Friday, 30 October 2015

मानसिक कामवासना



                                     Image result for sex khajuraho                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  मनुष्य को छोड़कर सारे पशु और पक्षियों की यौन व्यवस्था सावधिक है। एक विशेष मौसम में वे यौन पीड़ित होते हैं, कामातुर होते हैं; बाकी वर्षभर नहीं होते। सिर्फ आदमी अकेला जानवर है जो वर्षभर काम पीड़ित होता है। यह काम पीड़ा मानसिक है, मेंटल है। अगर आदमी भी स्वाभाविक हो तो वह भी एक सीमा में, एक समय पर कामातुर होगा; शेष समय कामातुरता नहीं होगी। लेकिन आदमी ने सभी स्वाभाविक व्यवस्था के ऊपर मानसिक व्यवस्था जड़ दी है। सभी चीजों के ऊपर उसने अपना इंतजाम अलग से कर लिया है। वह अलग इंतजाम हमारे जीवन की विकृति है, और हमारी विक्षिप्तता है। न तो आपको पता चलता है कि आप में कामवासना जगी है, वह स्वाभाविक है, बायोलाजिकल है या साइकोलाजिकल है! आपको पता नहीं चलता क्योंकि बायोलाजिकल कामवासना को आपने जाना ही नहीं है। इसके पहले कि वह जगती, मानसिक कामवासना जग जाती है। छोटे-छोटे बच्चे जो कि चौदह वर्ष में जाकर बायोलाजिकली मेच्योर होंगे, जैविक अथो में कामवा सना के योग्य होंगे, लेकिन चौदह वर्ष के पहले ही मानसिक वासना के वे बहुत पहले योग्य और समर्थ हो गए होते हैं।
सुना है मैंने कि एक बूढ़ी औरत अपने नाती-पोतों को लेकर अजायबघर में गयी। वहां स्टार्क नाम के पक्षी के बाबत यूरोप में कथा है, बच्चों को समझाने के लिए कि जब घर में बच्चे पैदा होते हैं तो बड़े-बूढ़ों से बच्चे पूछते हैं कि बच्चे कहां से आए? तो बड़े-बूढ़े कहते हैं—यह स्टार्क पक्षी ले आया। वहां अजायबघर में स्टार्क पक्षी के पा स वह बूढ़ी गयी। उन बच्चों ने पूछा—यह कौन-सा पक्षी है? उस बूढ़ी ने कहा—यह वही पक्षी है जो बच्चों को लाता है। छोटे-छोटे बच्चे हैं, वे एक दूसरे की तरफ देखकर हंसे, और एक बच्चे ने अपने पड़ौसी बच्चे से कहा कि क्या इस ना समझ बूढ़ी को हम असली राज बता दें? मे वी टैल हर दि रियल सीक्रेट, दिस पुअर ओल्ड लेडी। इसको अभी तक पता नहीं इस गरीब को, यह अभी स्टार्क पक्षी से समझ रही है कि बच्चे आते हैं।
चारों तरफ की हवा, चारों तरफ का वातावरण बहुत छोटे-छोटे बच्चों के मन में एक मानसिक कामातुरता को जगा देता है। फिर यह मानसिक कामातुरता उनके ऊपर हावी हो जाती है, यह जीवनभर पीछा करती है। और उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि जो बायोलाजिकल अर्ज थी, वह जो जैविक वासना थी, वह उठ ही नहीं पायी, या जब उठी तब उन्हें पता नहीं चला। और तब एक अदभुत घटना घटेगी, और वह अदभुत घटना यह है कि वे कभी तृप्त न होंगे। क्योंकि मानसिक कामवासना कभी तृप्त नहीं हो सकती है, जो वास्तविक नहीं है वह तृप्त नहीं हो सकता। असली भूख तृप्त हो सकती है; झूठी भूख तृप्त नहीं हो सकती। इसलिए वासनाएं तो तृप्त हो सकती हैं लेकिन हमारे द्वारा जो कल्टीवेटेड डिजायर्स हैं, हमने ही जो आयोजन कर ली हैं वासनाएं, वे कभी तृप्त नहीं हो सकतीं।
इसलिए पशु-पक्षी, वे भी वासनाओं में जीते हैं, लेकिन हमारे जैसे तना वग्रस्त नहीं हैं। कोई तनाव नहीं दिखाई पड़ता उनमें। गाय की आंख में झांककर देखिए, वह कोई निर्वासना को उपलब्ध नहीं हो गयी है, कोई ऋमुनि नहीं हो गई है, कोई तीर्थकर नहीं हो गयी है, पर उसकी आंखों में वही सरलता होती है जो तीर्थकर की आंखों में होती है। बात क्या है? वह तो वासना में जी रही है। लेकिन फिर भी उसकी वासना प्राकृतिक है। प्राकृतिक वासना तनाव नहीं लाती है। ऊपर नहीं ले जा सकती प्राकृतिक वासना, लेकिन नीचे भी नहीं गिराती। ऊपर जाना हो तो प्राकृतिक वासना से ऊपर उठना होता है। लेकिन अगर नीचे गिरना हो तो प्राकृतिक वासना के ऊपर अप्राकृतिक वासना को स्थापित करना होता है।
