरी जाम में क्या बात थी
ऐसी साकी।
हो गया पी के जो खामोश
वो खामोश रहा।
उसको पी लोगे तो एक गहन सन्नाटा हो जाएगा। सब शांत, सब
शून्य, सब मौन। भीतर कोई विचार की तरंग
भी नहीं उठेगी।
उसी निस्तरंग चित्त को समाधि कहा है।
उसी निस्तरंग चित्त को बोध होता है, मैं कौन हूं।
मैं किसी और ही प्रेम की बात कर
रहा हूं, तुम किसी और ही प्रेम
की बात सुन रहे हो। मैं कुछ बोलता हूं, तुम कुछ सुनते हो।
यह स्वाभाविक है शूरू-शुरू में। धीरे-धीरे बैठते-
बैठते मेरे शब्द मेरे अर्थों में तुम्हें समझ में आने लगेंगे। सत्संग
का यही प्रायोजन है। आज नहीं समझ में आया,
कल समझ में आएगा, कल नहीं तो परसों।
सुनते-सुनते...। कब तक तुम जिद करोगे अपने ही अर्थ
की? धीरे-धीरे एक नए अर्थ
का आविर्भाव होने लगेगा।
मेरे पास बैठकर तुम्हें एक नई भाषा सीखनी है।
एक नई अर्थव्यवस्था सीखनी है। एक नई भाव-
भंगिमा, जीवन की एक नई मुद्रा! तुम्हारे
ही शब्दों का उपयोग करूंगा, लेकिन उन पर
अर्थों की नई कलम लगाऊंगा। इसलिए जब
भी तुम्हें मेरे किसी शब्द से अड़चन हो तो खयाल
रखना, अड़चन का कारण तुम्हारा अर्थ होगा, मेरा शब्द नहीं।
तुम भी कोशिश करना कि मेरा अर्थ क्या है। तुम अपन अर्थों को एक तरफ सरकाकर रख दो। तुम तत्परता दिखाओ मेरे
अर्थ
को पकड़ने की। और तत्परता दिखाई तो घटना निश्चित घटने
वाली है।

Tuesday, 24 February 2015

Friday, 20 February 2015

osho anmol vachan(in hindi)

                                         Image result for osho                                                                                                                                                                                                                                           मैं एक महानगरी में था! वहां कुछ युवक मिलने आए! वे पूछने लगे: "क्या आप ईश्वर में विशवास करते है?" मैंने
कहा: "नहीं! विशवास का और ईश्वर का क्या संबंध?मैं तो ईशवर को जनता हूं!" फिर मैंने एक कहानी कही
किसी देश में क्रांति हो गई थी! वहां केक्रांतिकारी सभी कुछ बदलने में लगे थे! धर्म को भी वे नष्ट करने पर उतारूं थे! उसी सिलसिले में एक वृद्ध फ़क़ीर को पकड़ कर अदालत में लाया गया! उस फ़क़ीर से उन्होंने पूछा: "ईश्वर में क्यों विश्वास करते हो?" वह फ़क़ीर बोला: "महानुभाव, विशवास मैं नहीं करता! लेकिन, ईश्वर है! अब मैं क्या करूं?" उन्होंने पूछा: "यह
तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि ईश्वर है?" वह बूढ़ा बोला: "आंखें खोलकर जब से देखा, तब से उसके अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है!" उस फ़क़ीर के प्रत्युत्तरों ने अग्नि घृत का काम किया! वे क्रन्तिकारी बहुत क्रुद्ध हो गए और बोले: "शीघ्र ही हम तुम्हारे सारे साधुओंं को मार डालेंगे! फिर.… ? वह बूढ़ा हंसा और बोला: "जैसी ईश्वर की मर्जी!" "लेकिन हमने तो धर्म के सारे
चिन्हों को ही मिटा डालने का निशचय किया है! ईश्वर का कोई भी चिन्ह हम संसार में न छोड़ेंगे!" वह बूढ़ा बोला: "बेटे! यह बड़ा ही कठिन काम तुमने चुना है, लेकिन ईश्वर की जैसी मर्जी! सब चिन्ह कैसे मिटाओगे? जो भी शेष होगा, वही उसकी खबर देगा: कम से कम तुम तो शेष रहोगे ही, तो तुम्ही उसकी खबर दोगे! ईश्वर को मिटाना असंभव है, क्योंकि ईश्वर तो समग्रता है!" ईश्वर को एक व्यक्ति की भांति सोचने से ही सारी भ्रांतियां 
खड़ी हो गई है! ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं! वह तो जो है, वही है! और ईश्वर में विशवास करने के विचार से भी बड़ी भूल हो गई है! प्रकाश में विशवास करने का क्या अर्थ? उसे तो आंखें खोलकर ही जाना जा सकता है विशवास अज्ञान का समर्थक है और अज्ञान एकमात्र पाप है! आंखों पर पट्टियां बंधा विशवास नहीं, वरन पूर्णरूपेण खुली हुई आँखोंवाला विवेक ही मनुष्य को सत्य ताल ले जाता है!
और सत्य ही परमात्मा है! सत्य के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है ।।

