Tuesday, 12 March 2024

· . प्रेम आत्मा का भोजन है।


  

 
.......💗 प्रेम आत्मा का भोजन है।
❤️प्रेम आत्मा में छिपी परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग है।
उसके बिना जो जीता है, भूखा ही जीता है। उसके बिना जो जीता है, वह क्षुधातुर ही जीता है। उसके बिना जो जीता है, उसका शरीर भला जीता हो, उसका मन भला जीता हो, उसकी आत्मा मरी-मरी ही रहती है।
उसे आत्मा का कोई अनुभव भी नहीं होता। आत्मा उसके लिए केवल एक शब्द है--सुना गया, पढ़ा गया; लेकिन शब्द बिलकुल अर्थहीन है। क्योंकि बिना प्रेम के कभी किसी ने जाना ही नहीं कि वह कौन है। बिना प्रेम के तो आदमी अपने से बाहर-बाहर ही भटकता है; अपने घर को उपलब्ध नहीं हो पाता।
भीतर आने का एक ही द्वार है, वह प्रेम है। जैसे शरीर को श्वास की जरूरत है प्रतिपल; श्वास न मिले तो शरीर का जीवन से संबंध टूट जाता है। श्वास सेतु है। उससे हमारा शरीर अस्तित्व से जुड़ा है। श्वास भी दिखाई तो पड़ती नहीं, सिर्फ उसके परिणाम दिखाई पड़ते हैं कि आदमी जीवित है। श्वास चली जाती है तब भी परिणाम ही दिखाई पड़ते हैं, श्वास का जाना तो दिखाई नहीं पड़ता। यह दिखाई पड़ता है कि आदमी मुर्दा है। प्रेम और भी गहरी श्वास है, और भी अदृश्य; वह आत्मा और परमात्मा के बीच जोड़ है। जैसे शरीर और अस्तित्व के बीच श्वास ने जोड़ा है तुम्हें, वैसे ही प्रेम की तरंगें जब बहती हैं तभी तुम परमात्मा से जुड़ते हो। उस जुड़ने में ही पहली बार तुम्हें अपने होने के यथार्थ का पता चलता है। इसलिए प्रेम से महत्वपूर्ण कोई दूसरा शब्द नहीं। प्रेम से गहरी दूसरी कोई अनुभूति नहीं।
प्रेम है क्या? और जो इतना महत्वपूर्ण है, उसे हम कैसे समझें?
प्रेम की कीमिया को थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
तुम अपने चेहरे को भी पहचानते हो तो इसीलिए कि दर्पण में तुमने चेहरे को देखा है। अन्यथा बताओ मुझे, कैसे अपना चेहरा पहचानते? अगर दर्पण में कभी चेहरा न देखा होता और कभी अनायास तुम्हारी तुमसे ही मुलाकात हो जाती, तो तुम पहचान न पाते। कैसे पहचानते? स्वयं को भी देखने के लिए एक दर्पण की जरूरत है।
प्रेम दूसरे की आंखों में अपने को देखना है। दूसरा कोई उपाय नहीं है। जब किसी की आंखें तुम्हारे लिए आतुरता से भरती हैं, कोई आंख तुम्हें ऐसे देखती है कि तुम पर सब कुछ न्योछावर कर दे, किसी आंख में तुम ऐसी झलक देखते हो कि तुम्हारे बिना उस आंख के भीतर छिपा हुआ जीवन एक वीरान हो जाएगा, तुम ही हरियाली हो, तुम ही हो वर्षा के मेघ; तुम्हारे बिना सब फूल सूख जाएंगे, तुम्हारे बिना बस रेगिस्तान रह जाएगा; जब किसी आंख में तुम अपने जीवन की ऐसी गरिमा को देखते हो, तब पहली बार तुम्हें पता चलता है कि तुम सार्थक हो। तुम कोई आकस्मिक संयोग नहीं हो इस पृथ्वी पर; तुम कोई दुर्घटना नहीं हो। तुम्हें पहली बार अर्थ का बोध होता है; तुम्हें पहली बार लगता है कि तुम इस विराट लीला में सार्थक हो, सप्रयोजन हो; इस विराट खेल में तुम्हारा भाग है; यह मंच तुम्हारे बिना अधूरी होगी; यहां तुम न होओगे तो कुछ कमी होगी; कम से कम एक हृदय तो तुम्हारे बिना रेगिस्तान रह जाएगा, कम से कम एक हृदय में तो तुम्हारे बिना सब काव्य खो जाएगा; फिर कोई वीणा न बजेगी। ऐसा एक व्यक्ति की आंखों में, उसके हृदय में झांक कर तुम्हें पहली बार तुम्हारे मूल्य का पता चलता है। अन्यथा तुम्हें कभी मूल्य का पता न चलेगा।
तुम कितना ही धन इकट्ठा कर लो, तुम व्यर्थ ही लगोगे। क्या सार है? तुम कितने ही बड़े पदों पर पहुंच जाओ, भीतर तुम जानते ही रहोगे कि खोखले हो और पदों पर तुम जबरदस्ती पहुंचते हो। इसलिए अगर तुम लोगों की आंखों में पदों पर से देखोगे तो तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे बिना वे कहीं ज्यादा आनंदित होंगे; तुम्हारे होने से ही उन्हें कष्ट है; तुम्हारे न होने से बड़ी शांति होगी। तुम्हारे पास धन हो और तुम लोगों की आंखों में देखो तो तुम्हें लगेगा कि तुम शत्रु हो; तुमने जैसे उनका कुछ छीन लिया है, जो तुम्हारे हटते ही उन्हें वापस मिल जाएगा।
प्रेम के अतिरिक्त तुम न केवल अपने को अकारण पाओगे, न केवल व्यर्थ पाओगे, बल्कि तुम हजारों आंखों में अनुभव करोगे कि तुम एक दुर्घटना हो, तुम्हारा होना एक अपशकुन है, कोई तुम्हारे कारण सौभाग्य से नहीं भरा है, तुम्हारे कारण सब तरफ दुर्भाग्य के चिह्न हैं। इन दुर्भाग्य के चिह्नों में, इन दुर्भाग्य की चीखती-पुकारती आवाजों के बीच तुम नर्क से घिर जाओगे। और अगर तुम्हें अपना जीवन नारकीय मालूम पड़ता है तो समझ लेना कि यही कारण है।
प्रेम में कोई उतरा कि स्वर्ग में उतरा। प्रेम के अतिरिक्त और सब स्वर्ग कल्पनाएं हैं, प्रतीक हैं। एक ही स्वर्ग है वास्तविक, और वह यह है कि तुम किसी के लिए इतने सार्थक हो उठो कि दूसरा अपना जीवन खोने को राजी हो जाए तुम्हारे लिए।
लेकिन इतने सार्थक तो तुम तभी हो सकोगे जब तुम दूसरे के लिए अपना जीवन खोने को राजी हो जाओ। प्रेम का अर्थ है जीवन से किसी बड़ी चीज को जान लेना, जिसके लिए जीवन भी गंवाया जा सकता है। जब तक जीवन तुम्हारे लिए सबसे बड़ी चीज है, तब तक तुम गरीब ही रहोगे। जीवन तो केवल अवसर है--जीवन से महत्तर को पा लेने का। जीवन तो केवल एक घड़ी है--अतिक्रमण के लिए; एक सीढ़ी है, जिससे तुम ऊपर उठ जाओ। जीवन मंदिर नहीं है, केवल मंदिर का द्वार है। द्वार से ही कोई कभी कैसे तृप्त हो सकेगा?
पर कैसे तुम जानोगे पहली झलक? पहली किरण कैसे उतरेगी तुम्हारे जीवन में जिससे तुम अनुभव कर पाओ कि तुम्हारे होने से कहीं कोई सौभाग्य फलित हुआ है?
यह थोड़ा सा बारीक है, नाजुक है, और एक-एक कदम सम्हाल कर रखना।
❣️ओशो❣️
ताओ उपनिषद