महावीर वाणी (भाग–1) प्रवचन–11

Wednesday, 28 October 2015

osho sound related third process

                                       Image result for om meditation                                                                                           ध्‍वनि-संबंधी तीसरी विधि:
‘’ओम जैसी किसी ध्‍वनि का मंद-मंद उच्‍चरण करो।
‘’ओम जैसी किसी ध्‍वनि का मंद-मंद उच्‍चरण करो। जैस-जैसे ध्‍वनि पूर्णध्‍वनि में प्रवेश करती है। वैसे-वैसे तुम भी।‘’
‘’ओम जैसी किसी ध्‍वनि का मंद-मंद उच्‍चारण करो।‘’
उदाहरण के लिए ओम को लो। यह एक आधारभूत ध्‍वनि है। उ, इ और म, ये तीन ध्‍वनियां ओम में सम्‍मिलित है। ये तीनों बुनियादी ध्‍वनियां है। अन्‍य सभी ध्‍वनियां उनसे ही बनी है। उनसे ही नकली है, या उनकी ही यौगिक ध्‍वनियां है। ये तीनों बुनियादी है। जैसे भौतिकी के लिए इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटोन बुनियादी है। इस बात को गहराई से समझना होगा।
गुरजिएफ ने तीन के नियम की बात की है। वह कहता है कि आत्‍यंतिक अर्थ में अस्‍तित्‍व एक है। आत्‍यंतिक अर्थ में परम अर्थ में एक ही नियम है। लेकिन यह परम है। और जो कुछ हम देखते है वह सापेक्ष है। वह परम नहीं है। वह परम तो सदा प्रच्‍छन्‍न है। छिपा है। हम उसे देख नहीं सकते। क्‍योंकि जैसे ही हमें कुछ दिखाई पड़ता है, वह तीन में विभाजित हो जाता है। वह तीन में, द्रष्‍टा, दृश्‍य और दर्शन में बंट जाता है।
मैं तुम्‍हें देख रहा हूं, तो मैं हूं, तुम हो और हम दोनों के बीच दर्शन का, ज्ञान का संबंध है। प्रक्रिया तीन में बंट गई। परम तीन में विभाजित हो गया। जिस क्षण वह ज्ञान बनता है उसी क्षण वह तीन में बंट जाता है। अज्ञात वह एक है; ज्ञात होते ही वह तीन हो जाता है। ज्ञात सापेक्ष है; अज्ञात परम है। परम के संबंध में हमारी चर्चा भी, हमारी बातचीत भी परम नहीं है। क्‍योंकि ज्‍यों ही हम उसे परम कहकर पुकारते है, वह ज्ञात हो जात है। जो भी हम जानते है वह सापेक्ष है; यह परम शब्‍द भी सापेक्ष हो जाता है।
यही कारण है कि लाओत्से जोर देकर कहता है कि सत्‍या कहा नहीं जा सकता है। जैसे ही तुम उसे कहते हो वह असत्‍य हो जाता है। कारण यह है कि शब्‍द देते ही वह सापेक्ष हो जाता है। हम जो भी शब्‍द दें, चाहे सत्‍य, परम, परब्रह्म या ताओ कहें, बोलते ही वह सापेक्ष हो जाता है। बोलते ही वह असत्‍य हो जाता है। एक तीन में बंट जाता है।
तो गुरजिएफ कहता है कि जिस जगत को हम जानते है उसके लिए तीन कास नियम आधारभूत है। अगर हम गहरे में उतरें तो पाएंगे—पाएंगे ही—कि प्रत्‍येक चीज तीन में बंधी है। इसे ही तीन का नियम कहते है। ईसाई इसे ट्रिनिटी कहते है, जिसमे ईश्‍वर पिता, जीसस पुत्र और पवित्र आत्‍मा सम्‍मिलित है। भारतीय इसे त्रिमूर्ति कहते है, जिसमें ब्रह्मा, विष्‍णु, महेश के मुख एक ही सिर में है। और अब भौतिक शास्त्र कहता है कि अगर हम पदार्थ का विश्‍लेषण करते हुए उसके भीतर प्रवेश करें तो पदार्थ भी तीन में टूट जाएगा—इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटोन।
