एक भिखारी है, भीख मांगता है और उसकी आदत हो गई है भीख मांगने की। लेकिन किसने इसे भिखारी बनाया? लेकिन किसने इसे आदत डालने को मजबूर किया? लेकिन किसने इसे आज तक भिक्षा दी? हमने, मैंने, आपने!
यह भिखारी है, क्योंकि यह समाज भिखारी पैदा करने की व्यवस्था से बना हुआ है। इस भिखारी को आदत पड़ गई, क्योंकि यह समाज भिक्षा की आदत डलवाता है। ऋषि—मुनि, साधु—संन्यासी समझाते हैं कि भिक्षा से, दान से मोक्ष मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा, परमात्मा मिलेगा। जिस समाज में इस तरह के समझाने वाले लोग हैं कि भिक्षा देने से, दान देने से, गरीब को रोटी देने से मोक्ष मिलेगा उस समाज में कुछ गरीब दूसरे लोगों को मोक्ष पहुंचाने की अगर आदत डाल लें तो कोई आश्चर्य नहीं है। और यह समाज कैसा है जिसमें कि गरीब आदमी पैदा हो जाता है!
जिस समाज में गरीब आदमी पैदा हो जाता है उस समाज के सारे सदस्य उस गरीब आदमी के लिए जिम्मेवार हैं। जिस समाज में भीख मांगने की स्थिति में किसी मनुष्य की आत्मा को खड़े होना पड़ता है वह समाज निंदा के योग्य है, वह पूरा समाज निंदा के योग्य है। और जो आदमी सोचता है कि भिखारी को रोटी देकर मैं करुणा कर रहा हूं वह आदमी भी गलत सोचता है। क्योंकि भिखारी को दी गई रोटी से भिखारी नहीं मिटता है सिर्फ भिखारी को दी गई रोटी से भिखारी अपने भिखमंगेपन में भी संतुष्ट हो जाता है।
नहीं, जिनके मन करुणा से भरे हैं वे इस पूरे समाज को बदल देंगे जिसमें भिखारी पैदा होते हैं। भिखारी पर दया और करुणा का अर्थ एक ही है कि ऐसा समाज हम बनाएं जहां भिखारी पैदा न हो सकता हो। भिखारी को दान दे देने से इस भूल में आप मत पड़ना कि आप भिखारी पर करुणा कर रहे हैं।
सच तो यह है कि करुणा की आडू में आप भिखारी को संतुष्ट होने की व्यवस्था कर रहे हैं कि वह भीख मांगता रहे और संतुष्ट बना रहे। और जिस समाज में भीख मांगने वाला आदमी संतुष्ट हो जाता है उस समाज में क्रांति असंभव हो जाती है। ये दान देने वाले लोग, ये भिक्षा देने वाले लोग! इन्हें भिखारी के भिखमंगेपन से इन्हें उसकी दरिद्रता से कोई भी प्रयोजन नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि ये सारे दान और यह भिक्षा और ये धर्मशालाएं और ये मदिर—ये सब इसलिए खड़े हैं कि भिखारी और गरीब यह भी अहसास करता रहे कि यह समाज बहुत अच्छा है, हमें रोटी देता है, धर्मशाला बनाता है, कपड़े देता है, दवाई देता है। यह समाज बहुत अच्छा है!
और यह समाज उसे भिखारी बनाता है। यह उसे पता न चल पाए। उसे यह पता न चल पाए कि यह समाज ही उसका खून पीता है, उसे भिखारी बनाता है, और यही समाज उसे दो कौड़ी फेंक कर यह भी संतोष दिलवाता है कि समाज दानियों का है, अच्छे लोगों का है। इसका एकमात्र परिणाम यह होता है कि दरिद्र जो क्रांति कर सकता था, उसकी क्रांति मर जाती है और समाज जिंदा बना रहता है। वह समाज जिंदा बना रहता है जो कि बुनियादी रूप से गलत है, जहां गरीब पैदा होता है।
नहीं, जिनके मन में करुणा है वे एक ऐसा समाज बनाने का विचार करेंगे जहां गरीब का पैदा होना असंभव हो। मैं उनको करुणावान नहीं कहता जो एक गरीब को रोटी दे देते हैं। सवाल गरीबी मिटाने का है, एक गरीब को रोटी देने से गरीबी नहीं मिटती है और न गरीब को दरिद्रनारायण कहने से गरीबी मिटती है और न गरीब की पूजा करने से गरीबी मिटती है। गरीबी एक रोग है, गरीबी एक पाप है और पूरे समाज के माथे पर कलंक है। वह पूरी की पूरी गरीबी जिस व्यवस्था से पैदा होती है वह सारी व्यवस्था जला देने योग्य है।
जिनके मन में करुणा है वे समाज में क्रांति लाएंगे। दान की बातें खतरनाक, थोथी और शरारत से भरी हैं। उनका एक ही मतलब है कि किसी तरह का कसोलेशन, किसी तरह की सांत्वना गरीब को देते रहो, ताकि गरीब गरीब भी बना रहे, अमीर अमीर बना रहे और गरीब कभी इतना असंतुष्ट भी न हो जाए कि वह क्रांति करने को राजी हो जाए।
इसलिए अमीर की जो समाज—व्यवस्था है, धन की जो समाज—व्यवस्था है, शोषण की जो समाज— व्यवस्था है—हर शोषण की समाज—व्यवस्था दान की व्यवस्था भी पैदा करती है। वह दान की व्यवस्था, शोषण की व्यवस्था की सुरक्षा है। वह आयोजन है कि वहां शोषण भी चलता रहे और दान भी। और कभी किसी को यह खयाल भी पैदा न हो कि यह सारी दरिद्रता, ये भिखारी, ये भूखे मरते हुए लोग, यह हमारे समाज का जो ढांचा है, उसके अनिवार्य परिणाम हैं। और जब तक समाज का ढांचा नहीं बदलता, तब तक यह गरीब गरीब रहेगा, भिखारी रहेगा। भिखारी भीख मांगने का भी आदी होगा और लोग भीख भी देते रहेंगे।
नहीं, जिसकी करुणा गहरी है वह आर—पार देखेगा पूरी बात को कि यह गरीब कैसे पैदा होता है? यह भिखमंगा कैसे पैदा होता है? यह समाज कैसा है जिसमें एक आदमी अपनी आत्मा को इतना पतित करने के लिए मजबूर हो जाता है कि वह भीख मांगने की आदत बना ले? और जो लोग इस दरिद्र भिखारी को दान देकर सुख लेते है वे उस भिखारी से भी नीचे गिर रहे हैं कि इस गरीब आदमी को दो पैसे देकर एक आदमी कहता है कि मैंने स्वर्ग की व्यवस्था कर ली!
