Sunday, 31 May 2015
Dhyan ki yatra osho (in hindi)
Sunday, 24 May 2015
osho pantjali yogsutra
ओशो
पतंजलि: योगसूत्र
शरीर की अशुद्धियां हैं : उन्हें निर्मुक्त करना पड़ता है। यदि तुम उन्हें निर्मुक्त नहीं करते तो शरीर बोझिल रहेगा। योग के ऐसे आसन हैं जो शरीर में हर प्रकार के जहर को निर्मुक्त कर देते हैं। योग की क्रियाएं उन्हें निर्मुक्त कर देती हैं; और योगी के शरीर की एक अपनी ही संवेदनशीलता होती है। योग के आसन दूसरे व्यायाम से बिलकुल भिन्न हैं। वे तुम्हारे शरीर को शक्तिशाली नहीं बनाते; वे तुम्हारे शरीर को ज्यादा लोचपूर्ण, नमनीय बनाते हैं। और जब तुम्हारा शरीर ज्यादा लोचपूर्ण होता है, तो तुम एक अलग ही ढंग से शक्तिशाली होते हो. तुम ज्यादा युवा होते हो। वे तुम्हारे शरीर को ज्यादा तरल बनाते हैं, ज्यादा प्रवाहपूर्ण बनाते हैं। शरीर में कोई अवरोध नहीं रहता। संपूर्ण शरीर एक जैविक इकाई की भांति काम करता है। वह बाजार के शोर की भांति नहीं होता; वह आर्केस्ट्रा की भांति होता है। गहरी लयबद्धता होती है भीतर, कोई ग्रंथियां नहीं होतीं, तब शरीर शुद्ध होता है। योग के आसन अदभुत रूप से मदद दे सकते हैं।
हर कोई अपने पेट में बहुत कुछ दबाए हुए है, क्योंकि केवल वही जगह है शरीर में जहां कि तुम बातों को दबा सकते हो। और तो कोई जगह नहीं है। यदि तुम किसी बात को दबाना चाहते हो तो उसे पेट में ही दबाना पड़ता है। यदि तुम रोना चाहते हो—तुम्हारी पत्नी मर गई है, कि तुम्हारी प्रेमिका मर गई है, कि तुम्हारा मित्र मर गया है—लेकिन रोना अच्छा नहीं मालूम पड़ता। ऐसा लगता है जैसे कि तुम कमजोर प्राणी हो—एक स्त्री के लिए रो रहे हो। तो तुम उसे दबा लेते हो। लेकिन कहां ले जाओगे तुम उस रोने को? स्वभावत:, तुम्हें उसे पेट में दबाना पड़ता है। केवल वही जगह है शरीर में, एकमात्र खाली जगह, जहां तुम दबा सकते हो।
यदि तुम पेट में दबा लेते हो.. और प्रत्येक व्यक्ति ने दबाई हैं बहुत तरह की भावनाएं—प्रेम की, कामवासना की, क्रोध की, उदासी की, रोने की, हंसने की भी। तुम हंस भी नहीं सकते खुल कर। वह असभ्यता मालूम पड़ती है, अभद्रता मालूम पड़ती है—तो तुम सुसंस्कृत नहीं हो। तुमने हर चीज दबाई है। इसी दमन के कारण ही तुम गहरी श्वास नहीं ले सकते, तुम्हें उथली श्वास लेनी पड़ती है। क्योंकि यदि तुम गहरी श्वास लेते हो, तो दमन से हुए घाव फिर उभरेंगे। तुम भयभीत हो। हर कोई भयभीत है पेट में उतरने से।
प्रत्येक बच्चा जब पैदा होता है, तो वह पेट से श्वास लेता है। देखना किसी सोए हुए बच्चे को. पेट ऊपर—नीचे होता है—छाती से नहीं लेता वह श्वास। कोई बच्चा छाती से श्वास नहीं लेता है, बच्चे पेट से श्वास लेते हैं। वे अभी बिलकुल स्वाभाविक होते हैं, कोई चीज दबाई नहीं गई है। उनके पेट खाली होते हैं और उस खालीपन का एक सौंदर्य होता शरीर में।
जब पेट में बहुत ज्यादा दमन इकट्ठा हो जाता है, तो शरीर दो भागों में बंट जाता है—निम्न और उच्च। तब तुम अखंड नहीं रहते; तुम दो हो जाते हो। निम्न भाग निंदित हिस्सा होता है। एकत्व खो जाता है, द्वैत आ जाता है तुम्हारे अस्तित्व में। अब तुम सुंदर नहीं हो सकते, तुम प्रसादपूर्ण नहीं हो सकते। तुम एक की जगह दो शरीर लिए रहते हो। और उन दोनों के बीच सदा एक दूरी रहेगी। तुम सुंदर ढंग से चल नहीं सकते, तुम्हें घसीटना पड़ता है अपनी टांगों को। असल में यदि शरीर एक होता है, तो तुम्हारी टलें तुम्हें लेकर चलती हैं। यदि शरीर दो में बंटा हुआ है, तो तुम्हें घसीटना पड़ता है अपनी टांगों को। तुम्हें ढोना पड़ता है अपने शरीर को। वह बोझ जैसा लगता है। तुम आनंदित नहीं हो सकते उससे। तुम टहलने का आनंद नहीं ले सकते, तुम तैरने का आनंद नहीं ले सकते, तुम तेज दौड़ने का आनंद नहीं ले सकते—क्योंकि शरीर एक नहीं है। इन सभी गतियों के लिए और उनसे आनंदित होने के लिए, शरीर को फिर से अखंड करने की जरूरत है। एक अखंडता फिर से निर्मित करनी जरूरी है : पेट को पूरी तरह शुद्ध करना होगा।
