प्रभु के मंदिर के दूसरे द्वार पर आज बात करनी है। वह दूसरा द्वार है मैत्री, फ्रेंडलीनेस। करुणा है पहला द्वार, मैत्री है दूसरा द्वार। करुणा है वर्षा के दिनों में आकाश में छाए हुए बादलों की भांति जो पानी से भरे हैं। मैत्री है उस पानी की भांति जो जमीन पर बरस आता है। आकाश में बादल छाते हैं पानी से भरे हुए, लेकिन पृथ्वी की प्यास उनसे नहीं बुझती है। जब तक कि पानी आकाश से पृथ्वी तक उतर न आए तब तक उसकी प्यास नहीं बुझती है। करुणा है हृदय में भरा हुआ बादल। जब तक वह मैत्री बन कर जगत तक पहुंच न जाए, फैल न जाए तब तक पूरे अर्थों में सार्थक नहीं होती।
करुणा है आत्मा, मैत्री है अभिव्यक्ति। करुणा है आत्मा, मैत्री है शरीर। करुणा है निराकार, मैत्री है साकार। करुणा अप्रकट है, जब तक वह मैत्री न बन जाए तब तक प्रकट नहीं होती। करुणा है ऐसा गीत जो कवि के मन में गूंजा हो और मैत्री है ऐसा गीत जो उसके ओंठों से प्रकट हो गया हो और गा दिया गया हो और सब तक पहुंच गया हो।
इसलिए मैत्री करुणा के बाद, ठीक से कहें तो मैत्री का अर्थ है सक्रिय करुणा, एक्टिव कंपेशन। जब करुणा सक्रिय हो जाती है तो मैत्री बन जाती है। लेकिन मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है। मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है, फ्रेंडशिप नहीं है। मैत्री का अर्थ है. फ्रेंडलीनेस। मैत्री का अर्थ है मित्रत्व। और इन दोनों में सबसे पहले फर्क समझ लेना जरूरी है। और यह फर्क बहुत गहरा है। आमतौर से हम समझेंगे कि मैत्री का अर्थ है मित्रता। नहीं, मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं—मित्रत्व। इनमें फर्क क्या होगा
मित्रता जब तक रहेगी तब तक शत्रुता भी रहेगी। जिनके कोई मित्र होते हैं उनके शत्रु भी होते हैं। मैत्री का अर्थ है वैर— भाव समाप्त हो गया। अब कोई शत्रुता शेष न रही। मित्रता में शत्रुता की गंध बाकी रहेगी, मैत्री में शत्रुता तिरोहित हो गई। अब कोई शत्रुता का सवाल न रहा। जो मित्र बनाता है वह शत्रु भी बना लेता है, लेकिन जो मैत्री— भाव को जगाता है उसका कोई शत्रु नहीं रह जाता। मित्रता में मित्र का गुण और योग्यता महत्वपूर्ण होते हैं। मैत्री— भाव में गुणों की, योग्यता की कोई अपेक्षा नहीं। मैं अगर आपसे मित्रता करूं तो आपकी योग्यता, आपके गुण महत्वपूर्ण होंगे, उनको देख कर मित्रता बनेगी। अगर वे गुण मिट जाएंगे तो शत्रुता आ जाएगी।
मित्रता आप पर निर्भर है, मित्रता दूसरे पर निर्भर है। मैत्री का भाव मुझ पर निर्भर है, दूसरे से उसका कोई संबंध नहीं। मैत्री मेरी अंतर्भाव—दशा है, इसलिए मैत्री को मैं कह रहा हूं मित्रत्व, फ्रेंडलीनेस—फ्रेंडशिप नहीं। यह मैत्री क्या है?
