Saturday, 12 September 2015

जीवन एक आनंद हो जाता है

भीतर 'ध्यान' का दिया जला हो तो तुम चाहे पहाड़ पर रहो या बाज़ार में,
कोई अंतर नहीं पड़ता,
तुम्हारे पास 'ध्यान' हो तो कोई गाली तुम्हे छूती नहीं !
ना अपमान, ना सम्मान, ना यश, ना अपयश, कुछ भी नहीं छूता।
अंगारा नदी में फेंक कर देखो,
जब तक नदी को नहीं छुआ तभी तक अंगारा है, नदी को छूते ही बुझ जाता हैं।
तुम्हारे ध्यान की नदी में, सब गालियाँ, अपमान, छूते ही मिट जाते हैं।
तुम दूर अछूते खड़े रह जाते हो।
इसी को परम स्वतंत्रता कहते हैं ! जब बाहर की कोई वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, तुम्हारे भीतर की शान्ति और शून्य को डिगाने में अक्षम हो जाती है। तब जीवन एक आनंद हो जाता है।।

"ओशो"

Wednesday, 9 September 2015

काम वासना से मुक्ति

काम वासना से मुक्ति
प्रश्न—किसी ने पूछा कि वह सेक्स से थक गया है।
सेक्स थकान लाता है। इसीलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि
इसकी अवहेलना मत करो, जब तक तुम इसके
पागलपन को नहीं जान लेते, तुम इससे छुटकारा
नहीं पा सकते। जब तक तुम इसकी
व्यर्थता को नहीं पहचान लेते तब तक बदलाव
असंभव है।
यह अच्छा है कि तुम सेक्स से तंग आते जा रहे हो और वह
स्वाभाविक भी है। सेक्स का अर्थ ही
यह है कि तुम्हारी ऊर्जा नीचे
की ओर बहती जा रही है
तुम ऊर्जा गँवा रहे हो। ऊर्जा को ऊपर की ओर जाना
चाहिए तब यह तुम्हारा पोषण करती है, तब यह
शक्ति लाती है। तुम्हारे भीतर
कभी न थकने वाली ऊर्जा के स्रोत बहने
शुरू हो जाते हैं- एस धम्मो सनंतनो। लेकिन यदि लगातार पागलों
की तरह सेक्स करते ही चले जाते हो तो
यह ऊर्जा का दुरुपयोग होगा। शीघ्र तुम अपने आपको
थका हुआ और निरर्थक पाओगे।
मनुष्य कब तक मूर्खताएँ करता चला जा सकता है। एक दिन
अवश्य सोचता है कि वह अपने साथ क्या कर रहा है क्योंकि
जीवन में सेक्स से अधिक महत्वपूर्ण और कई
चीजें हैं। सेक्स ही सब कुछ
नहीं होता। सेक्स सार्थक है परंतु सर्वोपरि
नहीं रखा जा सकता। यदि तुम इसी के जाल
में फँसे रहे तो तुम जीवन की अन्य
सुन्दरताओं से वंचित रह जाओगे। और मैं कोई सेक्स
विरोधी नहीं हूँ, इसे याद रखें।
इसीलिए मेरी कही बातों में
विरोधाभास झलकता है, परंतु सत्य विरोधाभासी
ही होता है।
मैं इसमें कुछ नहीं कह सकता। मैं बिलकुल
भी सेक्स विरोधी नहीं हूँ।
क्योंकि जो लोग सेक्स का विरोध करेंगे वे काम वासना में फँसे रहेंगे।
मैं सेक्स के पक्ष में हूँ क्योंकि यदि तुम सेक्स में गहरे चले गए
तो तुम शीघ्र ही इससे मुक्त हो सकते
हो। जितनी सजगता से तुम सेक्स में उतरोगे
उतनी ही शीघ्रता से तुम
इससे मुक्ति भी पा जाओगे। और वह दिन
भाग्यशाली होगा जिस दिन तुम सेक्स से
पूरी तरह मुक्त हो जाओगे।
यह अच्छा ही है कि तुम सेक्स से थक जाते हो,
अब किसी डॉक्टर के पास कोई दवा लेने मत चले जाना।
यह कुछ भी सहायता नहीं कर
पाएगी...ज्यादा से ज्यादा यह तुम्हारी
इतनी ही मदद कर सकती है
कि अभी नहीं तो जरा और बाद में थकना
शुरू हो जाओगे। अगर तुम वास्तव में ही सेक्स से
थक चुके हो तो यह एक ऐसा अवसर बन सकता है कि तुम इसमें
से बाहर छलाँग लगा सको।
काम वासना में अपने आपको घसीटते चले जाने में क्या
अर्थ है? इसमें से बाहर निकलो। और मैं तुम्हें इसका दमन करने
के लिए नहीं कह रहा हूँ। यदि काम वासना में जाने
की तुम्हारी इच्छा में बल हो और तुम
सेक्स में नहीं जाओ तो यह दमन होगा, लेकिन जब
तुम सेक्स से तंग आ चुके हो या थक चुके हो और
इसकी व्यर्थता जान ली है तब तुम
सेक्स को दबाए बगैर इससे छुटकारा पा सकते हो और सेक्स का
दमन किए बिना जब तुम इससे बाहर हो जाते हो तो इससे मुक्त हो
जाते हो।
काम वासना से मुक्त होना एक बहुत बड़ा अनुभव है। काम से
मुक्त होते ही तुम्हारी ऊर्जा ध्यान और
समाधि की ओर प्रेरित हो जाती है।
ओशो; धम्मपद : दि वे ऑफ दि बुद्धा