वैसे ही कवि कहते है कि यदि हम मनुष्‍य के सौंदर्य-बोध की, उसके भाव की गहराई में उतरे तो वहां भी तीन ही मिलेंगे। सत्‍य, शिव और सुंदर। मानवीय भावना भी तीन में बंटी है। और रहस्‍यवादी कहते है कि अगर हम समाधि का विश्लेषण करें तो वहां भी सच्‍चिदानंद की त्रयी है—सत, चित और आनंद ही त्रयी है। मनुष्‍य की पूरी चेतना, चाहे वह जिस किसी आयाम में गति करे, तीन के नियम पर पहुंच जाती है।
और तीन के नियम का प्रतीक है। अ, उ और म—ये तीन बुनियादी ध्‍वनियां है। तुम उन्‍हें आणविक ध्‍वनियां भी कह सकते हो। जिन्‍हें ओम में सम्‍मिलित कर दिया है। ओम परम के, परमात्‍मा के अत्‍यंत निकट है; उसके पीछे ही परम का अज्ञात का वास है। जहां तक ध्‍वनियों का संबंध है, ओम उनका अंतिम पड़ाव है। अगर तुम ओम अंतिम ध्‍वनि है। ये तीन अंतिम है। ये अस्‍तित्‍व की सीमा बनाती है; इन तीन के पार अज्ञात में परम में प्रवेश है।
भौतिकविद कहते है कि अब हम इलेक्ट्रॉन पर पहुंचकर अंतिम सीमा पर पहुंच गए है; क्‍योंकि इलेक्ट्रॉन को पदार्थ नहीं कहा जा सकता। ये इलेक्ट्रॉन, ये विद्युत-अणु दृश्‍य नहीं है; उनमें पदार्थ तत्‍व नहीं है। और उन्‍हें अपदार्थ भी नह कहा जा सकता; क्‍योंकि सब पदार्थ उनसे ही बनता है। और अगर वह न पदार्थ है और न अपदार्थ है तो फिर उसे क्‍या कहा जाए। किसी ने भी इलेक्ट्रॉन को नहीं देखा। उनका अनुमान भर होता है। गणित के आधार पर माना गया है कि वे है। उनका प्रभाव जाना गया है; लेकिन उन्‍हें देखा नहीं गया है। और हम उनके आगे नहीं जा सकते; तीन का नियम आखिरी है। और अगर तुम तीन के नियम के पार जाते हो तो तुम अज्ञात में प्रवेश कर जाते हो। तब कुछ कहना असंभव है। इलेक्ट्रॉन के बारे में बहुत कम कहा जा सकता है।
जहां तक ध्‍वनि का संबंध है, ओम आखिरी है; तुम ओम के आगे नहीं जा कसते। यही कारण है कि ओम का इतना अधिक उपयोग किया गया। भारत में ही नहीं, सारी दुनियां में ओम का व्‍यवहार होता आया है। ईसाइयों और मुसलमानों का आमीन ओम का ही दूसरा रूप है। आमीन की बुनियादी ध्‍वनियां भी वही है। अंग्रेजी के शब्‍द ओमनीप्रेजेंट, में भी वही है। ओमनीपोटैंट का अर्थ है कि जो परम शक्‍तिशाली हो।
ईसाई और मुसलमान तो अपनी प्रार्थना के अंत में आमीन कहते है; लेकिन हिंदुओं ने ओम का एक पूरा विज्ञान ही निर्मित किया है। वह ध्‍वनि का विज्ञान है; वह ध्‍वनि के अतिक्रमण का विज्ञान है। और अगर मन ध्‍वनि है तो अ-मन अवश्‍य निध्‍वनि होगा। या पूर्णध्‍वनि होगा। दोनों का एक ही अर्थ है।
इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। परम को विधायक या नकारात्‍मक, किसी भी ढंग से कहा जा सकता है। सापेक्ष का दोनों ढंग से कहना होगा, विधायक और नकारात्मक दोनों ढंग से; क्‍योंकि वह द्वैत है। लेकिन जब तुम परम को अभिव्‍यक्‍त देते चलोगे। तो या तो तुम विधायक शब्‍द प्रयोग करोगे या नकारात्‍मक। मनुष्‍य की भाषा में दोनों तरह के शब्‍द है। विधायक और नकारात्‍मक दोनों है। जब तुम परम को, अनिर्वचनीय को बताने चलोगे तो तुम्‍हें कोई शब्‍द उपयोग करना होगा। जो प्रयोगात्‍मक हो। यह मन-मन पर निर्भर है।
सूत्र कहता है : ‘’ओम जैसी किसी ध्‍वनि का मंद-मंद उच्‍चारण करो। जैसे-जैसे ध्‍वनि पूर्णध्‍वनि में प्रवेश करती है, वैसे-वैसे तुम भी।‘’
‘’ओम जैसी किसी ध्‍वनि का मंद-मंद उच्‍चारण करो।‘’
ध्‍वनि का उच्‍चारण एक सूक्ष्‍म विज्ञान है। पहले तुम्‍हें उसका उच्‍चारण जोर से करना है, बाहर-बाहर करना है; ताकि दूसरे सुन सकें। जोर से उच्‍चारण शुरू करना अच्‍छा है। क्‍यों? क्‍योंकि जब तुम जोर से उच्‍चार करते हो तो तुम भी उसे साफ-साफ सुनते हो। जब तुम कुछ कहते हो तो दूसरे से कहते हो; वह तुम्‍हारी आदत बन गई है। जब तुम बात करते हो तो दूसरों से करते हो। इसलिए तुम अपने को भी तभी सुनते हो जब दूसरों से बात करते हो। तो एक स्‍वाभाविक आदत से आरंभ करना अच्‍छा है।