सारा जगत नाटक मात्र है

सात दिन के लिए यह प्रयोग करो 

सात दिन तक एक ही चीज स्मरण रखो कि सारा  जगत नाटक मात्र है --  और तुम वही नहीं रहोगे जो अभी हो।  सिर्फ सात दिन के लिए प्रयोग करो।  तुम्हारा कुछ खो नहीं जाएगा, क्योकि तुम्हारे पास खोने के लिए भी तो कुछ नही है तुम प्रयोग कर सकते हो।  सात दिन तक सब कुछ को नाटक समझो, तमाशा समझो। 

 इन सात दिनों में तुम्हे तुम्हारे बुद्ध-स्वभाव की, तुम्हारी आंतरिक पवित्रता की अनेक झलके मिलेंगी।  और इस झलक को मिलने के बाद तुम फिर वही नही रहोगे जो हो।  तब तुम सुखी होंगे।  और तुम सोच भी नहीं सकते कि वह  सुख किस तरह का होगा, क्योकि तुमने कोई सुख नही जाना ह।  तुमने सिर्फ दुःख की काम अधिक मात्राएँ भर जनि है : कभी तुम ज्यादा दुखी थे और कभी कम।  तुम नही जानते सुख क्या है, तुम उसे नहीं जान सकते हो।  जब तुम्हारी जगत की धारणा ऐसी  है कि तुम उसे बहुत गंभीरता से लेते हो तो तुम नहीं  जान सकते कि सुख क्या है।  सुख तो तभी घटित होता है जब तुम्हारी यह धारणा दृढ़  होती है कि यह जगत केवल एक लीला है।  

 इस विधि को प्रयोग में लाओ और हर चीज को उत्सव को तरह लो, हर चीज को उत्सव मानाने के भाव से करो।  ऐसा समझो कि यह नाटक है कोई  असली चीज नही।  अगर तुम पति हो तो नाटक के पति बन जाओ ; अगर तुम पत्नी हो तो नाटक कि पत्नी बन जाओ।  अपने संबंधो को खेल बना लो।  बेशक खेल के नियम है  ; खेल के लिए नियम जरूरी  है । विवाह नियम है, तलाक नियम है।  उनके बारे में गंभीर मत होओ