मेरा प्रेम स्वभाव है।

एक आदमी ने बुद्ध के मुंह पर थूक दिया। उन्होंने अपनी चादर से थूक पोंछ लिया। और उस आदमी से कहा, कुछ और कहना है? क्योंकि बुद्ध ने कहा, यह भी तेरा कुछ कहना है, वह मैं समझ गया; कुछ और कहना है? आनंद तो बहुत क्रोधित हो गया, उनका शिष्य। वह कहने लगा, यह सीमा के बाहर बात हो गयी। आप पर, और कोई थूक दे, और हम बैठे देखते रहें? जान लेने-देने का सवाल हो गया। आप आज्ञा दें, मैं इस आदमी को ठीक करूं। क्षत्रिय था आनंद। बुद्ध का चचेरा भाई था। योद्धा रह चुका था। उसकी भुजाएं फड़क उठीं। उसने कहा कि हो गया बहुत। वह भूल ही गया कि हम भिक्षु हैं, संन्यासी हैं।
बुद्ध ने कहा कि उसने जो किया वह क्षम्य है। तू जो कर रहा है वह और भी खतरनाक है। उसने कुछ किया नहीं है, सिर्फ कहा है। तुझे समझ नहीं आता है आनंद, कभी ऐसी घड़ियां होती हैं जब तुम कुछ कहना चाहते हो, लेकिन कह नहीं सकते, शब्द छोटे पड़ जाते हैं। किसी को हम गले लगा लेते हैं। कहना चाहते थे, लेकिन इतना ही कहने से कुछ काम न चलता कि मुझे बहुत प्रेम है-बहुत साधारण मालूम होता है-गले लगा लेते हैं। गले लगाकर कहते हैं। इस आदमी को क्रोध था, यह गाली देना चाहता था, लेकिन गाली इसको कोई मजबूत न मिली। इसने थूककर कहा। बात समझ में आ गयी। हम समझ गए इसने क्या कहा। अब इसमें झगड़े की क्या बात है? इससे हम पूछते हैं, आगे और क्या कहना है?
वह आदमी शर्मिंदा हुआ। वह बुद्ध के चरणों पर गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे क्षमा कर दें। मैं बड़ा अपराधी हूं। और आज तक तो आपका प्रेम मुझ पर था, अब मैंने अपने हाथ से प्रेम गंवा दिया।
बुद्ध ने कहा, तू उसकी फिकर मत कर, क्योंकि मैं तुझे इसलिए थोड़े ही प्रेम करता था कि तू मेरे ऊपर थूका नहीं था।
बुद्ध का वचन सुनने जैसा है : मैं इसलिए थोड़े ही तुझे प्रेम करता था कि तू मेरे ऊपर थूकता नहीं था। अगर इसीलिए प्रेम करता था, तो थूकनें से टूट जाएगा। मैं तुझे प्रेम करता था क्योंकि और कुछ मैं कर ही नहीं सकता हूं। वह मेरा स्वभाव है। तू थूकता है कि नहीं थूकता है, यह तेरी तू जान। तू मेरे प्रेम को लेता है या नहीं लेता है, यह भी तेरी तू जान। लेकिन मुझसे प्रेम वैसा ही है जैसे कि फूल खिलता है और गंध बिखर जाती है। अब दुश्मन पास से गुजरता है, तो उसके नासापुटों को भी भर देती है। वह खुद की रूमाल लगा ले, बात अलग। मित्र निकलता है, उसके नासापुटों को भी भर देती है। मित्र थोड़ी देर ठहर जाए फूल के पास और उसके आनंद में भागीदार हो जाए, बात अलग। कोई न निकले रास्ते से तो भी गंध गिरती रहती है, सूने एकांत में। तो बुद्ध ने कहा, मेरा प्रेम स्वभाव है।
एस धम्मो सनंतनो, ओशो