                                                    Image result for osho world


" मानते चले जाएंगे लोग, क्योंकि शास्त्र में जो लिखा है! कुछ भी लिखा हो, उसको मानने में कोई अड़चन नहीं होती। तुम अब भी द्रोणाचार्य जैसे व्यक्तियों को सम्मान दिए चले जाते हो! और अब भी बड़े मनोभाव से एकलव्य की कथा पढ़ी जाती है और तुम बड़ी प्रशंसा करते हो एकलव्य की!
लेकिन तुम निंदा द्रोण की नहीं करते। जब की निंदा द्रोण की करनी चाहिए। यह आदमी क्या गुरु होने के योग्य है? इसने एकलव्य को इसलिए इनकार कर दिया कि वह शूद्र था, शिष्य बनाने से इनकार कर दिया! और ये सतयुग के गुरु, महागुरु! और इस आदमी की बेईमानी देखते हो!
पहले तो उसे इनकार कर दिया और फिर जब वह जाकर जंगल में इसकी मूर्ति बना कर के धनुर्धर हो गया, तो यह दक्षिणा लेने पहुंच गया। शर्म भी न आई! जिसको तुमने शिष्य ही स्वीकार नहीं किया, उससे दक्षिणा लेने पहुंच गए! और दक्षिणा भी क्या मांगा-दांए हाथ का अंगूठा मांग लिया। क्योंकि इस आदमी को डर था कि एकलव्य इतना बड़ा धनुर्धर हो गया है कि कहीं मेरे शाही शिष्य अर्जुन को पीछे न छोड़ दे! कहीं शूद्र क्षत्रियों से आगे न निकल जाए! इस बेईमान, चालबाज आदमी को तुम अब भी गुरु कहे चले जाते हो! द्रोणाचार्य! अब भी आचार्य कहे चले जाते हो। जगह-जगह इसके, जैसे रावण को जलाते हो, ऐसे द्रोणाचार्य को जलाना चाहिए। रावण ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? रावण ने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।
और एकलव्य की भी मैं प्रशंसा नहीं कर सकता। जब गुरु द्रोण पहुंचे थे लेने अंगूठा, तब अंगूठा बता देना था, देने का सवाल ही नहीं है। यह भी क्या युवा था! पिटाई-कुटाई न करता, चलो ठीक है; इनकी नाक नहीं काटी, ठीक है। लेकिन कम से कम अंगूठा तो बचा सकता था। अगूंठा दे दिया काट कर!
और सदियों से फिर इसकी प्रशंसा की जा रही है। अब भी स्कूलों में पाठ पढ़ाया जा रहा है कि अहा, एकलव्य जैसा शिष्य चाहिए! कौन पढ़ा रहे हैं? तुम्हारे शिक्षक, गुरु, अध्यापक, प्रोफेसर, वे सब पढ़ा रहे हैं-एकलव्य जैसा शिष्य चाहिए! ये सब तुम्हारा अंगूठा काटने के लिए उत्सुक हैं। इनको मौका मिले तो तुम्हारी गर्दन काट लें। जेब तो काटते ही हैं। और ये प्रशंसा कर रहे हैं! और तुम भी...और फिर तुम कहे जाते हो कि युवा हो। "
~ ओशो,
                Image result for osho sex                    Image result for osho sex
        कामवासना सिर्फ वासना ही नहीं है, शक्ति का अपव्यय भी है। और जो ऊर्जा हम बाहर फेंक रहे हैं वह ऊर्जा हमें भीतर रिक्त कर जाती है, क्षीण कर जाती है, दीन कर जाती है, और भीतर हमें जड़ कर जाती है।
संवेदना कम हो जाती है। जिन्हें भी ओम की ध्वनि सुननी हो, उन्हें अपनी शक्ति के अपव्यय से बचना चाहिए। क्योंकि जितनी ज्यादा शक्ति भीतर होगी आदोलित, जितनी शक्ति की तरंगें भीतर होंगी, उन तरंगों में वह भीतर की ओंकार की ध्वनि टकराने लगेगी। और वह जो टकराहट है, वह आपको पहले सुनाई पड़ेगी।
ब्रह्मचर्य का मूल्य ब्रह्मचर्य में स्वयं नहीं है। ब्रह्मचर्य का मूल्य तो केवल भीतर शक्ति की एक दीवाल खड़ी करने में है, जिसमें भीतर का ओंकार टकराने लगे और उस टकराहट को हम सुन पाएं। बिना ब्रह्मचर्य के आप दीवालरहित हैं। जैसे कोई घर हो, जिसमें दीवाल न हो। आवाज आप करें, तो लौटकर कभी न आए। निकल जाए, आकाश में खो जाए। ब्रह्मचर्य से हीन व्यक्ति दीवालरहित है। उसके आसपास कोई भी घेरा नहीं है, जिस घेरे में भीतर की ध्वनि टकराकर वापस लौट सके और सुनी जा सके। वह बिना दीवाल का मकान है। उसमें से आवाज गूंजती है और अनंत शून्य में, आकाश में खो जाती है।
ब्रह्मचर्य एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जिसके माध्यम से शरीर की पर्त के साथ—साथ शक्ति की पर्त इकट्ठी होती चली जाती है। इस शक्ति की पर्त में पहली बार ओंकार की ध्वनि गूंजती है। और जब इस गंज को हम सुन लेते हैं, तो हमें एक बात तो पक्की हो जाती है कि जिसकी यह गूंज है, वह भीतर छिपा है। फिर इस गज का ही रास्ता पकड़कर हम उस मूल तक पहुंच सकते हैं।
~ ओशो, कठोपनिषद (पांचवां–प्रवचन),
Unlike ·  · 