और पेट की शुद्धि के लिए बहुत गहरी श्वास चाहिए, क्योंकि जब तुम गहरी श्वास भीतर लेते हो और गहरी श्वास बाहर छोड़ते हो, तो पेट उस सब को बाहर फेंक देता है जो वह ढो रहा होता है। श्वास बाहर फेंकने में पेट स्वयं को निर्मुक्त करता है। इसीलिए प्राणायाम का, गहरी श्वास का इतना महत्व है। श्वास छोड़ने पर जोर होना चाहिए, ताकि जो चीज भी पेट अनावश्यक रूप से ढो रहा है, निर्मुक्त हो जाए।
और जब पेट दमित भावनाओं से मुक्त हो जाता है, तो यदि तुम्हें कब्ज रहती है तो अचानक गायब हो जाएगी। जब तुम भावनाओं को दबा लेते हो पेट में, तो कब्जियत रहेगी, क्योंकि पेट कठोर हो जाता है। गहरे में तुम रोक रहे होते हो पेट को; तुम उसे स्वतंत्र रूप से गति नहीं करने देते। इसलिए यदि भावनाओं का दमन किया गया है, तो कब्ज होगी ही। कब्ज एक मानसिक रोग ज्यादा है शारीरिक रोग की अपेक्षा। वह शरीर की अपेक्षा मन से ज्यादा संबंध है।
Friday, 22 May 2015
osho ke prvachan
ओशो प्रवचन
तुम्हारी सारी पूजा और आराधना नकली है क्योँ कि असली पूजा तो जीवन जीना है , वह पूजा या आराधना नहीँ है । जीना और क्षण प्रतिक्षण जीना -- और इस प्रमाणिक रूप से जीने मेँ ही कोई एक जानता है कि परमात्मा क्या है , क्योँ कि वह एक जानता है कि वह एक है कौन ।
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तुम्हारा परमात्मा का विचार जीने से एक पलायन है । तुम जीने से और प्रेम से डरे हुए हो , तुम मृत्यु से भी भयभीत हो । तुम अपने मन मेँ एक बड़ी कामना सृजित करते हो , एक बहुत दूर की कामना -- जो कहीँ भविष्य मेँ पूरी होगी और तुम उसके साथ सम्मोहित हो जाते हो । तब तुम परमात्मा की पूजा करने लगते हो , और तुम एक नकली परमात्मा की पूजा कर रहे हो ।
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असली पूजा छोटी-छोटी चीजोँ से बनती है , न कि शास्त्रोँ के अनुसार बताए क्रिया काण्डोँ से -- ये सारे क्रिया काण्ड तुममेँ यह विश्वास उत्पन्न करने के लिए केवल व्यूह रचनाएं या तरकीबेँ हैँ कि तुम कुछ विशिष्ट चीज अथवा कुछ पवित्र कार्य कर रहे हो । तुम और कुछ भी नहीँ , केवल पूरी तरह से मूर्ख बनाए जा रहे हो । तुम नकली परमात्मा सृजित करते हो -- तुम प्रतिमाएं , मूर्तियां और पूजाघर बनाते हो -- तुम वहां जाते हो और वहां मूर्खतापूर्ण चीज़े करते हो , जिन्हेँ तुम यज्ञ , प्रार्थना और इसी तरह की सामग्री कहकर पुकारते हो । तुम अपनी मूर्खता की सजावट कर सकते हो , तुम वेद - मंत्रोँ का पाठ कर सकते हो , तुम बाइबिल पढ़ सकते हो , तुम गिरजाघरोँ , मंदिरोँ आदि मेँ जाकर क्रियाकाण्ड कर सकते हो , तुम अग्नि के चारोँ ओर बैठकर गीत और भजन गा सकते हो , लेकिन तुम पूरी तरह से मूर्ख बन रहे हो , यह ज़रा भी धार्मिक होना है ही नहीँ ।
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धर्म अर्थात "अनुभूति " धर्म अर्थात " प्रत्यक्ष व्यवहार" । एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति दिन- प्रतिदिन , क्षण प्रति क्षण जीता है । वह फर्श पर पोँछा लगाकर उसे साफ करता है , और यही पूजा और आराधना है । एक पुत्र अपने बुजुर्ग माता- पिता की सेवा मेँ लीन है यही पूजा है । एक स्त्री पति के लिए भोजन बनाती है और यही उसकी पूजा है । प्रेम से स्नान करने मेँ ही पूजा हो जाती है । पूजा अथवा आराधना करना एक गुण है , उसका स्वयं कृत्य के साथ कुछ लेना - देना नहीँ है , यह तुम्हारी स्थिति और भाव मुद्रा है , जो तुम उस कृत्य मेँ लाते हो ।