Monday, 7 September 2015

सुकरात का पत्नी परेम

सुकरात जैसे महापुरुष की पत्नी भी सुकरात से नाखुश थी, बहुत नाखुश थी क्यों? क्योंकि वह दार्शनिक ऊहापोह में ऐसा लीन हो जाता था कि भूल ही जाता था कि पत्नी भी है। एक दिन तो दार्शनिक चर्चा में ऐसा लीन था कि चाय ही पीना भूल गया सुबह की। पत्नी को तो ऐसा क्रोध आया, चाय बनाकर बैठी है और वह बाहर बैठा चर्चा कर रहा है अपने शिष्यों के साथ, उसके क्रोध की सीमा न रही, वह भरी हुई केतली को लाकर उसके सिर पर उंडेल दिया। उसका आधा मुंह जल गया। जीवन- भर उसका मुंह जला रहा। वह आधा हिस्सा काला हो गया।

लेकिन सुकरात सिर्फ हंसा। उसके शिष्यों ने पूछा : आप हंसते हैं इस पीड़ा में! उसने कहा : नहीं, मैं इसलिए हंसता हूं कि स्त्री का मन हमने कितना छोटा कर दिया है! उसके लिये दर्शन भी, यह दर्शन का ऊहापोह भी ऐसा लगता है जैसे कोई सौतेली पत्नी। उसने मेरे ऊपर नहीं डाली यह चाय, मैं तो सिर्फ निमित्त हूं। अगर दर्शनशास्त्र उसे मिल जाये कहीं तो गर्दन काट ले। दर्शनशास्त्र कहीं मिल नहीं सकता, इसलिए मैं तो सिर्फ बहाना हूं।

किसी ने सुकरात से पूछा-एक युवक ने-कि मैं विवाह करने का सोचता हूं। सोचा आपसे ज्यादा अनुभवी और कौन होगा! विचार में भी आप अंतिम शिखर हैं आप जीवन के भी सब मीठे -कडुवे अनुभव आपके हैं। क्या सलाह देते हैं?

तुम चकित होओगे सुकरात की सलाह सुनकर। सुकरात ने कहा। विवाह करो। वह युवक बोला : आप, और कहते हैं विवाह करूं! और मुझे सारी कथायें पता हैं। आपकी पत्नी जेनथिप्पे और आपके बीच जो घटता है रोज-रोज, वह सब मुझे पता है। वे अफवाहें मुझ तक भी पहुंची हैं। उनमें से अगर एक प्रतिशत भी सच है तो भी पर्याप्त है विवाह न करने के लिए।

सुकरात ने कहा : उसमें से सौ प्रतिशत सत्य है, लेकिन फिर भी तुमसे कहता हूं विवाह करो, विवाह के लाभ ही लाभ हैं!

