हर आदमी अपनी संपत्ति की
सुरक्षा के लिए डरा हुआ है कि संपत्ति कहीं छूट न जाए । जिस यश को आप समझे हुए हैं
मेरा है, आप बहुत गहरे में, प्रत्येक व्यक्ति जानता है, यश मेरा नहीं, क्षण में छूट
सकता है । किसी का दिया हुआ है, बिलकुल उधार है, अभी छीना जा सकता है ।
भय को देखें और समझें कि वह
क्यों है ? बिना उसे समझे भय-मुक्ति के उपाय की कोशिश मत करें । और मेरा कहना है, जो समझ लेता है, उसे
उपाय करने की कोई जरुरत नहीं रह जाती । क्योंकि जिसने समझ लिया कि भय क्यों है,
उसका भय गया । भय को खोजते ही से भय चला जाएगा ।
ये सिकंदर और नेपोलियन और
हिटलर कोई बहादुर आदमी मत समझना, ये सब भयभीत लोग हैं । असल में ये दूसरे को मार
कर अपने को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि हम इतने लोगों को मर सकते हैं तो हमको
कौन मार सकेगा ! कुल और कोई बात नहीं ।
मिटना हमें
कंपाता है । दूर लगती हो म्रृत्यु, फिर भी पास है । सत्तर साल बाद, क्या फर्क पड़ता
है ? म्रृत्यु सदा आपके निकट खड़ी है । म्रृत्यु से ज्यादा पड़ोस में और कोई भी नहीं
। उस म्रृत्यु की प्रतीति कंपाती है।
तुम तिनके का सहारा खोज रहे
हो और मैं जानता हूं कि तिनके से कोई बच नहीं सकता । शायद तिनके के कारण ही तुम
डूब जाओ । क्योंकि जिसने तिनके को नाव समझ लिया, वह फिर नाव की खोज बंद कर देगा ।
और जिसने झूठे किनारे को देख लिया, उसका असली किनारा फिर बहुत दूर है ।
तुम आकाश को देखो, कि सागर
को, कि सरिता को, कि जो भी तुम्हारे पास आए या कोई भी तुम्हारे पास न आए, तुम अकेले
बैठे हो, तो भी तुम्हारे चारों तरफ प्रेम झरता है । जैसे एक दीया अकेले में जलता
हो, तो भी किरणें बरसती रहती हैं । प्रेम तब तुम्हारा स्वभाव है ।
कौन कंपता है ? शरीर तो कंप
नहीं सकता, क्योंकि शरीर पदार्थ है । आत्मा कंप नहीं सकती, क्योंकि आत्मा अमृत है
। फिर कौन कंपता है ? यह शरीर और आत्मा के बीच में वह जो तादात्म्य का सेतु है, वह
जो ब्रिज है, वह कंपता उसका है, सारा भय उसका है ।
तुम भय से डरो मत । क्योंकि
तुम भय से जितने भागोगे, डरोगे, उतनी ही तुम्हारे जीवन की तपश्चर्या और अग्नि
क्षीण हो जाएगी । क्योंकि भय तो धौंकनी है । उससे तो अग्नि प्रज्वलित होती है ।
जहां-जहां भय हो, वहीं चुनौती को स्वीकार कर के प्रवेश करो । उसी से तो योद्धा
पैदा होता है ।
भय से जागो । जब सारा शरीर कंपता हो तब भी तुम्हारी चेतना
न कंपे, चेतना अकंप रहे, तो भय धौंकनी हो गयी ।
जो भय का उपयोग करना सीख
लेता है, नानक कहते हैं, उसके लिए भय धौंकनी हो जाता है । और हर भय की अवस्था
तपस्या की अग्नि को प्रज्वलित करती है ।
ध्यान की कला भी चोरी जैसी
है । वहां इतना ही होश चाहिए । बुद्धि अलग हो जाए, सजगता हो जाए । जहां भय होगा,
वहां सजगता हो सकती है । जहां खतरा होता है, वहां तुम जाग जाते हो । जहां खतरा
होता है, वहां विचार अपने-आप बंद हो जाते हैं । इसलिए नानक कहते हैं, ‘भय धौंकनी
है । ‘
ऐसी कोई भी चीज जीवन में
नहीं है जिसका उपयोग न हो सके । कामवासना ब्रहाचर्य बन जाती है । क्रोध करुणा हो