और मैंने कहा है कि मैत्री है सक्रिय करुणा। करुणा जब साकार हो उठती है, सगुण हो जाती है; करुणा जब सक्रिय हो उठती है और काम में संलग्न हो जाती है, तब वह मैत्री बनती है। पहले तो करुणा का जन्म होता है हृदय में, उतरती है वह। प्राण भर जाते हैं अनुकंपा से, कंपेशन से, करुणा से। जैसे बादल भर जाते हैं पानी से, फिर बादल बरसते हैं, फिर खाली करते हैं अपने को, उड़ेल देते हैं और तब पृथ्वी तक पहुंच पाते हैं, फिर बीज अंकुरित होते हैं, पृथ्वी की प्यास बुझती है। करुणा है हृदय में उठा हुआ बादल। फिर जब वह व्यक्तित्व के सब द्वारों से प्रकट होने लगता है, और व्यक्तित्व के सारे द्वारों से वे जल—स्रोत बहने लगते हैं और अनंत तक पहुंचने लगते हैं, तब वह मैत्री बन जाती है।
विवेकानंद अमरीका जाते थे। रामकृष्ण की तो मृत्यु हो गई थी। रामकृष्ण की पत्नी शारदा से वे आशा मांगने गए कि मैं जाता हूं परदेश, खबर ले जाना चाहता हूं— धर्म की, सत्य की। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं सफल होऊं।
शारदा तो ग्रामीण स्त्री थी। वे उससे आशीर्वाद लेने गए। उन्होंने सोचा भी न था कि शारदा आशीर्वाद देने में भी सोच—विचार करेगी। उसने विवेकानंद को नीचे से ऊपर तक देखा। वह अपने चौके में खाना बनाती थी। फिर बोली सोच कर बताऊंगी।
विवेकानंद ने कहा सिर्फ आशीर्वाद मांगने आया हूं शुभाशीष चाहता हूं तुम्हारी मंगलकामना कि मैं जाऊं और सफल होऊं।
उसने फिर उन्हें गौर से देखा और उसने कहा ठीक है। सोच कर कहूंगी।
विवेकानंद तो खड़े रह गए अवाक। कभी आशीर्वाद भी किसी ने सोच कर दिए हों और आशीर्वाद सिर्फ मांगते थे शिष्टाचारवश।
वह कुछ सोचती रही और फिर उसने कहा विवेकानंद को कि नरेन्द्र, वह जो सामने पड़ी हुई छुरी है, वह उठा लाओ।
सामने पड़ी हुई छुरी विवेकानंद उठा लाए और शारदा के हाथ में दी। हाथ में देते ही वह हंसी और उसकी हंसी से उन्हें आशीर्वाद बरस गए उनके ऊपर। उसने कहा कि जाओ। जाओ, तुमसे सबका मंगल ही होगा। विवेकानंद कहने लगे कि इस छुरी के उठाने में और तुम्हारे आशीर्वाद देने में कोई संबंध था क्या?
शारदा ने कहा संबंध था। मैं देखती थी कि छुरी उठा कर तुम किस भांति मुझे देते हो। मूठ तुम पकड़ते हो कि फलक तुम पकड़ते हो। मूठ मेरी तरफ करते हो कि फलक मेरी तरफ करते हो। और आश्चर्य कि विवेकानंद ने फलक अपने हाथ में पकड़ा था छुरी का और मूठ लकड़ी की शारदा की तरफ की थी।
आमतौर से शायद ही कोई फलक को पकड़ कर और मूठ दूसरे की तरफ करे। मूठ कोई पकड़ेगा सहज, खुद।
शारदा कहने लगी तुम्हारे मन में मैत्री का भाव है, तुम जाओ, तुमसे कल्याण होगा। तुमने फलक अपनी तरफ पकड़ा, मूठ मेरी तरफ। अपने को असुरक्षा में डाला। हाथ में चोट लग सकती है और मेरी सुरक्षा की फिकर की। तुम जाओ, आशीर्वाद मेरे तुम्हारे साथ हैं।
इतनी सी, छोटी सी घटना में मैत्री प्रकट होती है, साकार बनती है। बहुत छोटी सी घटना है! क्या है मूल्य इसका कि क्या पकड़ा आपने, फलक या मूठ? शायद हम सोचते भी नहीं। और सौ में निन्यानबे मौके पर कोई भी मूठ ही पकड़ता है। वह सहज मालूम होता है। अपनी रक्षा सहज मालूम होती है, आत्म—रक्षा सहज मालूम होती है।
मैत्री आत्म—रक्षा से भी ऊपर उठ जाती है। दूसरे की रक्षा, वह जो जीवन है हमारे चारों तरफ, उसकी रक्षा महत्वपूर्ण हो जाती है। मैत्री का अर्थ है. मुझसे भी ज्यादा मूल्यवान है सब—कुछ जो है।
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