उस युवक ने कहा : जरा मैं सुनूं? कौन-से लाभ हैं? सुकरात ने कहा : अगर अच्छी पत्नी मिली, समझदार पत्नी मिली, तो प्रेम का विस्तार होगा। और प्रेम का विस्तार इस जगत में सबसे बड़ा लाभ है। और अगर मेरी जैसी पत्नी मिल गई तो वैराग्य का उदय होगा। और वैराग्य तो राग से भी ऊपर है। वह तो प्रेम की पराकाष्ठा है। वह तो परमात्मा से प्रेम है। दोनों हालत में तुम लाभ ही लाभ में रहोगे।

हंसा तो मोती चुगैं, ओशो

मन तो गति है; ध्यान गति- मुक्ति है।

मन तो गति है; ध्यान गति- मुक्ति है। मन तो चलता ही रहता है। मन का तो चलना ही जीवन है। जिस क्षण तुम्हारे भीतर मन नहीं चलता उस क्षण ध्यान है। कैसे वह अपूर्व घड़ी आए जब मन न चले? साक्षी की कुंजी है। बैठो! बैठकर देखते रहो। चलने दो मन को; न रोकना, न झगड़ना, न निंदा करना, न संग-साथ हो लेना। निरपेक्ष, तठस्थ! जैसे कुछ लेना -देना नहीं है-असंलग्न, दूर! जैसे मन कोई और है। जैसे राह पर चलते हुए लोग हैं। ऐसी दूरी अपने मन से कर के जो बैठ गया, धीरे – धीरे एक दिन पता है कि मन कभी-कभी रुक जाना है। क्षणभर को अंतरालों में आ जाते हैं। उन्हीं अंतरालों में गंगा फूटती है। उन्हीं अंतरालों में हरि का द्वार खुलता है। उन्हीं अंतरालों में कैलाश के दर्शन होते हैं। फिर अंतराल बड़े होने लगते हैं। फिर धीरे – धीरे वह अंतिम परम अवसर भी आ जाता है, जब मन सदा के लिए विदा हो जाता है।