वे नियम है और एक नियम से दूसरा नियम निकलता है।  तलाक बुरा है, क्योकि विवाह बुरा है।  एक नियम दूसरे नियम को जन्म देता है। 

लेकिन उन्हें गंभीरता से मत लो और फिर देखो कि कैसे तत्काल तुम्हारे जीवन का गुणधर्म बदल जाता है।  

आज रात अपने घर जाओ और अपने पति या पत्नी या बच्चो के साथ ऐसे व्यवहार करो जैसे कि तुम किसी नाटक में भूमिका निभा रहे हो। और फिर उसका सोन्दर्ये देखो।  अगर तुम भूमिका निभा रहे हो तो तुम उसमे कुशल होने की कोशिश  करोगे, लेकिन उदिग्न नही होंगे।  उसकी कोई जरूरत नही है।  तुम अपनी भूमिका निभाकर चले जाओगे।  लेकिन स्मरण रहे कि यह  अभिनय है।  और सात दिन तक इसका सतत  ख्याल रखो।  तब तुम्हे सुख उपलब्ध होगा।  और जब तुम जान लोगे कि  क्या सुख है तो फिर दुःख में गिरने कि जरूरत नही रही, क्योकि यह तुम्हारा ही चुनाव है।  

 तुम दुखी हो, क्योकि तुमने जीवन के प्रति  गलत दृष्टि चुनी है।  तुम सुखी हो सकते हो, अगर दृष्टि सम्यक हो जाये।  बुद्ध सम्यक दृष्टि को बहुत महत्व देते है।  वे सम्यक दृष्टि को ही आधार बनाते है , बुनियाद बनते है।  सम्यक दृष्टि क्या है ? उसकी कसौटी क्या है ?

मेरे देखे कसौटी यह है ; जो दृष्टि तुम्हे सुखी करे वह सम्यक दृष्टि है।  और जो दृष्टि तुम्हे दुखी पीड़ित बनाये वह असम्यक दृष्टि है।  और कसौटी बाह्रा नही है, आंतरिक है और कसौटी तुम्हारा सुख   है।    


  

Wednesday, 6 March 2024

आनंद से कैसे जिए (ध्यान सूत्र )

 

जब दुःख में होते हो तो क्या करते हो ? जब दुःख आता है तो तुम उससे बचना चाहते हो, भागना चाहते हो , तुम दुःख नहीं चाहते हो :तुम उससे भागना चाहते हो ।  तुम्हारी चेष्टा रहती है कि तुम उससे विपरीत को पा लो, सुख को पा लो, आनंद को पा लो। और जब सुख आता है तो तुम क्या करते हो ? तुम चेष्टा करते हो कि सुख बना रहे, ताकि दुःख बना रहे तुम उससे चिपके रहना चाहते हो।  तुम सुख को पकड़कर रखना चाहते हो और दुःख से बचना चाहते हो।  यही स्वाभिक दृष्टिकोण है , ढंग है।  

अगर तुम इस प्राकृतिक नियम को बदलना चाहते हो, उसके पार जाना चाहते हो, तो जब दुःख आये तो उससे भागने कि चेष्टा मत करो : उसके साथ रहो उसको भोगो।  ऐसा करके तुम उसकी पूरी प्राकृतिक व्यवस्था को अस्तव्यस्त कर दोग।  तुम्हे सिरदर्द है ; उसके साथ रहो ।  आँखे बंद कर लो और सर दर्द पर ध्यान करो , उसके साथ रहो।  कुछ भी मत करो ; बस साक्षी रहो।  उससे भागने कि चेष्टा मत करो।  और जब सुख आये और तुम किसी क्षण विशेष रूप से आनंदित अनुभव करो तो  उसे पकड़कर उससे चिपको मत।  आँखे बंद कर लो और उसके साक्षी हो जाओ।सुख को  पकड़ना और दुःख से भागना धूल - भरे चित्त के स्भाविक गुण है और अगर तुम साक्षी रह सको  और देर - अबेर तुम मध्य को उपलब्ध हो जाओगे।  प्राकृतिक नियम तो यही है कि एक से दूसरी अति पर आते - जाते रहो।  अगर तुम साक्षी रहे सको तो तुम मध्य में होंगे।  

  सिरदर्द है तो उसे स्वीकार करो।  वह तथ्य है।  जैसे वृक्ष है, मकान है ,रात है, वैसे ही सिरदर्द है।  आँख बंद करो और उसे स्वीकार करो उससे बचने कि चेष्टा मत करो।  वैसे ही तुम सुखी हो तो सुख के तथ्य को स्वीकार करो।  उससे चिपके रहने कि चेष्टा मत करो और दुखी होने का भी प्रयत्न भी मत करो ; कोई भी प्रयत्न मत करो।  सुख आता है तो आने दो ; दुःख आता है तो आने दो।  तुम शिखर पर खड़े दृष्टा बने रहो, जो सिर्फ चीजों को देखता है।  सुबह आती है शाम आती है, फिर सूरज उगता है और डूब जाता है तारे है और अँधेरा है फिर सूर्योदय --  और तुम शिखर पर खड़े दृष्टा हो।

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