Sunday, 15 February 2015

gita saar (in hindi)

                                                                                                                                                                                                                                    1-जैसे वायु आकाश से उत्पन्न होती है आकाश मे ही स्थित रहती है तथा आकाश मे ही लीन हो जाती है अर्थात आकाश को छोड़कर वायु की स्वतन्त्र सत्ता है ही नही,एसे ही सम्पूर्ण  प्राणी भगवान से ही उतपन्न होते है । भगवान मे ही स्थित रहते है। तथा भगवान मे ही लीन रहते है अर्थात परमात्मा को छोड़कर प्राणियो की स्वतन्त्र सत्ता है ही नही,इस बात को मनुष्य द्रढता से स्विकार कर ले तो उसको सब कुछ भगवान ही है इस वास्तविक तत्व का अनुभव हो जायेगा ।

2-जैसे मै सबको उत्पन्न करता हुआ और सबका भरण पोषण करता हुआ भी अहंता ममता से रहित हूँ । और सबमे रहता हुआ भी उनके आश्रित नही हूँ । उनसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ । एसे ही मनुष्य को चाहिए कि वह कुटुम्ब परिवार का भरण पोषण करता हुआ उनमे अहंता ममता न करे.

3-शरीर कभी एक रुप रहता ही नही और सत्ता कभी अनेकरुप होती ही नही ।शरीर जन्म से पहले भी नही था,मरने के बाद भी नही रहेगा तथा वर्तमान मे भी प्रतिक्षण मर रहा है।वास्तव मे गर्भ मे आते ही मरने का क्रम शुरु हो जाता है ।बाल्यावस्था मर जाये तो युवावस्था आ जाती है,युवावस्था मर जाये तो वृधावस्था  आ जाती है  और वृधावस्था  मर जाय तो देहान्तर-अवस्था अर्थात दूसरे शरीर की प्राप्ति हो जाती है।

4-इतना मिल गया इतना और मिल जाय फिर एसा मिल्ता ही रहे एसे धन मकान जमीन आदर प्रशंशा पद अधिकार आदि की तरफ बढ़ती  हुयी वृति  का नाम लोभ है

5-सत असत को ठीक तरह से न जानना ही मोह है । स्वय सत होते हुए भी असत के साथ अपनी एकता मानते रहना ही मोह है । जब मनुष्य असत को ठिक तरह से जान लेता है तब असत से उसका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और सत मे अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव हो जाता है । इस स्थिति का अनुभव होने पर फिर कभी मोह नही होता ।
                         
6-यह मनुष्य शरीर केवल परमात्मा प्राप्ति के लिए मिला है। साधारण से साधारण पापी से पापी मनुष्य ही क्यो न हो अगर वह अन्तकाल मे भी अपनी स्थिति परमात्मा मे कर ले अर्थात जड़ता से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर ले तो उसे भी शान्त ब्रह्मा  की प्राप्ति हो जायेगी वह जन्म –मरण से मुक्त हो जायेगा

7-अनित्य और सुख रहित इस शरीर को पाकर अर्थात हम जीते रहे और सुख भोगते रहे –एसी कामना को छोड़कर भगवान का भजन करना चाहिए । कारण कि संसार मे सुख है ही नही,केवल सुख का भ्रम है। एसे ही जीने का भ्रम है । हम जी नही रहे है प्रतिक्षण मर रहे है ।

8-आसक्ति और स्वार्थ भाव से कर्म करना ही बनधन का कारण है । आसक्ति और स्वार्थ के न रहने पर स्वतः सबके लिए हित के लिए कर्म होते है । बन्धन भाव से होता है क्रिया से नही । मनुष्य कर्मो से नही बन्धता,प्रत्युत कर्मो मे वह जो आसक्ति स्वार्थभाव रखता है, उनसे ही वह बन्धता है।

9-मनुष्य कर्म बन्धन से तभी मुक्त हो सकता है जब वह संसार से मिले हुए शरीर वस्तु धन सम्पत्ति योग्यता बल आदि संसार की सेवा मे लगा दे और बदले मे कुछ न चाहे । इसका कारण कि संसार हमे वह वस्तु दे ही नही सकता जो हम वास्तव मे चाहते है । हम सुख चाहते है,अमरता चाहते है निश्चिन्ता चाहते है,स्वाधिनता चाहते है शान्ति चाहते है । लेकिन यह सब हमे संसार से नही मिलेगा बल्कि संसार से सम्बंध विच्छेद से मिलेगा ।  संसार से सम्बंध विच्छेद के लिए आवश्यक है कि हमे जो संसार से मिला है उसको केवल संसार की सेवा मे समर्पित कर दे ।

10- सत-असत का विचार करने मे पशु पक्षी वृक्ष  आदि असमर्थ है फिर भी उनके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्य पालन) होता है । लेकिन मनुष्य को तो भगवत कृपा  से विशेष विवेक शक्ति मिली हुयी है । अतः यदि वह अपने विवेक को महत्व न देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोक हितार्थ कर्म हो सकते है।
                              
  
11-कर्मयोगी सदा देने का भाव रखता है लेने का नही,क्योकि लेने का भाव ही बान्धने वाला है।लेने का भाव रखने से कल्याणप्राप्ति मे बाधा लगने के साथ ही सांसारिक पदर्थो की प्राप्ति मे भी बाधा  होने लगती  है ।
प्राय सभी का अनुभव है कि संसार मे लेने का भाव रखने वाले को कोइ देना नही चाहता । इसलिये बिना कुछ चाहे निस्वार्थ भाव से कर्तव्य कर्म करने से मनुष्य अपनी उन्न्ति (कल्याण) कर सकता है ।

12-जो मनुष्य कामना ममता आसक्ति आदि से युक्त होकर इन्द्रियो द्वारा भोग भोगता है वह भोगो मे रमण करने वाला है । एसा मनुष्य पशु से भी नीचा है क्योकि पशु नये पाप नही करता है बल्कि पहले किये गये पापो का फल भोगकर निर्मलता की और जाता है लेकिन इन्द्रियो द्वारा भोगो मे रमण करने वाला मनुष्य नये-नये पाप करके पतन की और जाता है और साथ ही सृष्टी  चक्र मे बाधा उत्पन्न करके सम्पूर्ण सृष्टी  को दुख पहुचाता है ।

13-मनुष्य के लिये जो भी कर्तव्य कर्म का विधान किया गया है उसका उददेश्य परम कल्याण स्वरुप परमात्मा को प्राप्त करना ही है । किसी भी साधन ( कर्मयोग भक्तियोग ज्ञानयोग ) के द्वारा उद्देश्य की सिद्धि हो जाने पर मनुष्य के लिये कुछ भी करना जानना अथवा पाना शेष नही रहता,जो मनुष्य जीवन की परम सफलता है।

14-जब जीव मनुष्य योनि मे जन्म लेता है तब उसको शरीर धन मकान आदि सब सामग्री मिलती है और जब वह यहा से जाता है तब सब सामग्री यही छुट जाती है इस सीदी-सादी बात से यह सिध्द होता है कि शरीर धन सम्पत्ति आदि सब सामग्री मिली हुयी है अपनी नही है । मनुष्य को शरीर धन सम्पत्ति आदि सामग्री संसार की सेवा करने के लिये ही मिली हुयी है अपनी मानने के लिये नही।

15-जिसके मन मे सांसारिक वस्तुओ की कामना है वह मनुष्य अगर दूसरे प्राणी धन सम्पत्ति आदि पर विजय प्राप्त कर ले तो भी वह वास्तव मे पराजित ही है । कारण कि वह उन पदार्थो मे महत्वबुद्धि रखता है और अपने जीवन को उनके अधीन मानता है । शरीर से विजय तो पशु भी प्राप्त कर लेता है । पर वास्तविक विजय ह्रदय से वस्तु की अधीनता दूर होने पर प्राप्त होती है ।
                               Image result for gita saar    
16-पराजित वयक्ति ही दूसरे को पराजित करना चाहता है दूसरे को अपने आधीन बनाना चाहता है। वास्तव मे अपने को पराजित किये बिना कोइ दूसरे को पराजित कर ही नही सकता । जैसे कोइ राजा या विद्वान किसी दूसरे पर विजय प्राप्त  करना चाहता है तो उसे सबसे पहले अपनी सेना सामर्थ्य  बुद्धि आदि का सहारा लेना पड़ता है । यानी इनके आधिन होना पड़ता है।

17-मनुष्य मे दो प्रकार की इच्छाये होती है –सांसारिक अर्थात भोग एवं संग्रह की इच्छा और परमार्थिक अर्थात अपने कल्याण की इच्छा । इसमे भोग और संग्रह की इच्छा परधर्म अर्थात शरीर का धर्म है । क्योकि असत के साथ सम्बंध जोड़ते से ही भोग और संग्रह की इच्छा होती है । अपने कल्याण की इच्छा स्वधर्म है क्योकि परमात्मा का अंश होने से स्वयं की इच्छा परमात्मा की ही है,संसार की नही । 

18-स्थूल,सूक्ष्म,और कारण –तीनो शरीरो से किये जाने वाले तीर्थ व्रत दान तप चिन्तन ध्यान समाधि आदि समस्त शुभ कर्म सकामभाव से अर्थात अपने लिये करने पर परधर्म हो जत है और निष्काम भाव से अर्थात दूसरो के लिये करने पर स्वधर्म हो जाते है कारण कि स्वरुप निष्काम है और सकामभाव प्रकृति  के संबन्ध से  आता है। इसलिये कामना होने पर परधर्म होता है । स्वधर्म मुक्त करने वाला और परधर्म बांधने वाला होता है।

19-अपने प्रति कोइ अप्रिय एवं असत्य बोले तो वह बुरा लगता है और प्रिय एवं सत्य मधुर वचन बोले तो अच्छा लगता है । इसका अर्थ यह  हुआ कि अच्छे बुरे ,सदगुण दुरगुण,कर्तव्य अकर्तव्य आदि का ज्ञान अर्थात विवेक सभी मनुष्यो मे रहता है । परन्तु एसा होने पर भी वह अप्रिय असत्य बोलता है अपने कर्तव्य का पालन नही करता, तो इसका कारण यही है कि कामना ने उसका विवेक ढक दिया है ।

20-परमात्मा के लिये न तो कोई कर्तव्य है और न ही उन्हे कुछ पाना ही शेष है फिर भी वे समय-समय पर अवतार लेकर केवल संसार का हित करने के लिये सब कर्म करते है । इसलिये मनुष्य को भी केवल दुसरो के हित के लिये ही कर्तव्य कर्म करने चाहिए ।

Wednesday, 4 February 2015

pregnant women healthy tips

                       

