सम्यक-आहार
ऐसा कोई भी भोजन जो उत्तेजक है, मनुष्य की चेतना को नुकसान पहुंचाना शुरू करता है। ऐसा कोई भी भोजन जो मनुष्य को किसी भी तरफ की मूर्छा में, उत्तेजना में, किसी भी तरह की तीव्रता में, किसी भी तरह के विपक्ष में ले जाता हो, वह सभी नुकसान करता है। और उस सबका अंतिम नुकसान और गहरे से गहरा नुकसान नाभि-केंद्र पर पहुंचना शुरू हो जाता है।
यह शायद आपको खयाल न हो, सारी दुनिया में नेचरोपैथी, या नैसर्गिक उपचार--मिट्टी की पट्टियों का, शाकाहारी भोजन का, हल्के भोजन का, पानी की पट्टियों का, टब-बाथ का प्रयोग करते हैं। लेकिन किसी भी नेचरोपैथ को अभी यह खयाल में बात नहीं आई है कि पानी की पट्टियों का, मिट्टी की पट्टियों का, या टब-बाथ का जो भी परिणाम होता है, वह पानी का उतना नहीं है, न मिट्टी का उतना है, बल्कि नाभि-केंद्र के ऊपर उनका जो परिणाम होता है, उसके कारण वे सारे प्रभाव पड़ते हैं। वे प्रभाव न तो मिट्टी के हैं उतने, न पानी के हैं, न टब-बाथ के हैं। लेकिन ये सारी चीजें नाभि-केंद्र की छिपी हुई ऊर्जा को जिस भांति प्रभावित करती हैं और वह यदि जाग्रत हो जाए तो मनुष्य के जीवन में स्वास्थ्य का अवतरण शुरू हो जाता है।
लेकिन अभी नेचरोपैथी को इसका कोई खयाल नहीं है। वे सोचते हैं कि शायद मिट्टी की पट्टी चढ़ाने से यह फायदा हो रहा है, पानी में बिठाने से यह फायदा हो रहा है, पेट पर कपड़े की गीली पट्टी लगाने से यह फायदा हो रहा है! इसके फायदें हैं, लेकिन मौलिक फायदा तो नाभि-केंद्र के सुप्त केंद्रों के जागरण से शुरू होता है। यह जो नाभि-केंद्र है, इसके ऊपर अगर अनाचार किया जाए, इस नाभि-केंद्र के ऊपर अगर गलत आहार, गलत भोजन किया जाए तो वह धीरे-धीरे केंद्र सुप्त होता है। और उसकी ऊर्जा क्षीण होती है। वह धीरे-धीरे केंद्र सोता है। अंततः वह करीब-करीब सो जाता है। उसका हमें कोई पता ही नहीं चलता कि वह भी कोई केंद्र है। हमें फिर दो ही केंद्रों का पता चलता रहता है। एक तो मस्तिष्क है, जहां विचार दौड़ते रहते हैं और एक थोड़े हृदय में, जहां भावनाएं दौड़ती रहती हैं। उसके नीचे हमारे कोई संबंध नहीं रह जाते। जितना हल्का आहार होगा, जितना कम बोझिल आहार होगा, शरीर के ऊपर जो बोझ न लाता हो, उतना ही कीमती और अर्थपूर्ण आपकी अंतर्यात्रा प्रारंभ होगी।
तो सम्यक आहार का पहला तो ध्यान रखना यह है कि वह उत्तेजक न हो, मादक न हो, वह भारी न हो। ठीक भोजन के बाद आपको बोझिलता और भारीपन अनुभव नहीं होना चाहिए। लेकिन शायद भोजन के बाद हम सभी को भारीपन और बोझिलता अनुभव होती है। तो हम गलत भोजन कर रहे हैं, यह हमें जान लेना चाहिए।
एक बहुत बड़े डॉक्टर ने, केनेथवाकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं अपने जीवन-भर के अनुभव से यह कहता हूं कि लोग जो भोजन करते हैं, उसमें से आधे भोजन से उनका पेट भरता है और आधे भोजन से हम डॉक्टरों का पेट भरता है। अगर वे आधा भोजन करें तो वे बीमार ही नहीं पड़ेंगे, और हम डॉक्टरों की कोई जरूरत न रह जाएगी।