हंसा तो मोती चुगैं, ओशो

मंदिर का दूसरा द्वार: मैत्री

प्रभु के मंदिर के दूसरे द्वार पर आज बात करनी है। वह दूसरा द्वार है मैत्री, फ्रेंडलीनेस। करुणा है पहला द्वार, मैत्री है दूसरा द्वार। करुणा है वर्षा के दिनों में आकाश में छाए हुए बादलों की भांति जो पानी से भरे हैं। मैत्री है उस पानी की भांति जो जमीन पर बरस आता है। आकाश में बादल छाते हैं पानी से भरे हुए, लेकिन पृथ्वी की प्यास उनसे नहीं बुझती है। जब तक कि पानी आकाश से पृथ्वी तक उतर न आए तब तक उसकी प्यास नहीं बुझती है। करुणा है हृदय में भरा हुआ बादल। जब तक वह मैत्री बन कर जगत तक पहुंच न जाए, फैल न जाए तब तक पूरे अर्थों में सार्थक नहीं होती।
करुणा है आत्मा, मैत्री है अभिव्यक्ति। करुणा है आत्मा, मैत्री है शरीर। करुणा है निराकार, मैत्री है साकार। करुणा अप्रकट है, जब तक वह मैत्री न बन जाए तब तक प्रकट नहीं होती। करुणा है ऐसा गीत जो कवि के मन में गूंजा हो और मैत्री है ऐसा गीत जो उसके ओंठों से प्रकट हो गया हो और गा दिया गया हो और सब तक पहुंच गया हो।
इसलिए मैत्री करुणा के बाद, ठीक से कहें तो मैत्री का अर्थ है सक्रिय करुणा, एक्टिव कंपेशन। जब करुणा सक्रिय हो जाती है तो मैत्री बन जाती है। लेकिन मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है। मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है, फ्रेंडशिप नहीं है। मैत्री का अर्थ है. फ्रेंडलीनेस। मैत्री का अर्थ है मित्रत्व। और इन दोनों में सबसे पहले फर्क समझ लेना जरूरी है। और यह फर्क बहुत गहरा है। आमतौर से हम समझेंगे कि मैत्री का अर्थ है मित्रता। नहीं, मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं—मित्रत्व। इनमें फर्क क्या होगा
मित्रता जब तक रहेगी तब तक शत्रुता भी रहेगी। जिनके कोई मित्र होते हैं उनके शत्रु भी होते हैं। मैत्री का अर्थ है वैर— भाव समाप्त हो गया। अब कोई शत्रुता शेष न रही। मित्रता में शत्रुता की गंध बाकी रहेगी, मैत्री में शत्रुता तिरोहित हो गई। अब कोई शत्रुता का सवाल न रहा। जो मित्र बनाता है वह शत्रु भी बना लेता है, लेकिन जो मैत्री— भाव को जगाता है उसका कोई शत्रु नहीं रह जाता। मित्रता में मित्र का गुण और योग्यता महत्वपूर्ण होते हैं। मैत्री— भाव में गुणों की, योग्यता की कोई अपेक्षा नहीं। मैं अगर आपसे मित्रता करूं तो आपकी योग्यता, आपके गुण महत्वपूर्ण होंगे, उनको देख कर मित्रता बनेगी। अगर वे गुण मिट जाएंगे तो शत्रुता आ जाएगी।
मित्रता आप पर निर्भर है, मित्रता दूसरे पर निर्भर है। मैत्री का भाव मुझ पर निर्भर है, दूसरे से उसका कोई संबंध नहीं। मैत्री मेरी अंतर्भाव—दशा है, इसलिए मैत्री को मैं कह रहा हूं मित्रत्व, फ्रेंडलीनेस—फ्रेंडशिप नहीं। यह मैत्री क्या है?
और मैंने कहा है कि मैत्री है सक्रिय करुणा। करुणा जब साकार हो उठती है, सगुण हो जाती है; करुणा जब सक्रिय हो उठती है और काम में संलग्न हो जाती है, तब वह मैत्री बनती है। पहले तो करुणा का जन्म होता है हृदय में, उतरती है वह। प्राण भर जाते हैं अनुकंपा से, कंपेशन से, करुणा से। जैसे बादल भर जाते हैं पानी से, फिर बादल बरसते हैं, फिर खाली करते हैं अपने को, उड़ेल देते हैं और तब पृथ्वी तक पहुंच पाते हैं, फिर बीज अंकुरित होते हैं, पृथ्वी की प्यास बुझती है। करुणा है हृदय में उठा हुआ बादल। फिर जब वह व्यक्तित्व के सब द्वारों से प्रकट होने लगता है, और व्यक्तित्व के सारे द्वारों से वे जल—स्रोत बहने लगते हैं और अनंत तक पहुंचने लगते हैं, तब वह मैत्री बन जाती है।
विवेकानंद अमरीका जाते थे। रामकृष्ण की तो मृत्यु हो गई थी। रामकृष्ण की पत्नी शारदा से वे आशा मांगने गए कि मैं जाता हूं परदेश, खबर ले जाना चाहता हूं— धर्म की, सत्य की। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं सफल होऊं।
शारदा तो ग्रामीण स्त्री थी। वे उससे आशीर्वाद लेने गए। उन्होंने सोचा भी न था कि शारदा आशीर्वाद देने में भी सोच—विचार करेगी। उसने विवेकानंद को नीचे से ऊपर तक देखा। वह अपने चौके में खाना बनाती थी। फिर बोली सोच कर बताऊंगी।
विवेकानंद ने कहा सिर्फ आशीर्वाद मांगने आया हूं शुभाशीष चाहता हूं तुम्हारी मंगलकामना कि मैं जाऊं और सफल होऊं।
उसने फिर उन्हें गौर से देखा और उसने कहा ठीक है। सोच कर कहूंगी।
विवेकानंद तो खड़े रह गए अवाक। कभी आशीर्वाद भी किसी ने सोच कर दिए हों और आशीर्वाद सिर्फ मांगते थे शिष्टाचारवश।
वह कुछ सोचती रही और फिर उसने कहा विवेकानंद को कि नरेन्द्र, वह जो सामने पड़ी हुई छुरी है, वह उठा लाओ।
सामने पड़ी हुई छुरी विवेकानंद उठा लाए और शारदा के हाथ में दी। हाथ में देते ही वह हंसी और उसकी हंसी से उन्हें आशीर्वाद बरस गए उनके ऊपर। उसने कहा कि जाओ। जाओ, तुमसे सबका मंगल ही होगा। विवेकानंद कहने लगे कि इस छुरी के उठाने में और तुम्हारे आशीर्वाद देने में कोई संबंध था क्या?