ओम ध्‍वनि का उच्‍चार करो, और फिर धीरे-धीरे उस ध्‍वनि के साथ लयबद्ध अनुभव करो। जब ओम का उच्‍चार करो तो उससे भर जाओ। और सब कुछ भूलकर ओम ही बन जाओ। ध्‍वनि ही बन जाओ। और ध्‍वनि बन जाना बहुत आसान है; क्‍योंकि ध्‍वनि तुम्‍हारे शरीर में तुम्‍हारे मन में, तुम्‍हारे समूचे स्‍नायु संस्‍थान में गूंजने लग सकती है। ओम की अनुगूँज को अनुभव करो। उसका उच्‍चार करो और अनुभव करो कि तुम्‍हारा सारा शरीर उससे भर गया है। शरीर का प्रत्‍येक कोश उससे गुंज उठा है।
उच्‍चार करना लयबद्ध होना भी है। ध्‍वनि के साथ लयबद्ध होओ। ध्‍वनि ही बन जाओ। और तब तुम अपने और ध्‍वनि के बीच गहरी लयबद्धता अनुभव करोगे। तब तुममें उसके लिए गहरा अनुराग पैदा होगा। यह ओम की ध्‍वनि इतनी सुंदर और संगीतमय है। जितना ही तुम उसका उच्‍चार करोगे उतने ही तुम उसकी सूक्ष्‍म मिठास से भर जाओगे। ऐसी ध्‍वनियां है जो बहुत तीखी है। और ऐसी ध्‍वनियां है जो बहुत मीठी है। ओम बहुत ही मीठी ध्‍वनि है। और शुद्धतम ध्‍वनि है। उसका उच्‍चार करो और उससे भर जाओ।
जब तुम ओम के साथ लयबद्ध अनुभव करने लगोगे तो तुम उसका जोर से उच्‍चार करना छोड़ सकते हो। फिर होठो को बंद कर लो और भीतर ही भीतर उच्‍चार करो। लेकिन यह भीतर उच्‍चर पहले जोर से करना है। शुरू में यह भीतर उच्‍चार भी जोर से करना है। ताकि ध्‍वनि तुम्‍हारे समूचे शरीर में फैल जाए। उसके हरेक हिस्‍से को, एक-एक कोशिका को छुए। उससे तुम नव जीवन प्राप्‍त करोगे। वह तुम्‍हें फिर से युवा और शक्‍तिशाली बना देगी।
तुम्‍हारा शरीर भी एक वाद्य-यंत्र है; उसे लयबद्धता की जरूरत है। जब शरीर की लयबद्धता टूटती है तो तुम अड़चन में पड़ते हो। और यही कारण है कि जब तुम संगीत सुनते हो तो तुम्‍हें अच्‍छा लगाता है। तुम्‍हें अच्‍छा क्‍यों लगता है? संगीत थोड़े से लय-ताल के अतिरिक्‍त क्‍या है? जब तुम्‍हारे चारों तरफ संगीत होता है तो तुम अच्‍छा क्‍यों महसूस करते हो। और शोरगुल और अराजकता के बीच तुम्‍हें बेचैनी क्‍यों होती है? कारण यह है कि तुम स्‍वयं संगीतमय हो। तुम वाद्य-यंत्र हो; और वह यंत्र प्रतिध्‍वनि करता है।
अपने भीतर ओम का उच्‍चार करो और तुम्‍हें अनुभव होगा कि तुम्‍हारा समूचा शरीर उसके साथ नृत्‍य करने लगा है। तब तुम्‍हें महसूस होगा कि तुम्‍हारा सारा शरीर उसमें स्‍नान कर रहा है; उसका पोर-पोर इस स्‍नान से शुद्ध हो रहा है। लेकिन जैसे-जैसे इसकी प्रतीति गहरी हो, जैसे-जैसे यह ध्‍वनि ज्‍यादा से ज्‍यादा तुम्‍हारे भीतर प्रवेश करे, वैसे-वैसे उच्‍चार को धीमा करते जाओ। क्‍योंकि ध्‍वनि जितनी धीमी होगी, वह उतनी ही गहराई प्राप्‍त करेंगी। वह होम्‍योपैथी की खुराक जैसी है। जितनी छोटी खुराक उतनी ही गहरी उसकी पैठ। गहरे जाने के लिए तुम्‍हें सूक्ष्‍म से सूक्ष्मतर होता जाना होगा।
भोंडे और कर्कश स्‍वर तुम्‍हारे ह्रदय में नहीं उतर सकते। वे तुम्‍हारे कानों में तो प्रवेश करेंगे। ह्रदय में नहीं। ह्रदय का मार्ग इतना संकरा है और ह्रदय स्‍वयं इतना कोमल है कि सिर्फ बहुत धीमे, लयपूर्ण और सूक्ष्‍म स्‍वर ही उसमे प्रवेश पा सकते है। और जब तक कोई ध्‍वनि तुम्‍हारे ह्रदय तक न जाए तब तक मंत्र पूरा नहीं होता। मंत्र तभी पूरा होता है जब उसकी ध्‍वनि तुम्‍हारे ह्रदय में प्रवेश करे, तुम्‍हारे अस्‍तित्‍व के गहनत्म, केंद्रीय मर्म को स्‍पर्श करे। इसलिए उच्‍चार को धीमा ओ धीमा करते चलो।
