जब दुःख में होते हो तो क्या करते हो ? जब दुःख आता है तो तुम उससे बचना चाहते हो, भागना चाहते हो , तुम दुःख नहीं चाहते हो :तुम उससे भागना चाहते हो । तुम्हारी चेष्टा रहती है कि तुम उससे विपरीत को पा लो, सुख को पा लो, आनंद को पा लो। और जब सुख आता है तो तुम क्या करते हो ? तुम चेष्टा करते हो कि सुख बना रहे, ताकि दुःख बना रहे तुम उससे चिपके रहना चाहते हो। तुम सुख को पकड़कर रखना चाहते हो और दुःख से बचना चाहते हो। यही स्वाभिक दृष्टिकोण है , ढंग है।
अगर तुम इस प्राकृतिक नियम को बदलना चाहते हो, उसके पार जाना चाहते हो, तो जब दुःख आये तो उससे भागने कि चेष्टा मत करो : उसके साथ रहो उसको भोगो। ऐसा करके तुम उसकी पूरी प्राकृतिक व्यवस्था को अस्तव्यस्त कर दोग। तुम्हे सिरदर्द है ; उसके साथ रहो । आँखे बंद कर लो और सर दर्द पर ध्यान करो , उसके साथ रहो। कुछ भी मत करो ; बस साक्षी रहो। उससे भागने कि चेष्टा मत करो। और जब सुख आये और तुम किसी क्षण विशेष रूप से आनंदित अनुभव करो तो उसे पकड़कर उससे चिपको मत। आँखे बंद कर लो और उसके साक्षी हो जाओ।सुख को पकड़ना और दुःख से भागना धूल - भरे चित्त के स्भाविक गुण है और अगर तुम साक्षी रह सको और देर - अबेर तुम मध्य को उपलब्ध हो जाओगे। प्राकृतिक नियम तो यही है कि एक से दूसरी अति पर आते - जाते रहो। अगर तुम साक्षी रहे सको तो तुम मध्य में होंगे।
सिरदर्द है तो उसे स्वीकार करो। वह तथ्य है। जैसे वृक्ष है, मकान है ,रात है, वैसे ही सिरदर्द है। आँख बंद करो और उसे स्वीकार करो उससे बचने कि चेष्टा मत करो। वैसे ही तुम सुखी हो तो सुख के तथ्य को स्वीकार करो। उससे चिपके रहने कि चेष्टा मत करो और दुखी होने का भी प्रयत्न भी मत करो ; कोई भी प्रयत्न मत करो। सुख आता है तो आने दो ; दुःख आता है तो आने दो। तुम शिखर पर खड़े दृष्टा बने रहो, जो सिर्फ चीजों को देखता है। सुबह आती है शाम आती है, फिर सूरज उगता है और डूब जाता है तारे है और अँधेरा है फिर सूर्योदय -- और तुम शिखर पर खड़े दृष्टा हो।
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