शारदा ने कहा संबंध था। मैं देखती थी कि छुरी उठा कर तुम किस भांति मुझे देते हो। मूठ तुम पकड़ते हो कि फलक तुम पकड़ते हो। मूठ मेरी तरफ करते हो कि फलक मेरी तरफ करते हो। और आश्चर्य कि विवेकानंद ने फलक अपने हाथ में पकड़ा था छुरी का और मूठ लकड़ी की शारदा की तरफ की थी।
आमतौर से शायद ही कोई फलक को पकड़ कर और मूठ दूसरे की तरफ करे। मूठ कोई पकड़ेगा सहज, खुद।
शारदा कहने लगी तुम्हारे मन में मैत्री का भाव है, तुम जाओ, तुमसे कल्याण होगा। तुमने फलक अपनी तरफ पकड़ा, मूठ मेरी तरफ। अपने को असुरक्षा में डाला। हाथ में चोट लग सकती है और मेरी सुरक्षा की फिकर की। तुम जाओ, आशीर्वाद मेरे तुम्हारे साथ हैं।
इतनी सी, छोटी सी घटना में मैत्री प्रकट होती है, साकार बनती है। बहुत छोटी सी घटना है! क्या है मूल्य इसका कि क्या पकड़ा आपने, फलक या मूठ? शायद हम सोचते भी नहीं। और सौ में निन्यानबे मौके पर कोई भी मूठ ही पकड़ता है। वह सहज मालूम होता है। अपनी रक्षा सहज मालूम होती है, आत्म—रक्षा सहज मालूम होती है।
मैत्री आत्म—रक्षा से भी ऊपर उठ जाती है। दूसरे की रक्षा, वह जो जीवन है हमारे चारों तरफ, उसकी रक्षा महत्वपूर्ण हो जाती है। मैत्री का अर्थ है. मुझसे भी ज्यादा मूल्यवान है सब—कुछ जो है।

इस तरह की अहिंसा न प्रेम है, न करुणा।

एक भिखारी है, भीख मांगता है और उसकी आदत हो गई है भीख मांगने की। लेकिन किसने इसे भिखारी बनाया? लेकिन किसने इसे आदत डालने को मजबूर किया? लेकिन किसने इसे आज तक भिक्षा दी? हमने, मैंने, आपने!

यह भिखारी है, क्योंकि यह समाज भिखारी पैदा करने की व्यवस्था से बना हुआ है। इस भिखारी को आदत पड़ गई, क्योंकि यह समाज भिक्षा की आदत डलवाता है। ऋषि—मुनि, साधु—संन्यासी समझाते हैं कि भिक्षा से, दान से मोक्ष मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा, परमात्मा मिलेगा। जिस समाज में इस तरह के समझाने वाले लोग हैं कि भिक्षा देने से, दान देने से, गरीब को रोटी देने से मोक्ष मिलेगा उस समाज में कुछ गरीब दूसरे लोगों को मोक्ष पहुंचाने की अगर आदत डाल लें तो कोई आश्चर्य नहीं है। और यह समाज कैसा है जिसमें कि गरीब आदमी पैदा हो जाता है!

जिस समाज में गरीब आदमी पैदा हो जाता है उस समाज के सारे सदस्य उस गरीब आदमी के लिए जिम्मेवार हैं। जिस समाज में भीख मांगने की स्थिति में किसी मनुष्य की आत्मा को खड़े होना पड़ता है वह समाज निंदा के योग्य है, वह पूरा समाज निंदा के योग्य है। और जो आदमी सोचता है कि भिखारी को रोटी देकर मैं करुणा कर रहा हूं वह आदमी भी गलत सोचता है। क्योंकि भिखारी को दी गई रोटी से भिखारी नहीं मिटता है सिर्फ भिखारी को दी गई रोटी से भिखारी अपने भिखमंगेपन में भी संतुष्ट हो जाता है।

नहीं, जिनके मन करुणा से भरे हैं वे इस पूरे समाज को बदल देंगे जिसमें भिखारी पैदा होते हैं। भिखारी पर दया और करुणा का अर्थ एक ही है कि ऐसा समाज हम बनाएं जहां भिखारी पैदा न हो सकता हो। भिखारी को दान दे देने से इस भूल में आप मत पड़ना कि आप भिखारी पर करुणा कर रहे हैं।