जाता है । भय प्रार्थना बन जाता है । दुख तपश्चर्या हो जाती है । कलाकार चाहिए,
कुशलता चाहिए । और नहीं तो जीवन जो महल बन सकता था, वही तुम्हारे लिए काराग्रह बन
जाता है । तुम पर सब निर्भर है ।
अपने भीतर जो भी छिपा है,
उसे जानने में लगें । और देखें कि जैसे-जैसे आप जानते जाएंगे, वैसे-वैसे आप पाएंगे
कि वे ही शक्तियां जो आपके लिए घातक सिद्ध होती थीं, आपके लिए साधक हो गई हैं । वे
ही जो आपके लिए मार्ग के पत्थर थे, सीढ़ियां बन गई हैं ।
जो व्यक्ति भय के प्रति
सचेत हो जाएगा, भय का जो भी जीवन संरक्षक तत्व है वह शेष रह जाएगा और बाकी सब भय
विलीन हो जाएंगे । जो व्यक्ति क्रोध के प्रति सचेत हो जाएगा, क्रोध में जो भी जीवन
संरक्षक है वह शेष रह जाएगा और जो जीवन संरक्षक नहीं है वह विलीन हो जाएगा । और तब
क्रोध ही तेज बन जाता है । जिस व्यक्ति में क्रोध ही नहीं, उसमें तेज ही नहीं होता
।
आपको पता नहीं है कि ईश्वर
है, तो अपने बच्चे को मत सिखाएं कि ईश्वर है । बच्चे को कहें कि मैं भी खोज रहा
हूं, लेकिन अब तक मुझे कुछ पता नहीं चला । मेरे प्राण भी प्यासे हैं कि मैं जानूं
कि यह क्या है जीवन ? उसके लिए चाहिए साहस, उसके
लिए चाहिए अभय, उसके लिए चाहिए अदम्य जिज्ञासा
छोटा सा बच्चा है, आप क्या
कर रहे हैं उसके साथ ? पूरी मनुष्य-जाति के साथ यह पाप हुआ है, कि धर्म के नाम पर
भय सिखाया गया है_ नरक का भय, पाप का भय; और सिखाया गया है प्रलोभन_ स्वर्ग का
प्रलोभन और भय, दोनों संगी-साथी हैं, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
यह सारी दुनिया में_ भगवान
को भय करो, भगवान से डरो_ इसका यह परिणाम हुआ है कि सारी दुनिया आज भगवान के खिलाफ
खड़ी हो गई है । यह उस घ्रणा का इकट्ठा विस्फोट है जो हजारों साल से मनुष्य के मन
में इकट्ठी होती रही है । क्योंकि जिसको हम भय करते हैं उसके प्रति घ्रणा पैदा हो
जाती है ।
भय किस बात का ? तुम खो
क्या सकते हो ? कभी तुम सोचते ही नहीं कि खोने को कुछ भी नहीं है, फिर भी तुम इतने
भयभीत हो रहे हो ! तुम्हारी हालत उस भिखारी जैसी है, जो रात भर जागता है कि कहीं
कोई चोरी न कर ले । और है उसके पास कुछ भी नहीं, जिसकी चोरी हो सके ।
अगर तुम भय के कारण धार्मिक
हो, अगर तुम लोभ के कारण धार्मिक हो, तो तुम्हारी धार्मिकता वास्तवकि नहीं है
जिसने सत्य को देख लिया, वह
अपनी शून्यता को भी देख लेगा कि मेरे पास कुछ भी नहीं है । न चोरि हो सकती है, न
छीन-झपट हो सकता है, न मैं लूटा जा सकता हूं । मेरे पास कुछ नहीं है । मेरा दिवाला
निकलने का उपाय नहीं है । मैं व्यर्थ ही भयभीत हूं ।
धार्मिक व्यक्ति के लिए
साधन ही साध्य हो जाता है, यात्रा ही मंजिल हो जाती है । चलना ही इतना सुखद है कि
पहुंचने की चिंता कौन करता है ? यह रास्ता ही इतना प्यारा है कि मंजिल के सपने कौन
देखता है ? और तब ऐसे व्यक्ति के लिए यही जगह मंजिल हो गई ।
जिससे हम प्रेम करते हैं,
उसका भय खो जाता है; उससे रत्ती भर भय नहीं होता । उसके सामने हम नग्न हो सकते