यह जो--यह जो हमारी असम्यक दृष्टि है भोजन के प्रति, यह भारी पड़ती चली जा रही है। यह बहुत महंगी पड़ती चली जा रही है। और यह उस जगह हमको पहुंचा दी है, जहां कि हम किसी तरह जिंदा हैं। भोजन हमारा हमें स्वास्थ्य लाता हुआ नहीं मालूम पड़ता, बल्कि भोजन बीमारी लाता हुआ मालूम पड़ता है। और जब भोजन बीमारी लाने लगे तो आश्चर्य की घटना शुरू हो गई।
यह वैसे ही है कि सूरज सुबह निकले और अंधकार हो जाए। यह उतनी ही आकस्मिक और आश्चर्यजनक घटना है। लेकिन दुनिया के सारे चिकित्सकों का मत यह है कि आदमी की अधिकतम बीमारियां उसके गलत भोजन की बीमारियां हैं।
पहली बात--प्रत्येक व्यक्ति को इस संबंध में बहुत बोध और होश से चलना चाहिए--साधक के लिए मैं कह रहा हूं यह--साधक को यह ध्यान में रखना जरूरी है कि वह क्या खाता है, कितना खाता है और उसके परिणाम उसके शरीर पर क्या है? और अगर एक आदमी दो-चार महीने ध्यानपूर्वक प्रयोग करे, तो वह अपने योग्य, अपने शरीर को समता और शांति और स्वास्थ्य देने वाले भोजन की तलाश जरूर कर लेगा। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन हम ध्यान ही नहीं देते हैं, इसलिए हम कभी तलाश ही नहीं कर पाते। हम कभी खोज ही नहीं पाते।
दूसरी बात--भोजन के संबंध में, जो हम खाते हैं, उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम उसे किस भाव-दशा में खाते हैं। उससे भी ज्यादा महत्पवूर्ण है। आप क्या खाते हैं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह महत्वपूर्ण है कि आप किस भाव-दशा में खाते हैं। आप आनंदित खाते हैं, या दुखी, उदास और चिंता से भरे हुए खाते हैं। अगर आप चिंता से खा रहे हैं, तो श्रेष्ठतम भोजन के परिणाम भी पायजनस होंगे, जहरीले होंगे। और अगर आप आनंद से खा रहे हैं, तो कई बार संभावना भी है कि जहर भी आप पर पूरे परिणाम न ला पाए। बहुत संभावना है। आप कैसे खाते है ? किस चित्त दशा में?
रूस में एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक था पीछे--पावलव। उसने जानवरों पर कुछ प्रयोग किए और वह उस नतीजे पर पहुंचा, जो बड़े हैरानी का है। वह कुछ कुत्तों पर प्रयोग कर रहा था, कुछ बिल्लियों पर प्रयोग कर रहा था। उसने एक बिल्ली को भोजन दिया और सामने उसके एक्स-रे मशीन लगा रखी थी, जिससे वह देख रहा था कि उस--उस बिल्ली के पेट में क्या हो रहा है भोजन के बाद। भोजन पेट में गया और भोजन के जाते ही पेट ने उस भोजन को पचाने वाले रस छोड़े। तभी एक कुत्ते को भी खिड़की के भीतर ले आया गया। कुत्ता भौंका, बिल्ली देखकर डर गई और एक्स-रे की मशीन ने बताया कि उसके रस भीतर छूटने बंद हो गए! पेट बंद हो गया, सिकुड़ गया!