और इन ध्‍वनियों को धीमा और सूक्ष्‍म बनाने के और भी कारण है। ध्‍वनि जितनी सूक्ष्‍म होगी उतने ही तीव्र बोध की जरूरत होगी उसे अनुभव करने के लिए। ध्‍वनि जितनी भोंडी होगी उतने ही कम बोध की जरूरत होगी। वह ध्‍वनि तुम पर चोट करने क लिए काफी है। तुम्‍हें उसका बोध होगा ही। लेकिन वह हिंसात्‍मक है। अगर ध्‍वनि संगीत पूर्ण लयपूर्ण और सूक्ष्‍म हो तो तुम्‍हें उसे अपने भीतर सुनना होगा। और उसे सुनने के लिए तुम्‍हें बहुत सजग, बहुत सावधान होना होगा। अगर तुम सावधान न रहे तो तुम सो जा सकते हो। और तब तुम पूरी बात ही चूक जाओगे।
किसी मंत्र या जप के साथ, ध्‍वनि के प्रयोग के साथ यही कठिनाई है कि वह नींद पैदा करता है। वह एक सूक्ष्‍म ट्रैंक्विलाइजर है, नींद की दवा है। अगर तुम किसी ध्‍वनि को निरंतर दोहराते रहे और उसके प्रति सजग न रहे तो तुम सो जाओगे। क्‍योंकि तब यांत्रिक पुनरूक्‍ति हो जाती है। तब ओम-ओम यांत्रिक हो जाता है। और पुनरूक्‍ति ऊब पैदा करती है। नींद के लिए ऊब बुनियादी तौर से जरूरी है; तुम ऊब के बिना नहीं सो सकते। अगर तुम उत्‍तेजित हो तो तुम्‍हें नींद नहीं आएगी।
यही कारण है कि आधुनिक मनुष्‍य धीरे-धीरे नींद खो बैठा है। कारण क्‍या है? इतनी उत्‍तेजना है जितनी पहले कभी नहीं थी। पुरानी दुनियां में जीवन ऊब से भरा होता था। पुनरूक्‍ति की ऊब से भरा होता था। आज भी अगर तुम कहीं पहाड़ियों में छिपे किसी गांव में चले जाओ तो वहां का जीवन ऊब से भरा मिलेगा। हो सकता है, वह ऊब तुम्‍हें न महसूस हो; क्‍योंकि तुम वहां का जीवन ऊब से भरा मिलेगा। हो सकता है, हो सकता है वह ऊब तुम्‍हें न महसूस हो। क्‍योंकि तुम वहां रहते तो नहीं वहां केवल छुट्टियों के लिए गये हो। ये उत्‍तेजना बंबई के कारण है। उन पहाड़ियों के कारण नहीं। वे पहाडियाँ बिलकुल उबाने वाली है। जो वहां रहते है वे ऊबे है और सोए है। एक ही चीज, एक ही चर्चा है, जिसमें कोई उत्‍तेजना नहीं, कोई बदलाहट नहीं। वहां मानो कुछ होता ही नहीं; वहां समाचार नहीं बनते। चीजें वैसे ही चलती रहती है। जैसे सदा से चलती रही है। वे वर्तुल में घूमती रहती है। जैसे ऋतुऐ घूमती है। प्रकृति घूमती है, दिन-रात वर्तुल में घूमते रहते है। वैसे ही गांव में, पुराने गांव में जीवन वर्तुल में घूमता है। यही वजह है कि गांव वालों को इतनी आसानी से नींद आ जाती है। वहां सब कुछ उबाने वाला है।
आधुनिक जीवन उत्तेजनाओ से भर गया है; वहां कुछ भी दोहराता नहीं है। वहां सब कुछ बदलता रहता है, नया होता रहता है। जीवन की भविष्‍यवाणी वहां नहीं की जा सकती। और तुम इतने उत्‍तेजना से भरे हो कि नींद नहीं आती। हर रोज तुम नयी फिल्‍म देख सकते हो, हर रोज तुम नया भाषण सुन सकते हो। हर रोज एक नयी किताब पढ़ सकते हो। हर रोज कुछ न कुछ नया उपलब्‍ध है। यह सतत उत्‍तेजना जारी है। जब तुम सोने को जाते हो तब भी उत्‍तेजना मौजूद रहती है। मन जागते रहना चाहता है। उसे सोना व्‍यर्थ मालूम होता है।
अगर तुम किसी विशेष ध्‍वनि को दोहराते रहो तो वह तुम्‍हारे भीतर वर्तुल निर्मित कर देती है। उससे ऊब पैदा होती है। उससे नींद आती है। यही कारण है कि पश्‍चिम में महेश योगी का टी. एम. भावतित ध्‍यान बिना दवा का ट्रैंक्विलाइजर माना जाने लगा है। वह इसलिए क्‍योंकि वह मात्र मंत्र-जाप है। लेकिन अगर मंत्र-जाप केवल जाप बन जाए, तुम्‍हारे भीतर कोई सावचेत न रहे तो जाप को सुनता हो, तो उससे नींद तो आ सकती है। लेकिन और कुछ नहीं हो सकता। ट्रैंक्विलाइजर के रूप में वह ठीक है; अगर तुम्‍हें अनिद्रा का रोग है तो टी. एम. ठीक है। उसे सहायता मिलेगी।