हैं, उसके सामने हम अपने ह्रदय को पूरा खोल सकते हैं, उसके सामने कोई चीज गुप्त
रखने की जरुरत नहीं है । वह हमारा इतना अपना है कि अब छिपाने का कोई सवाल नहीं है
।
हमने डरा कर लोगों को अच्छा
बनाने की कोशिश की है । और डर से बड़ी कोई बुराई नहीं है । यह तो ऐसे ही है जैसे
कोई जहर से लोगों को जिलाने की कोशिश करे । भय सबसे बड़ा पाप है । और उसको ही हमने
आधार बनाया है जीवन के सारे पुण्यों भी पाप जैसे हो गए हैं ।
तुम डरते हो जीवन के खोने
से, क्योंकि जीवन से बड़ा तुम्हारे हाथ में कुछ भी नहीं है ।
जितनी ही प्रेम में गति
होती है उतना ही अभय उपलब्ध होता है; प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति डरता नहीं; कोई
कारण डरने का न रहा । प्रेम म्रृत्यु से भी नहीं डरा सकते । तुम कहो, हम मार
डालेंगे ! तो प्रेम करने को तैयार हो जाएगा, लेकिन डरेगा नहीं ।
और ध्यान रहे, पुरस्कार भय
का ही रुप है । एक आदमी को हम कहते हैं, गलती करोगे तो नरक में सड़ोगे । यह भी एक
डर है । और यह भी एक डर है कि अगर ठीक न किया तो स्वर्ग चूक जाएगा । यह भी एक डर
है । स्वर्ग है, नरक है; पाप है, पुण्य है; और सब आदमियों को डरा दिया है ।
भय _ बहुत तरह के भय_ जो
मानसिक हैं, हमें चारों तरफ से दबाए हुए हैं । उन्हें हमें पहचान लेना पड़ेगा ।
यह आदमी क्या कर रहा है ।
घुटने पर टिका हुआ आदमी, पैरों में गिरा हुआ आदमी, छाती पीटता हुआ आदमी, कराहता –
चिल्लाता हुआ आदमी भय का सबूत है । लेकिन भय का नाम प्रार्थना है । और किसी
शब्दकोश में नहीं लिखा हुआ है कि भय का मतलब प्रार्थना है, प्रार्थना का मतलब भय
है ।
जब हम आनंद में होते हैं तो
हम कभी नहीं पूछते, कभी नहीं पूछते कि जीवन क्यों है । लेकिन जब हम दुख में होते
हैं, तो हम पूछना शुरु कर देते हैं कि जीवन क्यों है ? जीवन का अर्थ क्या है ? जब
आप आनंद में होते हैं तब आप यह नहीं पूछते कि आनंद का प्रयोजन क्या है । लेकिन जब
दुख में होते हैं तब जरुर पूछते हैं कि दुख का क्या प्रयोजन है ?
लेकिन डर से क्या अच्छा हुआ
? चोर कम हुए ? बेईमानी कम हुई ? काराग्रह रोज बढ़ते जाते हैं, चोर रोज बढ़ते जाते
हैं । कोई कमी नहीं हुई, अदालतों ने कोई फर्क नहीं लाया, पुलिस से कोई अंतर नहीं
पड़ता, कानून कुछ डरा नहीं पाता । भगवान थक गया, स्वर्ग-नरक सब थक गए; आदमी रोज
बिगड़ता ही चला गया ।
ऐसा नहीं है कि हम आफिसरों
को और सरकारी मिनिस्टरों को ही रिश्वत दे रहे हैं । बाप बेटे को रिश्वत दे रहा है,
बेटे बाप को रिश्वत दे रहे हैं । चौबीस घंटे रिश्वत चल रही है । बाप घर आता है,
चाकलेट खरीद ला रहा है । वह रिश्वत है । लेकिन वह देख नहीं रहा, वह कहेगा यह कि
मैं अपने बेटे को बहुत प्रेम करता हूं ।
किसी और को धोखा देने का
कोई अर्थ नहीं है, न कोई बड़ी हानि है । अपने को ही धोखा देना सबसे बड़ी हानि है ।
आदमी अपने को कुछ और समझे जाता है ।
जितना ज्यादा मैं अपने को
शरीर से जोड़ लेता हूं, उतना ही शरीर को विश्राम नहीं मिलता । शरीर को विश्राम तभी