फिर कुत्ते को बाहर निकाल दिया गया, लेकिन छह घंटे तक पेट उसी हालत में पड़ा रहा! फिर भोजन के पचाने की क्रिया शुरू नहीं हुई! और छह घंटे में भोजन सब ठंडा हो गया। और छह घंटे के बाद जब रस छूटने शुरू हुए तो वह भोजन सब ठंडा हो चुका था। उस भोजन को पचाना कठिन हो गया। बिल्ली के मन में चिंता पकड़ गई, कुत्ते की मौजूदगी और पेट ने अपना काम बंद कर दिया।
हमारी हालत क्या होगी? हम तो चिंता में ही चौबीस घंटे जीते हैं। तो हम जो भोजन करते होंगे, वह कैसे पच जाता है यह मिरेकल है, यह बिलकुल चमत्कार है। यह भगवान कैसे करता है, हमारे बावजूद करता है यह। हमारी कोई इच्छा उसके पचने की नहीं है। यह कैसे पच जाता है, यह बिलकुल आश्चर्य है! और हम कैसे जिंदा रह लेते हैं, यह भी एक आश्चर्य है! भावदशा--आनंदपूर्ण, प्रसादपूर्ण निश्चित ही होनी चाहिए।
जितने आनंद की, जितने निश्चित और जितने उल्लास से भरी भावदशा में कोई भोजन ले सकता है, उतना ही उसका भोजन सम्यक होता चला जाता है।
हिंसक भोजन यही नहीं है कि कोई आदमी मांसाहार करता हो। हिंसक भोजन यह भी है कि कोई आदमी क्रोध से आहार करता हो। ये दोनों ही वायलैंट हैं, ये दोनों ही हिंसक हैं। क्रोध से भोजन करते वक्त, दुख में, चिंता में भोजन करते वक्त भी आदमी हिंसक आहार ही कर रहा है। क्योंकि उसे इस बात का पता ही नहीं है कि वह जब किसी और का मांस लाकर खा लेता है, तब तो हिंसक होता ही है, लेकिन जब क्रोध और चिंता में उसका अपना मांस भीतर जलता हो, तब वह जो भोजन कर रहा है, वह भी अहिंसक नहीं हो सकता है। वहां भी हिंसा मौजूद है।
सम्यक आहार का दूसरा हिस्सा है कि आप अत्यंत शांत, अत्यंत आनंदपूर्ण अवस्था में भोजन करें। और अगर ऐसी अवस्था न मिल पाए, तो उचित है कि थोड़ी देर भूखे रह जाएं, उस अवस्था की प्रतीक्षा करें। जब मन पूरा तैयार हो, तभी भोजन पर उपस्थित होना जरूरी है। कितनी देर मन तैयार नहीं होगा? मन के तैयार होने का अगर खयाल हो, तो एक दिन मन भूखा रहेगा, कितनी देर भूखा रहेगा? मन को तैयार होना पड़ेगा। मन तैयार हो जाता है, लेकिन हमने कभी उसकी फिक्र नहीं की है। हमने भोजन डाल लेने को बिलकुल मेकेनिकल, एक यांत्रिक क्रिया बना रखी है कि शरीर में भोजन डाल देना है और उठ जाना है। वह कोई साइकोलाजिकल प्रोसेस, वह कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं रही है। यह घातक बात है।
शरीर के तल पर सम्यक आहार स्वास्थ्यपूर्ण हो, अनुत्तेजनापूर्ण हो, अहिंसक हो और चित्त के आधार पर आनंदपूर्ण चित्त की दशा हो, प्रसादपूर्ण मन हो, प्रसन्न हो, और आत्मा के तल पर कृतज्ञता का बोध हो, धन्यवाद का भाव हो। ये तीन बातें भोजन को सम्यक बनाती हैं।
-ओशो
साधना पथ
Monday, 29 June 2015
कैसा भोजन हो *ओशो*
yogi aur veshya (osho)