एक आदमी कहता है, मैं दानी हूं क्योंकि मैंने दस हजार भिखमंगों को खाना खिलाया। उन भिखमंगों से बदतर है इस आदमी की आत्मा, क्योंकि उनकी गरीबी का भी शोषण किया जा रहा है, उनकी गरीबी को भी रास्ता बनाया जा रहा है स्वर्ग तक पहुंचने का। उनकी दीनता का भी शोषण किया जा रहा है। उनका धन भी चूस लिया गया, उनकी दीनता भी शोषित की जा रही है। उनकी दीनता का भी एक उपयोग किया जा रहा है—कि स्वर्ग, मोक्ष, भगवान!
नहीं, करुणा—करुणा बहुत गहरी बात है, बहुत क्रांति की बात है। जगत में करुणा होगी तो ऐसा गंदा और कुरूप समाज एक दिन भी नहीं चल सकता है। यह पूरा समाज बदल देने जैसा है। एक—एक भिखारी का सवाल नहीं है, भिखारी पैदा करने वाली समाज की व्यवस्था का सवाल है। गरीब का सवाल नहीं है, गरीबी का सवाल है। गरीब आदमी का कोई सवाल नहीं है, सवाल है गरीबी का। गरीबी मिटानी है। भिखारी का सवाल नहीं है, सवाल है भिखमंगेपन का। भिखमंगापन क्यों पैदा होता है; उसे मिटा देना है। और वे लोग जो एक भिखारी को चार पैसे और एक रोटी देकर समझते हैं कि करुणा कर ली—करुणा बड़ी सस्ती समझ रहे हैं! बहुत सस्ते में खरीद लाए करुणा को एक रोटी देकर! करुणा इतनी सस्ती नहीं है।
अगर करुणा होती तो हम वह समाज ही मिटा देते। और जिस दिन करुणा होगी यह सारा समाज आमूल बदलना पड़ेगा। और इसलिए धर्मगुरु करुणा और अहिंसा की सब बातें करते हैं, लेकिन नहीं चाहते हैं कि जगत में करुणा सच में हो। क्योंकि करुणा बहुत क्रांतिकारी है, आग की तरह है, सारी जिंदगी को बदल देगी। इसलिए करुणा की बातें कही गई हैं और धोखा दिया गया है।
करुणा, अहिंसा, दया और प्रेम इन सब शब्दों के पीछे धोखा दिया गया। अहिंसा इसलिए नहीं कि किसी दूसरे आदमी को दुख पहुंचाना बुरा है। अहिंसा इसलिए कि दूसरे आदमी को दुख पहुंचाने से तुम्हें पाप लगेगा और तुम नरक के भागी हो जाओगे। अहिंसा के भी पीछे बुनियादी मतलब दूसरा है।
मतलब यह है कि मैं नरक न चला जाऊं, इसलिए अहिंसा। दूसरे के दुख से प्रयोजन नहीं है। अगर यह पता चल जाए कि दूसरे को दुख देने से नरक जाने की कोई जरूरत नहीं है, तो ये अहिंसा की बातें करने वाले लोग अहिंसा—वहिंसा की बातचीत बंद कर देंगे। अगर इनको पता चल जाए कि हिंसा से स्वर्ग पाया जा सकता है, तो ये बराबर हिंसा से स्वर्ग पा लेंगे। इन्हें स्वर्ग पाना है। चूंकि समझाया जाता है कि तुम्हारा स्वर्ग छिन जाएगा, इसलिए अहिंसा करनी जरूरी है।’ अहिंसा’ शब्द सूचना देता है अपने ही अहंकार की तृप्ति की।
नहीं, इस तरह की अहिंसा न प्रेम है, न करुणा।
~ ओशो