सच तो यह है कि करुणा की आडू में आप भिखारी को संतुष्ट होने की व्यवस्था कर रहे हैं कि वह भीख मांगता रहे और संतुष्ट बना रहे। और जिस समाज में भीख मांगने वाला आदमी संतुष्ट हो जाता है उस समाज में क्रांति असंभव हो जाती है। ये दान देने वाले लोग, ये भिक्षा देने वाले लोग! इन्हें भिखारी के भिखमंगेपन से इन्हें उसकी दरिद्रता से कोई भी प्रयोजन नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि ये सारे दान और यह भिक्षा और ये धर्मशालाएं और ये मदिर—ये सब इसलिए खड़े हैं कि भिखारी और गरीब यह भी अहसास करता रहे कि यह समाज बहुत अच्छा है, हमें रोटी देता है, धर्मशाला बनाता है, कपड़े देता है, दवाई देता है। यह समाज बहुत अच्छा है!

और यह समाज उसे भिखारी बनाता है। यह उसे पता न चल पाए। उसे यह पता न चल पाए कि यह समाज ही उसका खून पीता है, उसे भिखारी बनाता है, और यही समाज उसे दो कौड़ी फेंक कर यह भी संतोष दिलवाता है कि समाज दानियों का है, अच्छे लोगों का है। इसका एकमात्र परिणाम यह होता है कि दरिद्र जो क्रांति कर सकता था, उसकी क्रांति मर जाती है और समाज जिंदा बना रहता है। वह समाज जिंदा बना रहता है जो कि बुनियादी रूप से गलत है, जहां गरीब पैदा होता है।

नहीं, जिनके मन में करुणा है वे एक ऐसा समाज बनाने का विचार करेंगे जहां गरीब का पैदा होना असंभव हो। मैं उनको करुणावान नहीं कहता जो एक गरीब को रोटी दे देते हैं। सवाल गरीबी मिटाने का है, एक गरीब को रोटी देने से गरीबी नहीं मिटती है और न गरीब को दरिद्रनारायण कहने से गरीबी मिटती है और न गरीब की पूजा करने से गरीबी मिटती है। गरीबी एक रोग है, गरीबी एक पाप है और पूरे समाज के माथे पर कलंक है। वह पूरी की पूरी गरीबी जिस व्यवस्था से पैदा होती है वह सारी व्यवस्था जला देने योग्य है।

जिनके मन में करुणा है वे समाज में क्रांति लाएंगे। दान की बातें खतरनाक, थोथी और शरारत से भरी हैं। उनका एक ही मतलब है कि किसी तरह का कसोलेशन, किसी तरह की सांत्वना गरीब को देते रहो, ताकि गरीब गरीब भी बना रहे, अमीर अमीर बना रहे और गरीब कभी इतना असंतुष्ट भी न हो जाए कि वह क्रांति करने को राजी हो जाए।

इसलिए अमीर की जो समाज—व्यवस्था है, धन की जो समाज—व्यवस्था है, शोषण की जो समाज— व्यवस्था है—हर शोषण की समाज—व्यवस्था दान की व्यवस्था भी पैदा करती है। वह दान की व्यवस्था, शोषण की व्यवस्था की सुरक्षा है। वह आयोजन है कि वहां शोषण भी चलता रहे और दान भी। और कभी किसी को यह खयाल भी पैदा न हो कि यह सारी दरिद्रता, ये भिखारी, ये भूखे मरते हुए लोग, यह हमारे समाज का जो ढांचा है, उसके अनिवार्य परिणाम हैं। और जब तक समाज का ढांचा नहीं बदलता, तब तक यह गरीब गरीब रहेगा, भिखारी रहेगा। भिखारी भीख मांगने का भी आदी होगा और लोग भीख भी देते रहेंगे।

नहीं, जिसकी करुणा गहरी है वह आर—पार देखेगा पूरी बात को कि यह गरीब कैसे पैदा होता है? यह भिखमंगा कैसे पैदा होता है? यह समाज कैसा है जिसमें एक आदमी अपनी आत्मा को इतना पतित करने के लिए मजबूर हो जाता है कि वह भीख मांगने की आदत बना ले? और जो लोग इस दरिद्र भिखारी को दान देकर सुख लेते है वे उस भिखारी से भी नीचे गिर रहे हैं कि इस गरीब आदमी को दो पैसे देकर एक आदमी कहता है कि मैंने स्वर्ग की व्यवस्था कर ली!

एक आदमी कहता है, मैं दानी हूं क्योंकि मैंने दस हजार भिखमंगों को खाना खिलाया। उन भिखमंगों से बदतर है इस आदमी की आत्मा, क्योंकि उनकी गरीबी का भी शोषण किया जा रहा है, उनकी गरीबी को भी रास्ता बनाया जा रहा है स्वर्ग तक पहुंचने का। उनकी दीनता का भी शोषण किया जा रहा है। उनका धन भी चूस लिया गया, उनकी दीनता भी शोषित की जा रही है। उनकी दीनता का भी एक उपयोग किया जा रहा है—कि स्वर्ग, मोक्ष, भगवान!

नहीं, करुणा—करुणा बहुत गहरी बात है, बहुत क्रांति की बात है। जगत में करुणा होगी तो ऐसा गंदा और कुरूप समाज एक दिन भी नहीं चल सकता है। यह पूरा समाज बदल देने जैसा है। एक—एक भिखारी का सवाल नहीं है, भिखारी पैदा करने वाली समाज की व्यवस्था का सवाल है। गरीब का सवाल नहीं है, गरीबी का सवाल है। गरीब आदमी का कोई सवाल नहीं है, सवाल है गरीबी का। गरीबी मिटानी है। भिखारी का सवाल नहीं है, सवाल है भिखमंगेपन का। भिखमंगापन क्यों पैदा होता है; उसे मिटा देना है। और वे लोग जो एक भिखारी को चार पैसे और एक रोटी देकर समझते हैं कि करुणा कर ली—करुणा बड़ी सस्ती समझ रहे हैं! बहुत सस्ते में खरीद लाए करुणा को एक रोटी देकर! करुणा इतनी सस्ती नहीं है।

अगर करुणा होती तो हम वह समाज ही मिटा देते। और जिस दिन करुणा होगी यह सारा समाज आमूल बदलना पड़ेगा। और इसलिए धर्मगुरु करुणा और अहिंसा की सब बातें करते हैं, लेकिन नहीं चाहते हैं कि जगत में करुणा सच में हो। क्योंकि करुणा बहुत क्रांतिकारी है, आग की तरह है, सारी जिंदगी को बदल देगी। इसलिए करुणा की बातें कही गई हैं और धोखा दिया गया है।

करुणा, अहिंसा, दया और प्रेम इन सब शब्दों के पीछे धोखा दिया गया। अहिंसा इसलिए नहीं कि किसी दूसरे आदमी को दुख पहुंचाना बुरा है। अहिंसा इसलिए कि दूसरे आदमी को दुख पहुंचाने से तुम्हें पाप लगेगा और तुम नरक के भागी हो जाओगे। अहिंसा के भी पीछे बुनियादी मतलब दूसरा है।

मतलब यह है कि मैं नरक न चला जाऊं, इसलिए अहिंसा। दूसरे के दुख से प्रयोजन नहीं है। अगर यह पता चल जाए कि दूसरे को दुख देने से नरक जाने की कोई जरूरत नहीं है, तो ये अहिंसा की बातें करने वाले लोग अहिंसा—वहिंसा की बातचीत बंद कर देंगे। अगर इनको पता चल जाए कि हिंसा से स्वर्ग पाया जा सकता है, तो ये बराबर हिंसा से स्वर्ग पा लेंगे। इन्हें स्वर्ग पाना है। चूंकि समझाया जाता है कि तुम्हारा स्वर्ग छिन जाएगा, इसलिए अहिंसा करनी जरूरी है।’ अहिंसा’ शब्द सूचना देता है अपने ही अहंकार की तृप्ति की।

नहीं, इस तरह की अहिंसा न प्रेम है, न करुणा।

~ ओशो

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