एक नगर में एक दिन दो मृत्यु हो गई थी! बड़ी अजीब घटना हुई थी१ एक योगी और एक वेश्या ----दोनों एक ही दिन एक ही घडी में संसार से चल दिए थे! दोनों का आवास भी आमने-सामने ही था! दोनों जीए भी साथ ही साथ और मरे भी साथ ही साथ! एक और गहरा आशचर्य भी था! वह तो योगी और वेश्या को छोड़ और किसी को ज्ञात नहीं है! जैसे ही उनकी मृत्यु हुई, वैसे ही उन्हें ले जाने के लिए ऊपर से दूत आए, लेकिन वे दूत वेश्या के लेकर स्वर्ग की और चले और योगी को लेकर नर्क की और! योगी ने कहा: "मित्रो, निशचय ही कुछ भूल हो गई है! वेश्या को स्वर्ग की और लिये जाते हो और मुझे नर्क की और? यह कैसा अन्याय है--यह कैसा अंधेर है?" उन दूतों ने कहा: "नहीं महानुभाव, न भूल है न अन्याय, न अंधेर! कृपाकर थोड़ा नीचे देखें!" योगी ने नीचे धरती की और देखा! वहां उसके शरीर को फूलों से सजाया गया था और उसका विशाल जलूस निकाला जा रहा था! हजारों-हजारों लोग रामधुन गाते हुए, उसके शरीर को शमशान की और ले जा रहे थे! वहां उसके लिए चंदन की चिता तैयार थी, और दूसरी और सड़क के किनारे वेश्या की लाश पड़ी थी! उसे कोई उठानेवाला भी नहीं था, इसलिए गीध और कुत्ते उसे फाड़-फाड़कर खा रहे थे!
यह देख वह योगी बोला: "धरती के लोग ही कहीं ज्यादा न्याय कर रहे है!"
उन दूतों ने उत्तर दिया: "क्योंकि धरती के लोग केवल वही जानते है, जो बाहर था! शरीर से ज्यादा गहरी उनकी पहुंच नहीं! असली सवाल तो शरीर का नहीं, मन का है! शरीर से तुम सन्यासी थे, किंतु मन में तुम्हारे क्या था? क्या सदा ही तुम्हारा मन वेश्या में अनुरक्त नहीं था? क्या सदा ही तुम्हारे मन में यह वासना नहीं जागती रही कि उधर वेश्या के घर में कैसा सुंदर संगीत और नृत्य चल रहा है, वहां बड़ा आनंद आता होगा और मेरा जीवन कैसा नीरस है! और उधर वह वेश्या थी! वह निरंतर ही सोचती थी कि योगी का जीवन कैसा आनंदपूर्ण है! रात्रि को जब तुम भजन गाते थे तो वह भाव-विभोर हो रोती थी! इधर सन्यासी के अहंकार से तुम भरते जा रहे थे, उधर पाप की पीड़ा से वह विनम्र होती जाती थी! तुम अपने तथाकथित ज्ञान के कारण कठोर होते गए और वह अपने अज्ञान-बोध के कारण सरल! अंतत तुम्हारा अहंकारग्रस्त व्यक्तित्व बचा और उसका अहंशून्य! मृत्यु के क्षण में तुम्हारे चिट में अहंकार था, वासना थी! उसके चिट में न अहंकार था, न वासना! उसका चिट तो परमात्मा के प्रकाश, प्रेम और प्रार्थना से परिपूर्ण था!" जीवन का सत्य बाह्य आचरण में नहीं है! फिर बाह्य के परिवर्तन से क्या होगा?
सत्य है बहुत आंतरिक---आत्यंतिक रूप से आंतरिक! उसे जानने और पाने के लिए व्यक्तित्व की परिधि पर नहीं, केंद्र पर श्रम करना होता है! उस केंद्र को खोजो! खोजने से वह निश्चय ही मिलता है, क्योंकि वह स्वयं में ही तो छिपा है!
धर्म परिधि का परिवर्तन नहीं, अंतस की क्रांति है !
धर्म परिधि पर अभिनय नहीं, केंद्र पर श्रम है!