तो ओम के उच्‍चार को सजग आंतरिक कान से सुनो। और तब तुम्‍हें दो काम करने है। एक और मंत्र के स्‍वर को धीमे से धीमा करते जाओ, उसको मंद और सूक्ष्‍म करते जाओ और दूसरी और उसके साथ-साथ ज्‍यादा से ज्‍यादा सजग होते जाओ। जैसे-जैसे ध्‍वनि सूक्ष्‍म होगी। तुम्‍हें अधिकाधिक सजग होना होगा। अन्‍यथा तुम चूक जाओगे।
यह विधि है: ‘’ओम जैसी किसी ध्‍वनि का मंद-मंद उच्‍चारण करो। जैसे-जैसे ध्‍वनि पूर्णध्‍वनि में प्रवेश करती है, वैसे-वैसे तुम भी।‘’
और उस क्षण की प्रतीक्षा करो जब ध्‍वनि इतनी सूक्ष्‍म , इतनी आणविक हो जाए कि अब किसी भी क्षण नियमों के जगत से, तीन के जगत से एक के जगत में, परम के जगत में छलांग ले ले। तब तक प्रतीक्षा करो। ध्‍वनि का विलीन हो जाना—यह मनुष्‍य के लिए सर्वाधिक सुंदर अनुभव है। तब तुम्‍हें अचानक पता चलता है कि ध्‍वनि कही विलीन हो गई। जरा देर पहले तक तुम ओम-ओम की सूक्ष्‍म ध्‍वनि को सुन रहे थे और अब वह बिलकुल नहीं है। तुम एक के जगत में प्रवेश कर गए; तीन का जगत जाता रहा। तंत्र इसे पूर्णध्‍वनि कहता है। बुद्ध इसे ही निर्ध्‍वनि कहते है।
यह एक मार्ग है—सर्वाधिक सहयोगी, सर्वाधिक आजमाया हुआ। इस कारण ही मंत्र इतने महत्‍वपूर्ण हो गए। ध्‍वनि मौजूद ही है और तुम्‍हारा मन ध्‍वनि से भरा है; तुम उसे जंपिग बोर्ड बना सकते हो।
लेकिन इस मार्ग की अपनी कठिनाइयां है। पहली कठिनाई नींद है। जिसे भी मंत्र का उपयोग करना हो उसे इस कठिनाई के प्रति सजग होना चाहिए। नींद ही बाधा है। यह उच्‍चार इतना पुनरूक्‍ति भरा है। इतना लयपूर्ण है, इतना उबाने वाला है। कि नींद का आना लाजिमी है। तुम नींद के शिकार हो सकते हो। और यह मत सोचो कि तुम्‍हारी नींद ध्‍यान है। नींद ध्‍यान नहीं है। नींद अपने आप में अच्‍छी है। लेकिन सावधान रहो। नींद के लिए ही अगर मंत्र का उपयोग करना है तो बात अलग है। लेकिन अगर उसका उपयोग आध्‍यात्‍मिक जागरण के लिए करना है तो नींद से सावधान रहना जरूरी है। जो मंत्र का उपयोग साधना की तरह करते है उनके लिए नींद दुश्‍मन है। और यह नींद बहुत आसानी से घटती है और बहुत सुंदर है।
यह भी स्मरण रहे कि यह और ही तरह की नींद है। यह सामान्‍य नींद नहीं है। मंत्र से पैदा होने वाली नींद सामान्‍य नींद नहीं है। यह और ही तरह की नींद है। यूनानी उसे ही हिप्‍नोस कहते है; उससे ही ‘’हिप्‍नोसिस’’ शब्‍द बना है। जिसका अर्थ सम्‍मोहन होता है। योग उसे योग-तंद्रा कहता है। एक विशेष नींद, जो सिर्फ योगी को घटित होती है। साधारणजन को नहीं। यह हिप्‍नोस है, सम्‍मोहन-निद्रा है; यह आयोजित है, सामान्‍य नहीं है। और भेद बुनियादी है, यह ठीक से समझ लेना चाहिए।
अनेक मंदिरों में, चर्चों में लोग सो जाते है। धर्म-चर्चा सुनते हुए लोग सो जाते है। उन्‍होंने उन शास्‍त्रों को इतनी बार सुना है कि उन्‍हें ऊब होने लगती है। उस चर्चा में अब कोई उत्‍तेजना न रही। पूरी कथा उन्‍हें मालूम है। तुमने रामायण इतनी बार सूनी है कि तुम मजे से सो सकते हो। और नींद में ही इसे सून सकते हो। और तुम्‍हें कभी ऐसा भी नहीं लगेगा कि तुम सो रहे थे। क्‍योंकि तुम कुछ चुकोगे भी नहीं। कथा से तुम इतने परिचित हो।
उपदेशकों की आवाज गहन रूप से उबाने वाली होती है। नींद पैदा करने वाली होती है। अगर एक ही सुर में तुम कुछ बोलते रहो तो उससे नींद पैदा होगी। अनेक मानस्विद अपने अनिद्रा के रोगियों को धार्मिक चर्चा सुनने की सलाह देते है। उससे नींद में जाना सरल है। जब भी तुम ऊब से भरोंगे तो तुम सो जाओगे। लेकिन यह नींद सम्मोह है, यह नींद योग-तंद्रा है। इसमें भेद क्‍यों है?