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यदि तुम किसी पुरूष को प्रेम करती हो और उसके लिए भोजन तैयार करती हो , तो यही तुम्हारी पूजा और आराधना है क्योँकि वह पुरूष ही दिव्य है । प्रेम प्रत्येक व्यक्ति को दिव्य बना देता है , प्रेम दिव्यता के रहस्य को प्रकट करता है । तब वह केवल तुम्हारा पति ही नहीँ रह जाता , वह पति के रूप मेँ तुम्हारा परमात्मा होता है । अथवा वह केवल तुम्हारी पत्नी ही नहीँ होती , वह स्त्री के रूप मेँ अंतिम रूप से तुम्हारा परमात्मा होती है , और हमेशा परमात्मा ही बनी रहती है । तुम्हारे बच्चे के रूप मेँ , विशिष्ट रूप मेँ तुम्हारे पास परमात्मा ही आता है ।
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उसे पहचानो , समझो, यही तुम्हारी पूजा और आराधना होगी । तुम अपने बच्चोँ के साथ केवल खेल रहे हो , और यही पूजा है -- यह उससे कहीँ अधिक महत्वपूर्ण है , जो नकली पूजा तुम मंदिरोँ मेँ जाकर करते हो ।
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तुम्हेँ एक सच्चा और प्रमाणिक जीवन , उत्सव - आनंद के साथ , समग्रता के साथ और सत्यनिष्ठा के साथ जीना है , और तब तुम परमात्मा के बारे मेँ सभी कुछ भूल सकते हो -- क्योँकि प्रत्येक क्षण तुम उससे मिल रहे होगे , प्रत्येक क्षण तुम उससे होकर गुज़र रहे होगे । तब प्रत्येक चीज़ केवल परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है । प्रत्येक चीज़ की पहली और पूर्व शर्त परमात्मा ही है -- बिना उसके कुछ भी अस्तित्व मेँ नहीँ हो सकता । इसलिए केवल वही विद्यमान है , केवल वही अस्तित्व मेँ है , और शेष सभी कुछ उसी का एक रूप है ॥ॐ॥
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ओशो ( सहज जीवन , भाग - 2 )
Thursday, 21 May 2015
the sevan chakras of human body(in hindi)
मंत्र : लं
चक्र जगाने की विधि : मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है- यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।
प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।
मंत्र : वं
कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश
होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हों तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।
मंत्र : रं
कैसे जाग्रत करें : आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं।
आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।
मंत्र : यं
कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और सुषुम्ना इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है। व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता है। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी, सर्वप्रिय बन जाता है।
मंत्र : हं
कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर 16 कलाओं और 16 विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।
6. आज्ञाचक्र- भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में आज्ञा चक्र है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय है तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। इसे बौद्धिक सिद्धि कहते हैं।
मंत्र : उ
कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव : यहां अपार शक्तियां
मंत्र : ॐ
कैसे जाग्रत करें : मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह चक्र जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।
प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।
ओशो की नजर मे बोधधर्म