धर्म श्रम है, स्वयं पर! उस श्रम से ही स्व मिटता और सत्य उपलब्ध होता है! ----- ओशो (मिट्टी के दीये )
Osho rahimandhaga prem ka
सोमरस
जो श्रेष्ठतम हे, उसे वेदों ने सोमरस कहा है। सदिया हो गई, न मालूम कितने लोग सोमरस की तलाश में रहे है। वैज्ञानिक हिमालय की खाइयों में, पहाड़ियों में, सोमरस किस पौधे से पैदा होता था, उसकी अनथक अन्वेषण करते रहे है। अब तक कोई जान नहीं पाय कि सोमरस कैसे पैदा होता था? सोमरस क्या था?
वे जान भी नहीं पाएंगे। सोमरस स्थूल बात नहीं है। सोमरस तो ऋषियों के पास, उनकी सन्निधि में, उनके मौन में, उनके ध्यान में लय वद्ध हो जाने से मिलता था। वह किन्हीं पौधों से नहीं मिलता था। वह किन्हीं फलों से नहीं मिलता। वह किन्हीं फूलों से नहीं मिलता। वह तो जिनको चेतना का कमल खिला है, उनसे जो उठती है सुवास, उनसे जो गंध उठती है। उनसे जो आलोक बिखरता है, उससे मिलता है।
सोम चंद्रमा का नाम है। साधारणत: व्यक्ति सूर्य का अंश होता है। साधारणत: सभी सूर्यवंशी होते है। सिर्फ बुद्ध पुरूषों को छोड़ कर। सूर्यवंशी होने का अर्थ है कि तुम्हारे भीतर ऊर्जा उत्तप्त है। जैसे बुखार में हो; विक्षिप्त है। इस सूर्य की उत्तप्त ऊर्जा को जब कोई व्यक्ति अपने भीतर शांत कर लेता है। जब काम राम में रूपांतरित होता है। तब तुम चंद्र वंशी हो जाते हो। तब तुम सूर्य से हटते हो, चंद्रमा की तरफ तुम्हारी यात्रा शुरू होती है। और एक ऐसी पूर्ण घड़ी भी आती है जीवन में, अपूर्व घड़ी भी आती है—रहस्य की, अनुपम अनुभव की—जब तुम चंद्र हो जाते हो।
इसी बात को बुद्ध के जीवन में प्रतीक रूप से कहा गया है। गौतम बुद्ध का जन्म पूर्णिमा की रात को हुआ। उन्हें बुद्धत्व भी प्राप्त हुआ पूर्णिमा की रात्रि को। और उसी पूर्णिमा की रात्रि को बुद्ध की मृत्यु भी हुई। उनका देह त्याग भी उसी महा की पूर्णिमा, वहीं पूर्णिमा को। जैसे जन्म, जीवन और मृत्यु सब एक बिंदु पर आकर मिल गए। सब पूर्णिमा पर आकर मिल गए। जैसे चंद्रमा पुर्ण हुआ। बुद्ध के पास बैठ कर जिन्होंने पिया। उन्होंने ही जाना की सोमरस क्या है? बुद्ध के कमल से जो गंध उठी, उनके चंद्र से जो किरणें फैली, उसकी पीने की क्षमता जुटाने वालों को ही पता चलेगा। वहीं सोमरस ऋषियों के संग बैठ कर उन शिष्यों ने जाना। जो उनके इतने पास आते थे उनके लिए ही सूक्ष्म रसों की प्रक्रिया शुरू हो जाती थी। लेकिन सोमरस तभी पिलाया जा सकता है। जब किसी का पात्र तैयार हो। ये केवल शिष्य ही पी सकते है।
सोमरस से सुंदर और कोई नाम नहीं है। मैं यहां तुम्हें सोमरस पिला रहा हूं। पीओ जी भर कर कंजूसी मत करना जरा भी।
ओशो ,प्रवचन-7, रहिमन धागा प्रेम का.