साधारण नींद में प्रश्‍न करने वाला मन मौजूद रहता है। वह सौ नहीं जाता है। सम्‍मोहन में तुम्‍हारा प्रश्‍न करने वाला मन सो जाता है। लेकिन तुम नहीं सोए होते हो। यही कारण है कि सम्मोहन विद तुम्‍हें जो कुछ कहता है उसे तुम सुन पाते हो और तुम उसके आदेश का पालन करते हो। नींद में तुम सुन नहीं सकते; तुम तो सोए हो। लेकिन तुम्‍हारी बुद्धि नहीं सोती है। इसलिए अगर कुछ ऐसी चीज हो जो तुम्‍हारे लिए घातक हो सकती है। तो तुम्‍हारी बुद्धि तुम्‍हारी नींद को तोड़ देगी।
एक मां अपने बच्‍चे के साथ सोयी है। वह मां और कुछ नहीं सुनेगा, लेकिन अगर उसका बच्‍चा जरा सी भी आवाज करेगा, जरा भी हरकत करेगा तो वह तुरंत जाग जाएगी। अगर बच्‍चे को जरा सी बेचैनी होगी तो मां जाग जायेगी। उसकी बुद्धि सजग है; तर्क करने वाला मन जागा हुआ है।
साधारण नींद में तुम सोए होते हो; लेकिन तुम्‍हारी तर्क-बुद्धि जागी होती है। इसीलिए कभी-कभी नींद में भी पता चलता है कि वे सपने है। हां, जिस क्षण तुम समझते हो कि यह स्‍वप्‍न है, तुम्‍हारा स्‍वप्‍न टूट जाता है। तुम समझ सकते हो कि यह व्‍यर्थ है; लेकिन ऐसी प्रतीति के साथ ही स्‍वप्‍न टूट जाता है। तुम्‍हारा मन सजग है; उसका एक हिस्‍सा सतत देख रहा है। लेकिन सम्‍मोहन या योग तंद्रा से द्रष्‍टा सो जाता है।
यही उन सबकी समस्‍या है। जो निर्ध्‍वनि या पूर्णध्‍वनि में जाने के लिए, पार जाने के लिए ध्‍वनि की साधना करते है। उन्‍हें सावधान रहना है। कि मंत्र आत्‍मा सम्‍मोहन न पैदा करे। तो तुम क्‍या कर सकते हो।
तुम सिर्फ एक चीज कर सकते हो। जब भी तुम मंत्र का उपयोग करते हो, मंत्रोच्‍चार करते हो, तो सिर्फ उच्‍चार ही मत करो, उसके साथ-साथ सजग होकर उसको सुनो भी। दोनों काम करो: उच्‍चार भी करो और सुनो भी। उच्‍चार और श्रवण दोनों करना अन्‍यथा खतरा है। अगर सचेत होकर नहीं सुनते हो तो उच्‍चार तुम्‍हारे लिए लोरी बन जाएगा। और तुम गहन नींद में सो जाओगे। वह नींद बहुत अच्‍छी होगी। उस नींद से बाहर आने पर तुम ताजे और जीवंत हो जाओगे। तुम अच्‍छा अनुभव करोगे। लेकिन यह असली चीज नहीं है। तुम तब असली चीज ही चूक गए।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—2

Saturday, 3 October 2015

तुम्हें ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना(ओशो)

गरीब जान के हमको न तुम भुला देना
तुम्हें ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना
दर्द में ही दवा है। दर्द के अतिरिक्त और कोई दवा नहीं है। इसीलिए तो मैंने तुमसे कहा कि विरह में मिलना छिपा है। आंसुओ में मुस्कुराहट छिपी है। अगर तुम हृदय पूर्वक रो सको, तो मिलन हो जाए। तुम दर्द ही नहीं उठने देते, वही तकलीफ है। वही अड़चन है। तुम दवा की तलाश में हो, और दवा दर्द की गहराई में है।