उसने गलत आदमी से पूछ लिया। और भिक्षु थे लाखों, जो उसकी भिक्षा पर पलते थे। वे कहते थे, तुम पर परमात्मा की बड़ी कृपा है। तुम्हारा मोक्ष सुनिश्चित है। हे सम्राट, तुम जैसा सम्राट पृथ्वी पर कभी न हुआ और न कभी होगा। तुम धर्म के परम मंगल को पाओगे। तुम पर आशीष बरस रहे हैं बुद्धों के। तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते, देवता फूल बरसाते हैं तुम पर। उसने सोचा कि बोधिधर्म भी ऐसा ही भिक्षु है। गलती हो गई। बोधिधर्म जैसे आदमी कभी-कभी होते हैं, इसलिए गलती हो जाती है।
बोधिधर्म ने कहा, बंद कर बकवास! अगर पहले कुछ मिलता भी, तो अब कुछ नहीं मिलेगा। तूने मांगा कि खो दिया। सम्राट तो बेचैन हो गया। हजारों भिक्षुओं की भीड़ के सामने बोधिधर्म ने कहा कि कुछ भी नहीं मिलेगा। फिर भी उसने सोचा कि कुछ गलती हो गई समझने में बोधिधर्म के या मेरे। उसने कहा, इतना मैंने किया, फल कुछ भी नहीं! बोधिधर्म ने कहा, फल की आकांक्षा पाप है। किया, भूल जा! इस बोझ को मत ढो, नहीं तो इसी बोझ से डूब मरेगा। पाप के बोझ से ही लोग नहीं डूबते, पुण्य के बोझ से भी डूब जाते हैं। बोझ डुबाता है। और पाप से तो आदमी छूटना भी चाहता है; पुण्य को तो कस कर पकड़ लेता है। यह पत्थर है तेरे गले में; इसको छोड़ दे।
लेकिन सम्राट वू को यह बात पसंद न पड़ी। हमारी वासनाओं को यह बात पसंद पड़ भी नहीं सकती। इतना किया, बेकार! सम्राट वू को पसंद न पड़ी, तो बोधिधर्म ने कहा कि मैं तेरे राज्य में प्रवेश नहीं करूंगा, वापस लौट जाता हूं। क्योंकि मैं तो सोच कर यह आया था कि तूने धर्म को समझ लिया होगा, इसलिए तू धर्म के फैलाव में आनंदित हो रहा है। मैं यह सोच कर नहीं आया था कि तू धर्म के साथ भी सौदा कर रहा है। मैं वापस लौट जाता हूं।
और बोधिधर्म वू के साम्राज्य में प्रवेश नहीं किया, नदी के पार रुक गया। वू को बड़ी बेचैनी हुई, सम्राट को। बड़े दिनों से प्रतीक्षा की थी इस आदमी की। यह बुद्ध की या लाओत्से की हैसियत का आदमी था। और उसने इस भांति निराश कर दिया। उसने सब जार-जार कर दिया उसकी आकांक्षाओं को। अगर यह एक सील-मुहर लगा देता और कह देता, हां सम्राट वू, तेरा मोक्ष बिलकुल निश्चित है; सिद्ध-शिला पर तेरे लिए सब आसन बिछ गया है; तेरे पहुंचने भर की देर है। द्वार खुले हैं; स्वागत के लिए बैंड-बाजे सब तैयार हैं। तो वू बहुत प्रसन्न होता।
हमारी वासनाएं ही अगर हमारी प्रसन्नता हैं, तो धर्म के जगत में हमारे लिए कोई प्रवेश नहीं है। अगर निर्वासना होना ही हमारी प्रसन्नता है, तो ही प्रवेश हो सकता है। निर्वासना धर्म के लिए बहुत विचारणीय है। क्षुद्र वासनाओं के त्याग की बात नहीं है। गहन वासनाएं मन को पकड़े हुए हैं।
जैनों में तो पूरा सिद्धांत है उसके लिए कि कुछ कर्मों के कारण व्यक्ति को तीर्थंकर का जन्म मिलता है–कुछ कर्मों के कारण। कुछ कर्मों का आखिरी बंधन उसको तीर्थंकर बनाता है। और तब अपना बंधन काटने के लिए उसे लोगों को समझाना पड़ता है।
तो बुद्ध ने कहा, मैंने कुछ कर्म किए थे कि शिक्षक होने का उपद्रव मुझे झेलना पड़ेगा। वह मैं झेल रहा हूं। अपने-अपने किए का फल है। उन्होंने नहीं किया था। वे बिलकुल खो गए हैं और शून्य हो गए हैं। समझाने के लिए भी उनके भीतर कोई नहीं है कि जो समझाए। सब खो गया है।
और जब इतना सब खो जाता है–वासना नहीं, कोई स्वार्थ नहीं–तब जिस शून्य का उदय होता है, वही स्वभाव है, वही ताओ है।...osho
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· · ....... प्रेम आत्मा का भोजन है। प्रेम आत्मा में छिपी परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग ...

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एक मित्र ने मुझे सवाल पूछा है कि यह जो यहां कीर्तन ...
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स्त्री और पुरुष के शरीरों के संबंध में, पहला शरीर स्त्री का स्त्रैण है, लेकिन दूसरा उसका शरीर भी पुरुष का ही है। और ठीक इससे उलटा पुरुष के स...