Osho how to live happy
एक सादगी भरा व्यक्ति जान लेता है कि प्रसन्नता जीवन का स्वभाव है। प्रसन्न रहने के लिए किन्हीं कारणों की जरूरत नहीं होती। बस तुम प्रसन्न रह सकते हो। केवल इसीलिए कि तुम जीवित हो। जीवन प्रसन्नता है जीवन आनंद है लेकिन ऐसा संभव होता है केवल एक सहज सादे व्यक्ति के लिए ही। वह आदमी जो चीजें इकट्ठी करता रहता है, हमेशा सोचता है कि इन्ही चीजों के कारण उसे प्रसन्नता मिलने वाली है….। आलीशान भवन, धन, सुख-साधन, वह सोचता है कि इन्हीं चीजों के कारण वह प्रसन्न है। समस्या धन-दौलत की नहीं है, समस्या है आदमी की दृष्टि की जो धन खोजने का प्रयास करती है। दृष्टि यह होती है, जब तक मेरे पास ये तमाम चीजें नहीं हो जाती है, मैं प्रसन्न नहीं हो सकता हूं। यह आदमी सदा दुखी रहेगा। एक सच्चा सादगी पसंद आदमी जान लेता है कि जीवन इतना सीधा सरल है कि जो कुछ भी है उसके पास, उसी में वह खुश हो सकता है। इसे किसी दूसरी चीज के लिए स्थगित कर देने की उसे कोई जरूरत नहीं है।
तब सादगी का अर्थ होगा: तुम्हारी आवश्यकताओं तक आ जाओ; इच्छाएं पागल होती है, है,आवश्यकताएं स्वाभाविक होती है। भोजन, घर, प्रेम; तुम्हारी सारी जीवन ऊर्जा को मात्र आवश्यकताओं के तल तक ले आओ। और तुम आनंदित हो जाओगे। और एक आनंदित व्यक्ति धार्मिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। और एक अप्रसन्न व्यक्ति अधार्मिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। हो सकता है वह प्रार्थना करे, हो सकता है, वह मंदिर जाए,हो सकता है। मस्जिद जाये। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। एक अप्रसन्न व्यक्ति कैसे प्रार्थना कर सकता है? उसकी प्रार्थना में गहरी शिकायत होगी। दुर्भाव होगा। वह एक नाराजगी होगी। प्रार्थना तो एक अनुग्रह का भाव है, शिकायत नहीं।
इसलिए ध्यान रहे। जितने ज्यादा कब्जा जमाने की वृति से जुड़ते हो, उतने ही कम प्रसन्न होओगे तुम। जितने कम प्रसन्न होते हो तुम,उतने ही दूर तुम हो जाओगे परमात्मा से, प्रार्थना से, अनुग्रह के भाव से। सीधे-सहज होओ। आवश्यक बातों सहित जीओं और भूल जाओ आकांक्षाओं के बारे में; वे मन की कल्पनाएं है, झील की तरंगें है। वे केवल अशांत ही करती है, तुम्हें वे किसी संतोष की और तुम्हें नहीं ले जा सकती है।
ओशो
पतंजलि—योग-सूत्र,
भाग—2
प्रवचन-11
21अप्रैल, 1975, पूना
Laughing meditation osho
हंसना कुछ ऊर्जा तुम्हारे अंतर्केंद्र से परिधि पर ले आती है। ऊर्जा हंसने के पीछे छाया की भांति बहने लगती है। तुमने कभी इस पर ध्यान दिया? जब तुम वास्तव में हंसते हो, तो उन थोड़े से क्षणों के लिए तुम एक गहन ध्यानपूर्ण अवस्था में होते हो। विचार प्रक्रिया रुक जाती है। हंसने के साथ-साथ विचार करना असंभव है। वे दोनों बातें बिलकुल विपरीत हैं: या तो तुम हंस सकते हो, या विचार ही कर सकते हो। यदि तुम वास्तव में हंसो तो विचार रुक जाता है। यदि तुम अभी भी विचार कर रहे हो तो तुम्हारा हंसना थोथा और कमजोर होगा। वह हंसी अपंग होगी।
जब तुम वास्तव में हंसते हो, तो अचानक मन विलीन हो जाता है। जहां तक मैं जानता हूं, नाचना और हंसना सर्वोत्तम, स्वाभाविक व सुगम द्वार हैं। यदि सच में ही तुम नाचो, तो सोच-विचार रुक जाता है। तुम नाचते जाते हो, घूमते जाते हो, और एक भंवर बन जाते हो--सब सीमाएं, सब विभाजन समाप्त हो जाते हैं। तुम्हें इतना भी पता नहीं रहता कि कहां तुम्हारा शरीर समाप्त होता है और कहां अस्तित्व शुरू होता है। तुम अस्तित्व में पिघल जाते हो और अस्तित्व तुममें पिघल आता है; सीमाएं एक-दूसरे में प्रवाहित हो जाती हैं। और यदि तुम सच ही नाच रहे हो--उसे नियंत्रित नहीं कर रहे बल्कि उसे स्वयं को नियंत्रित कर लेने दे रहे हो, स्वयं को वशीभूत कर लेने दे रहे हो--यदि तुम नृत्य से वशीभूत हो जाओ, तो सोच-विचार रुक जाता है।
हंसने के साथ भी ऐसा ही होता है। यदि तुम हंसी से आविष्ट और आच्छादित हो जाओ तो सोच-विचार रुक जाता है।
निर्विचार की दशा के लिए हंसना एक सुंदर भूमिका बन सकती है।
हंसी ध्यान के लिए निर्देश
हर सुबह जब जागें, तो अपनी आंखें खोलने से पहले, शरीर को बिल्ली की तरह तानें। तीन या चार मिनट बाद, आंखें बंद रखे हुए ही, हंसना शुरू करें। पांच मिनट के लिए बस हंसें ही। पहले-पहले तो आप इसे सप्रयास करेंगे, लेकिन शीघ्र ही आपके प्रयास से पैदा की गई ध्वनि प्रामाणिक हंसी को जगा देगी। स्वयं को हंसी में खो दें। शायद इस घटना को वास्तव में घटने में कई दिन लग जाएं, क्योंकि हम इससे बहुत अपरिचित हैं। परंतु शीघ्र ही यह सहज हो जाएगा और आपके पूरे दिन का गुण ही बदल जाएगा।
हंसते हुए बुद्ध
जापान में हंसते हुए बुद्ध, होतेई की एक कहानी है। उसकी पूरी देशना ही बस हंसना थी। वह एक स्थान से दूसरे स्थान, एक बाजार से दूसरे बाजार घूमता रहता। वह बाजार के बीचों-बीच खड़ा हो जाता और हंसने लगता--यही उसका प्रवचन था।
उसकी हंसी सम्मोहक थी, संक्रामक थी--एक वास्तविक हंसी, जिससे पूरा पेट स्पंदित हो जाता, तरंगायित हो जाता। वह हंसते-हंसते जमीन पर लोटने लगता। जो लोग जमा होते, वे भी हंसने लगते, और फिर तो हंसी फैल जाती, हंसी की तूफानी लहरें उठतीं, और पूरा गांव हंसी से आप्लावित हो जाता।
लोग राह देखते कि कब होतेई उनके गांव में आए, क्योंकि वह अद्भुत आनंद और आशीष लेकर आता था। उसने कभी भी एक शब्द नहीं बोला--कभी भी नहीं। तुम बुद्ध के बारे में पूछो और वह हंसने लगता; तुम बुद्धत्व के बारे में पूछो और वह हंसने लगता; तुम सत्य के बारे में पूछते कि वह हंसने लगता। हंसना ही उसका एकमात्र संदेश था।
-ओशो
ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति
Wednesday, 24 June 2015
Secret of life(osho)
जीवन में कोई रहस्य है ही नहीं। या तुम कह सकते हो कि जीवन खुला रहस्य है। सब कुछ उपलब्ध है, कुछ भी छिपा नहीं है। तुम्हारे पास देखने की आंख भर होनी चाहिए।