इसलिए तो तुमसे बार—बार कहता हूं—रोओ, पुकारों, चीखो, तड़फो—मछली की तरह तड़फो; जैसे मछली को किसी ने सागर से खींच कर किनारे पर पटक दिया हो। तुम ऐसी ही मछली हो जिसका सागर खो गया है और संसार की कड़ी धूप और गर्म रेत में तुम पड़े हो। तड़फो, दवा की तलाश मत करो। पुकारों, उछलों—कूदो। उसी उछल—कूद से सागर में वापस लौट जाने की व्यवस्था है। जिस दिन दर्द इतना गहरा हो जाए कि दर्द ही बचे और दर्दी न बचे, उसी दिन दवा हो जाती है। दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना।
अंगूर में थी मय यह पानी की चंद बूंदें
जिस दिन से खिंच गयी है तलवार हो गयी।
आदमी और आदमी में इतना फर्क पड़ जाता है। एक साधारण संसारी है और एक भक्त। इतना फर्क पड़ जाता है जैसे, ‘ अंगूर में थी मय यह पानी की चंद बूंदें’ जब तक अंगूर में रहती है शराब तो कुछ भी नहीं है, पानी की चंद बूंद; ‘जिस दिन से खिंच गयी हैं तलवार हो गयीं’ जब तक तुम छोटी—मोटी पीड़ाओं में पड़े हो, तुम पानी की चंद बूंद हो। धन के लिए रो रहे, यह भी कोई रोना है! आंसू जैसी कीमती चीज धन जैसी बेकीमत चीज के लिए गंवा रहे हो! यह भी कोई रोना है। पत्नी मर गयी, पति मर गया और तुम रो रहे हो, यह भी कोई रोना है! क्योंकि जो मरना ही था, वह मर गया, वह मरने ही वाला था। यहां सब मरणधर्मा है। अमृत के लिए रोओ। मरणधर्मा के लिए रोकर तुम व्यर्थ ही अपना समय खराब कर रहे हो। अपनी आंखें गला रहे हो। मकान गिर गया और तुम रो रहे हो। यहां सब मकान गिर जाने हैं। यहां कोई मकान टिकनेवाला नहीं। यहां सब मकान खंड़हर हो जानेवाले हैं। तुम किन चीजों के लिए रो रहे हो! आंसू जैसी बहुमूल्य चीज कहा गंवा रहे हो! इनसे तो हीरे खरीदे जा सकते हैं, तुम कंकड़—पत्थरों में गिरा रहे हो।
अंगूर में थी मय यह पानी की चंद बूंदें
जिस दिन से खिंच गयीं हैं तलवार हो गयीं।
जिस दिन से तुम्हारे आंसू परमात्मा की तलाश में निकल पडेंगे, तुम्हारे भीतर तलवार पैदा हो जाएगी। तुम पर धार आएगी। तुम्हारे भीतर प्रतिभा का आविर्भाव होगा। दर्द को दबाओ मत। देखते हो, दवा शब्द बड़ा अच्छा है, उसका मतलब ही होता है—’दबाना’ दर्द को दबाओ मत, दवा की तलाश मत करो। दर्द को उभासे। दर्द को जगाओ। फिर इतनी जल्दी क्या है? जिस दिन पकेगा फल उसी दिन गिरेगा। इतना अधैर्य क्यों है?
तुझको पा लेने में यह बेताब कैफियत कहा,
जिंदगी वो है, जो तेरी जुस्तजू में कट जाए।
उसकी प्रार्थना में, उसकी तलाश में उसकी इंतजारी में, ‘जिंदगी वो है जो तेरी जुस्तजु में कट जाए’। पाने की इतनी जल्दी मत करो। पाना तो हो जाएगा। विरह का भी आनंद है। यह दर्द भी मीठा है। इस दर्द की मिठास अभी लो। एक दफा मिलन हो गया, फिर यह दर्द की मिठास दुबारा नहीं संभव होगी। इस दर्द की मिठास को भोग लो। यह दर्द तुम्हें मिटाएगा यह दर्द तुम्हें गलाएगा। यह दर्द तुम्हें समाप्त कर देगा। उसी समाप्ति में तो दवा है, उसी समाप्ति में तो मिलन है।
मगर एक ही बात खयाल रखो। मिटने में बुराई नहीं है। अगर विराट के लिए मिट रहे हो तो सौभाग्य है। क्षुद्र के लिए मत मिटना। कहे वाजिद पुकार ओशो

Featured post

· . प्रेम आत्मा का भोजन है।

     ·    ·  ....... प्रेम आत्मा का भोजन है। प्रेम आत्मा में छिपी परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग ...