मन तो गति है; ध्यान गति- मुक्ति है। मन तो चलता ही रहता है। मन का तो चलना ही जीवन है। जिस क्षण तुम्हारे भीतर मन नहीं चलता उस क्षण ध्यान है। कैसे वह अपूर्व घड़ी आए जब मन न चले? साक्षी की कुंजी है। बैठो! बैठकर देखते रहो। चलने दो मन को; न रोकना, न झगड़ना, न निंदा करना, न संग-साथ हो लेना। निरपेक्ष, तठस्थ! जैसे कुछ लेना -देना नहीं है-असंलग्न, दूर! जैसे मन कोई और है। जैसे राह पर चलते हुए लोग हैं। ऐसी दूरी अपने मन से कर के जो बैठ गया, धीरे – धीरे एक दिन पता है कि मन कभी-कभी रुक जाना है। क्षणभर को अंतरालों में आ जाते हैं। उन्हीं अंतरालों में गंगा फूटती है। उन्हीं अंतरालों में हरि का द्वार खुलता है। उन्हीं अंतरालों में कैलाश के दर्शन होते हैं। फिर अंतराल बड़े होने लगते हैं। फिर धीरे – धीरे वह अंतिम परम अवसर भी आ जाता है, जब मन सदा के लिए विदा हो जाता है।
हंसा तो मोती चुगैं, ओशो
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