यह ऐसा ही है जैसी कि अंधा आदमी पूछे कि 'मैं प्रकाश के रहस्य जानना चाहता हूं।' उसे इतना ही चाहिए कि वह अपनी आंखों का इलाज करवाए ताकि वह प्रकाश देख सके। प्रकाश उपलब्ध है, यह रहस्य नहीं है। लेकिन वह अंधा है- उसके लिए कोई प्रकाश नहीं है। प्रकाश के बारे में क्या कहें? उसके लिए तो अंधेरा भी नहीं है- क्योंकि अंधेरे को देखने के लिए भी आंखों की जरूरत होती है।
एक अंधा आदमी अंधेरा नहीं देख सकता। यदि तुम अंधेरा देख सकते हो तो तुम प्रकाश भी देख सकते हो; ये एक सिक्के के दो पहलू हैं। अंधा आदमी न तो अंधेरे के बारे में कुछ जानता है न ही प्रकाश के बारे में ही। अब वह प्रकाश के रहस्य जानना चाहता है।
अब हम उसकी मदद कर सकते हैं उसकी आंखों का ऑपरेशन करके। प्रकाश के बारे में बड़ी-बड़ी बातें कह कर नहीं- वे अर्थहीन होंगी। जिस क्षण अहंकार बिदा हो जाता है, उसी क्षण सारे रहस्य खुल जाते हैं। जीवन बंद मुट्ठी की तरह नहीं है; यह तो खुला हाथ है।
लेकिन लोग इस बात का मजा लेते हैं कि जीवन एक रहस्य है- छुपा रहस्य। अपने अंधेपन को छुपाने के लिए उन्होंने यह तरीका निकाला है कि छुपे रहस्य हैं कि गुह्य रहस्य है जो सभी के लिए उपलब्ध नहीं हैं, या वे ही महान लोग इन्हें जान सकते हैं जो तिब्बत में या हिमालय में रहते हैं, या वे जो अपने शरीर में नहीं हैं, जो अपने सूक्ष्म शरीर में रहते हैं और अपने चुने हुए लोगों को ही दिखाई देते हैं।
और इसी तरह की कई नासमझियां सदियों से बताई जा रही है सिर्फ इस कारण से कि तुम इस तथ्य को देखने से बच सको कि तुम अंधे हो। यह कहने की जगह कि 'मैं अंधा हूं', तुम कहते हो, 'जीवन के रहस्य बहुत छुपे हैं; वे सहजता से उपलब्ध नहीं हैं। तुम्हें बहुत बड़ी दीक्षा की जरूरत होती है।'
जीवन किसी भी तरह से गुह्य रहस्य नहीं है। यह हर पेड़-पौधे के एक-दूसरे पत्ते पर लिखा है, सागर की एक-एक लहर पर लिखा है; सूरज की हर किरण में यह समाया है- चारों तरफ जीवन के हर खूबसूरत आयाम में। और जीवन तुम से डरता नहीं है, इसलिए उसे छुपने की जरूरत ही क्या है?
सच तो यह है कि तुम छुप रहे हो, लगातार स्वयं को छुपा रहे हो। जीवन के सामने अपने को बंद कर रहे हो क्योंकि तुम जीवन से डरते हो। तुम जीने से डरते हो- क्योंकि जीवन को हर पल मृत्यु की जरूरत होती है। हर क्षण अतीत के प्रति मरना होता है।
यह जीवन की बहुत बड़ी जरूरत है- यदि तुम समझ सको कि अतीत अब कहीं नहीं है। इसके बाहर हो जाओ, बाहर हो जाओ! यह समाप्त हो चुका है। अध्याय को बंद करो, इसे ढोये मत जाओ! और तब जीवन तुम्हें उपलब्ध है।
अभी के द्वार में प्रवेश करो और सब कुछ उदघाटित हो जाता है- तत्काल खुल जाता है, इसी क्षण प्रकट हो जाता है। जीवन कंजूस नहीं है। यह कभी भी कुछ भी नहीं छुपाता है, यह कुछ भी पीछे नहीं रोकता है। यह सब कुछ देने को तैयार है, पूर्ण और बेशर्त। लेकिन तुम तैयार नहीं हो।
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