मिल सकता है जब शरीर सिर्फ मेरा एक उपकरण है, उपयोग करता हूं, शांत छोड़ देता हूं ।
रात आप सो गये, शरीर आपका उपकरण नहीं है,
हम शरीर से बुरी तरह जुड़े
हैं कि हम यह सोच ही नहीं सकते कि शरीर के बिना करवट बदलें । हम कैसे करवट बदलेंगे
? शरीर को कोई कठिनाई नहीं है, कठिनाई हमको है । जब तक शरीर करवट न ले, हम कैसे
करवट लेंगे ।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, आप
में विपरीत लक्षण प्रकट होने लगते हैं । जैसे स्त्रियां पचास के करीब पहुंचकर
पुरुष जैसी होने लगती हैं । अनेक स्त्रियों को मूंछ के बाल, दाढ़ी के बाल उगने शुरु
हो जाते हैं । उनकी आवाज पुरुषों जैसी भर्राई हुई हो जाती है । उनके गुण पुरुषों
जैसे हो जाते हैं ।
अभय भय के विपरीत नहीं है,
अभय भय का अभाव है । निर्भयता भय के विपरीत है । निर्भयता भय का दूसरा अति छोर है
।
पुरुष में जो बेचैनी है,
उसी के कारण उसने इतने बड़े साम्राज्य बनाए । पुरुष में जो बेचैनी है, उसी के कारण
उसने विज्ञान निर्मित किया, इतनी खोजें कीं । पुरुष में बेचैनी है, इसलिए वह एवरेस्ट
पर चढ़ा और चांद पर पहुंचा । स्त्री में वह बेचैनी नहीं है, इसलिए स्त्रियों ने कोई
खोज नहीं की, कोई आविष्कार नहीं किया ।
स्त्री संतुलित है, उसके
दोनों पलड़े बराबर हैं, चौबीस-चौबीस । और पुरुष में एक बेचैनी है, उसका एक पलड़ा
थोड़ा नीचे झुका है, एक थोड़ा ऊपर उठा है । इसलिए अगर आप, छोटी बच्ची भी हो और छोटा
लड़का हो, दोनों को देखें, तो लड़के में आपको बेचैनी दिखाई पड़ेगी । लड़की शांत दिखाई
पड़ेगी ।
नाभि का केंद्र फियर और भय
का केंद्र है । जैसे जननेंद्रिय का केंद्र सेक्स का केंद्र है, वैसे नाभि का
केंद्र भय का केंद्र है । यह शायद आपको खयाल में आया होगा कि जब भी आप भयभीत
होंगे, नाभि डांवाडोल हो जाएगी और परेशान हो जाएगी ।
जो आदमी भी जीवन में बहुत
भयभीत हो उसे ध्यान के साथ नाभि के केन्द्र पर थोड़े प्रयोग करने जरुरी होते हैं ।
नाभि भय का केंद्र है । जिन
लोगों का भय का केंद्र बहुत सक्रिय है, उनको थोड़ा नाभि पर ध्यान देना अत्यंत जरुरी
है । इसलिए बहुत-बहुत प्राचीन समय से, जिस लोगों को युध्द की शिक्षा दी जाती, उनके
नाभि केंद्र को ही सबल करने की कोशिश की जाती । भय वहीं पकड़ता है ।
जिसने जीवन को भरपूर जीया
हो वही जीवन और म्रत्यु के चक्र को रोक सकता है ।
जाँन दि बैपटिस्ट शुध्द आग
थे, आग ! उनका सिर काट दिया गया था । रानी ने आदेश दिया था कि उनका सिर एक प्लेट
में रख कर उसे भेंट किया जाए, तभी उसे लगेगा कि देश चैन से रह पायेगा । और यही
किया गया ।
ध्यान की जो शक्ति जगती है,
उसको भी आप बाहर ले जाएंगे, वह तत्क्षण बाहर चली जाएगी । अगर आपको आंखें खुली रखने
का मौका दिया जाए तो वह ध्यान की जो शक्ति जगी है, आपकी आंखों से तत्क्षण बाहर
घूमने लगेगी । आप किसी व्यर्थ चीज पर उसको नष्ट कर देंगे ।
ओशो द्वारा दी गयी
ध्यान-विधियों में सक्रिय ध्यान के चौथे चरण में हमें पूर्णत: स्थिर हो जाना होता
है । इस संबंध में ओशो का सुझाव यहां प्रस्तुत है ।