Friday, 22 May 2015

osho ke prvachan

ओशो प्रवचन
तुम्हारी सारी पूजा और आराधना नकली है क्योँ कि असली पूजा तो जीवन जीना है , वह पूजा या आराधना नहीँ है । जीना और क्षण प्रतिक्षण जीना -- और इस प्रमाणिक रूप से जीने मेँ ही कोई एक जानता है कि परमात्मा क्या है , क्योँ कि वह एक जानता है कि वह एक है कौन ।
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तुम्हारा परमात्मा का विचार जीने से एक पलायन है । तुम जीने से और प्रेम से डरे हुए हो , तुम मृत्यु से भी भयभीत हो । तुम अपने मन मेँ एक बड़ी कामना सृजित करते हो , एक बहुत दूर की कामना -- जो कहीँ भविष्य मेँ पूरी होगी और तुम उसके साथ सम्मोहित हो जाते हो । तब तुम परमात्मा की पूजा करने लगते हो , और तुम एक नकली परमात्मा की पूजा कर रहे हो ।
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असली पूजा छोटी-छोटी चीजोँ से बनती है , न कि शास्त्रोँ के अनुसार बताए क्रिया काण्डोँ से -- ये सारे क्रिया काण्ड तुममेँ यह विश्वास उत्पन्न करने के लिए केवल व्यूह रचनाएं या तरकीबेँ हैँ कि तुम कुछ विशिष्ट चीज अथवा कुछ पवित्र कार्य कर रहे हो । तुम और कुछ भी नहीँ , केवल पूरी तरह से मूर्ख बनाए जा रहे हो । तुम नकली परमात्मा सृजित करते हो -- तुम प्रतिमाएं , मूर्तियां और पूजाघर बनाते हो -- तुम वहां जाते हो और वहां मूर्खतापूर्ण चीज़े करते हो , जिन्हेँ तुम यज्ञ , प्रार्थना और इसी तरह की सामग्री कहकर पुकारते हो । तुम अपनी मूर्खता की सजावट कर सकते हो , तुम वेद - मंत्रोँ का पाठ कर सकते हो , तुम बाइबिल पढ़ सकते हो , तुम गिरजाघरोँ , मंदिरोँ आदि मेँ जाकर क्रियाकाण्ड कर सकते हो , तुम अग्नि के चारोँ ओर बैठकर गीत और भजन गा सकते हो , लेकिन तुम पूरी तरह से मूर्ख बन रहे हो , यह ज़रा भी धार्मिक होना है ही नहीँ ।
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धर्म अर्थात "अनुभूति " धर्म अर्थात " प्रत्यक्ष व्यवहार" । एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति दिन- प्रतिदिन , क्षण प्रति क्षण जीता है । वह फर्श पर पोँछा लगाकर उसे साफ करता है , और यही पूजा और आराधना है । एक पुत्र अपने बुजुर्ग माता- पिता की सेवा मेँ लीन है यही पूजा है । एक स्त्री पति के लिए भोजन बनाती है और यही उसकी पूजा है । प्रेम से स्नान करने मेँ ही पूजा हो जाती है । पूजा अथवा आराधना करना एक गुण है , उसका स्वयं कृत्य के साथ कुछ लेना - देना नहीँ है , यह तुम्हारी स्थिति और भाव मुद्रा है , जो तुम उस कृत्य मेँ लाते हो ।
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यदि तुम किसी पुरूष को प्रेम करती हो और उसके लिए भोजन तैयार करती हो , तो यही तुम्हारी पूजा और आराधना है क्योँकि वह पुरूष ही दिव्य है । प्रेम प्रत्येक व्यक्ति को दिव्य बना देता है , प्रेम दिव्यता के रहस्य को प्रकट करता है । तब वह केवल तुम्हारा पति ही नहीँ रह जाता , वह पति के रूप मेँ तुम्हारा परमात्मा होता है । अथवा वह केवल तुम्हारी पत्नी ही नहीँ होती , वह स्त्री के रूप मेँ अंतिम रूप से तुम्हारा परमात्मा होती है , और हमेशा परमात्मा ही बनी रहती है । तुम्हारे बच्चे के रूप मेँ , विशिष्ट रूप मेँ तुम्हारे पास परमात्मा ही आता है ।
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उसे पहचानो , समझो, यही तुम्हारी पूजा और आराधना होगी । तुम अपने बच्चोँ के साथ केवल खेल रहे हो , और यही पूजा है -- यह उससे कहीँ अधिक महत्वपूर्ण है , जो नकली पूजा तुम मंदिरोँ मेँ जाकर करते हो ।
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तुम्हेँ एक सच्चा और प्रमाणिक जीवन , उत्सव - आनंद के साथ , समग्रता के साथ और सत्यनिष्ठा के साथ जीना है , और तब तुम परमात्मा के बारे मेँ सभी कुछ भूल सकते हो -- क्योँकि प्रत्येक क्षण तुम उससे मिल रहे होगे , प्रत्येक क्षण तुम उससे होकर गुज़र रहे होगे । तब प्रत्येक चीज़ केवल परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है । प्रत्येक चीज़ की पहली और पूर्व शर्त परमात्मा ही है -- बिना उसके कुछ भी अस्तित्व मेँ नहीँ हो सकता । इसलिए केवल वही विद्यमान है , केवल वही अस्तित्व मेँ है , और शेष सभी कुछ उसी का एक रूप है ॥ॐ॥
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ओशो ( सहज जीवन , भाग - 2 )

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