 महिला के जीवन का सबसे  important period pregnancy का होता

 है । अनेक कठिनाइयो को सहकर प्रसव के समय भयंकर दर्द का

 सामना करते हुए शिशु को जन्म देती है। प्रत्येक महिला की

 इच्छा होती है वह संस्कारवान पुष्ट स्वस्थ बच्चे को जन्म दे ।

अपने स्वस्थ जीवन के लिए और अपनी होने वाली संतान के

 स्वस्थ,सुन्दर, संस्कारवान बनाने के लिये गर्भावस्था मे निम्न

 बातो का ध्यान रखना चाहिए।

1-गर्भवती महिला को हमेशा प्रसन्नचित रहना चाहिए क्रोध शोक

 दुःख से दूर रहे ।


2- गर्भिणी स्त्री का वातावरण शांतिप्रिय होना चाहिए जिससे

 शांतिप्रिय संतान का जन्म हो ।

3-मन मे कभी दुषित विचार न आने दे कभी किसी की निन्दा न

 करे,न सुने । किसी के प्रति ईष्या का भाव न रखे ।

4-किसी वस्तु को चोरी-चोरी खाने का प्रयास न करे न ही चोरी का

 भाव ही मन मे आने दे । हमेशा धार्मिक सात्विक  भाव रखे ।

 जैसे विचार या भाव होंगे वैसे ही गर्भ मे बच्चे की 

प्रकृति  निर्मित  होगी

5-अश्लील गन्दा साहित्य न पढे, न देखे । न ही अपने bedroom मे

 अश्लील गन्दे चित्र  लगाए, न ही tv mobail  पर देखे । भगवान

 संत महापुरुषो व स्वस्थ बच्चो के चित्र अपने bedroom मे लगाने

 चाहिए ।

6-सुद्ध सात्विक और जितनी भूख हो उससे कम भोजन करना

 चाहिए । सड़ा-गला व रात का बचा खाना कभी नही खाना चाहिए ।
7-दही मे बेसन मिलाकर उबट्न की तरह मलने से शरीर की बदबू

 चली जाती है ।

8-माता-पिता का रंग अगर काला हो तो गर्भावस्था के दौरान दो

 नारंगी का सेवन नित्य करना चाहिए ।

9-दिन मे सोये व रात को अधिक देर तक जागना नही चाहिए ।

10-सहवास से सर्वथा दूर रहे । इससे गर्भपात का डर रहता है

 इससे शिशु अल्पायु या विकृत  अंग वाला भी हो सकता है।

 गर्भवस्था के दौरान संयम व नियम से रहे ।

11-गर्भवती महिलाओ को बार-बार सीढ़िया  चढ़ना उतरना नही

 चाहिए ।

12-गर्भवस्था के दौरान अपना मन सदैव प्रसन्न रखना चाहिए ।

13-गर्भकाल के दौरान ढीले वस्त्र पहने चाहिए । tight कपड़ो से

 बच्चो के विकलांग  होने की सम्भावना रहती है।

14-ज्यादा समय खाली पेट नही रहना चाहिए नियमित समय पर

 थोड़ी-थोड़ी मात्रा मे भोजन लेते रहे ।

15-गर्भवती महिला को किसी भी प्रकार के मानसिक तनाव

 से बचना चाहिए इसका सीधा असर  शिशु पर पड़ता है । हमेशा

 प्रसन्न रहना चाहिए जिससे बच्चा स्वस्थ रहे । pregnancy

 period मे रक्तचाप सामान्य अवस्था से ज्यादा रहता है। एसे मे

 तनाव से एसे हार्मोन्स पैदा होते है जो शिशु के विकास पर सीधा  प्रभाव डालता है ।

16-व्ययाम सेहत के लिए अच्छा होता है मगर गर्भावस्था के दौरान

 अधिक थकाने वाला व्ययाम नही करना चाहिए अपनी क्षमता व

 अवस्था के अनुरुप ही हल्का व्ययाम करना चाहिए । दौड़ना

 अधिक वजन उठाना उछलना कुदने वाले व्यायाम आपके होने

 वाले बच्चे को नुकसान पहुँचा सकते है।

17-अपने खाने-पीने का विषेश ध्यान रखे असंतुलित खाना आपके

 व आपके बच्चे दोनो के स्वास्थ्य पर असर डाल सकता है ।

18-लम्बा  सफर नही करना चाहिए अगर किसी मजबूरी मे लम्बा

 सफर करना भी पड़े तो ध्यान रखे झटके न लगे ।

19-चाय-काफी का सेवन न करे तो ज्यादा अच्छा है क्योकि इसमे

 होने वाली कैफ़ीन आपके होने वाले बच्चे को नुकसान पहुचा

 सकती है।
20- कोइ भी medicine लेने से पूर्व doctor की सलाह अवश्य ले।





Featured post

· . प्रेम आत्मा का भोजन है।

     ·    ·  ....... प्रेम आत्मा का भोजन है। प्रेम आत्मा में छिपी परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग ...