Thursday, 3 December 2015

Water & ayurvrda

जल और आयुर्वेद
जल और भोजन, दो ऐसे तत्व हैं, जो हम ग्रहण करते हैं और इनको आयुर्वेद के सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। बहुधा जल पीने में हम प्यास को ही प्रेरक मानते हैं, जब प्यास लगी, पानी पी लिया। कब पीना, कितना पीना, कैसे पीना, इस पर कई प्रचलित मान्यतायें हैं जिन्हें सार्वभौमिक मान लिया जाता है, पर गुण और प्रकृति के अनुसार जल के प्रभाव का सम्यक ज्ञान लाभकारी है।

जलं जीवनम्
जल सभी रसों का उत्पादक है, पाचन प्रक्रिया में भोजन से जो पोषक तत्व सोखे जाते हैं, उन्हें रस कहते हैं, रसों से ही रक्त आदि का निर्माण होता है। जल वैसे तो जिसमें मिलाकर पिया जाता है, उसी के गुण ले लेता है, पर इसके अपने ६ गुण भी हैं, शीत, शुचि, शिव, मृष्ट, विमल, लघु। धरती पर आया जल वर्षा का ही होता है, समुद्र से वाष्पित जल अन्य जल स्रोतों से वाष्पित जल की तुलना में अधिक क्षारीय होता है। वर्षाकाल का प्रथम जल और अन्य ऋतु में बरसा जल नहीं पीना चाहिये। बहता जल पीने योग्य होता है, पहाड़ों और पत्थरों से गिरने से जल की अशुद्धियाँ बहुत कम हो जाती हैं। स्थिर जल के स्रोतों में वही जल श्रेष्ठ होता है जिसे सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श मिलता रहे। यदि जल मधुर है तो त्रिदोषशामक, लघु और पथ्य होता है। क्षारीय है तो कफवात शामक, पर पित्त को बढ़ाता है। कषाय हो तो कफपित्त शामक, पर वात को बढ़ाता है।
हर स्थान से निकलने वाली नदियों के जल में कोई न कोई स्थानीय दोष होता है, उसका भी वर्णन वागभट्ट ने ५वें अध्याय में किया है। गौड़, मालवा और कोंकण क्षेत्र से निकलने वाली नदियों में अर्शरोग(बवासीर), महेन्द्र पर्वत ले निकलने वाली नदियों में उदररोग व श्लीपदरोग(हाथीपाँव), सह्याद्रि और विन्ध्य से निकलने वाली नदियों में पाण्डुरोग(एनीमिया) और शिरोरोग, पारियात्र(हिन्दुकुश) पर्वत से निकलने वाला जल त्रिदोष शामक, बल, पौरुष, शक्ति को उत्पन्न करने वाला होता है। इन स्थानों पर रहने वालों लोगों में इस जल से सात्म्य हो जाता है, पर बाहर से आये लोगों में रोग होने की संभावना बनी रहती है।
मन्दाग्नि, गुल्म, पाण्डु, उदररोग, अतिसार, अर्श और ग्रहणी रोग के लोगों को जल कम पीना चाहिये। स्वस्थ मनुष्य को भी अधिक जल नहीं पीना चाहिये, किन्तु ग्रीष्म और शरद में अधिक जल पिया जा सकता है। सामान्यतः शीतल जल का निषेध है, पर मदात्यय(मदिरा से होने वाले विकार), शरीर की ग्लानि, मूर्छा, वमन, परिश्रमजन्य थकावट, भ्रम, प्यास की वृद्धि, शरीर की ऊष्णता, आहार विहार जन्य दाह, रक्तपित्त और विषभक्षण जन्य विकार, इन सबके लिये शीतल जल पीना चाहिये। उष्ण जल, अग्निदीपक, पाचक, कण्ठशोधक, पचने में लघु, उष्ण, वस्ति का शोधक होता है। दक्षिण भारत के कई स्थानों पर भोजन के साथ गुनगुना पानी देते हैं, संभवतः उनकी परम्पराओं में यही गुण और सूत्र रहे होंगे। शीतल जल ६ घंटे में, गर्म कर ठंडा किया ३ घंटे में और गुनगुना जल १ घंटे में पच जाता है। गर्म कर ठंडे किय जल कफकारक नहीं होता है।
९० प्रतिशत रोगों का कारण हमारा पेट है। पेट में भोजन और जल ही जाते हैं। कितना भोजन किया, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि कितने प्रतिशत भोजन पचा। समुचित पाचन ही स्वास्थ्य का साधन है। कोई भी अन्न पहले सूर्य के प्रकाश में पकता है, उसके बाद रसोई में अग्नि की आँच में पकता है और अन्त में आमाशय में भी जठराग्नि में पचता है। पेट में भोजन जाते ही जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है और तब तक रहती है, जब तक भोजन पच नहीं जाता है। श्रमशील व्यक्ति में एक घंटा, सामान्य व्यक्ति में डेढ़ घंटा और ठंडे स्थानों में रहने वालों के पेट में दो घंटे तक यह जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। इस समय यदि पेट में जल गया तो वह जठराग्नि को मन्द या ठण्डा कर देगा और भोजन अपच रह जायेगा। यही अपचा भोजन सारे रोगों की जड़ है, डकार से लेकर, एसिडिटी, मोटापा, रक्त अम्लता, जोड़ों का दर्द, हृदयाघात और कैंसर जैसे भीषण रोग इसके कारण होते हैं। यदि भोजन ठीक से पच गया तो कभी कोई रोग हो ही नहीं सकते हैं। भोजन के बाद वात बढ़ना संकेत है, उसे उपेक्षित न करें, वात सूक्ष्म होती है और हर अंग प्रभावित करने में सक्षम भी।
यही कारण है कि भोजन के तुरन्त बाद पिये जल को विष माना गया है। भोजन के एक घंटे पहले और डेढ़ घंटे बाद तक जल नहीं पीना चाहिये। भोजन के पहले पिया जल शरीर को कृशकाय बनाता है और बाद में पिया जल शरीर में स्थूलता लाता है। भोजन करते समय, भोजन अटकने पर एक दो घूँट जल लिया जा सकता है। दो अन्नों के सन्धिस्थान(रोटी और चावल के बीच में) पर भी एक दो घूँट जल लाभदायक होता है क्योंकि दोनों अन्नों के लिये भिन्न एन्जाइमों का स्राव होता है। यदि भोजन के साथ कुछ तरल लेना हो तो सुबह फलों का रस, दोपहर में छाछ और रात में दूध लिया जा सकता है।
यद्यपि इनमें भी पर्याप्त जल होता है पर जल जिसमें मिलता है, उसके गुण ले लेता है।
पानी कैसे पियें? पानी को घूँट भर भर कर पानी पियें, जैसे गरम दूध पीते हैं। मुँह में क्षार बनता है, लगभग एक लाख ग्रन्थियाँ हैं और एक दिन में कई लीटर तक लार बनती है। पेट में अम्ल बनता है, जो पाचन में ही सहायक होता है। कहते हैं कि यदि पेट सामान्य रहे तो १०० वर्ष तक निरोग जिया जा सकता है। घूँट घूँट पिये पानी से अधिक लार अन्दर जायेगी जो पेट की अम्लता को शमित करेगी। तेज गति से पीने से भी अम्लता कम होगी पर उतनी मात्रा में नहीं। पशुओं को देखें कि वे भी ऐसे ही पीते हैं, चिड़िया बूँद बूँद पीती है, कुत्ता चाट चाट कर पीता है। लार विश्व की सबसे अच्छी औषधि है, इसको अन्दर जाते रहना आवश्यक है। पशुओं को देखिये, वे तो चाट कर अपने घाव तक ठीक लेते हैं। त्वचा के कई रोगों के लिये सुबह की लार अमृतसम है। जो लोग पान मसाला, गुटका, तम्बाकू आदि खाकर थूकते रहते हैं, उनसे बढ़ा अभागा कोई नहीं। एक ही स्थिति में थूक सकते हैं, जब कफ अधिक बढ़ा हो। तो पान खाने वाले क्या करें? पान बिना कत्था और सुपारी के साथ खायें और अन्दर ले लें। पान पित्त और कफ का नाशक है, चूना वात नाशक है, तो यह संयोग तीनों दोषों का निवारण करता है, पर पान देशी हो, तनिक कसैले स्वाद वाला।
पानी कैसा पियें? शीतल जल तो कभी न पियें, सामान्य तापमान का ही पियें, गुनगुना पानी पियें। पेट में ठंडा पानी जाने से शरीर का तापमान कम होता है और पेट में ऊष्मा पहुँचाने के लिये सारा रक्त पेट की ओर बहता है तो शरीर अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं करता है। अधिक ठंडा पीने वालों को कब्ज की भी समस्या रहती है, क्योंकि ठंडे पानी का पृष्ठतनाव(सर्फेस टेंशन) अधिक रहता है, उससे आँतें संकुचित हो जाती है और मल का प्रवाह रोकती है।
सुबह उठते ही पानी पियें, बिना कुल्ला किये हुये, इसे ऊषापान कहते हैं। यदि ताँबे के बर्तन में रात भर का रखा जल हो तो अच्छा, नहीं तो जल गुनगुना कर लें। मात्रा लगभग एक लीटर, घँूट घूँट कर और धीरे धीरे। रात भर सोते समय सारी क्रियायें शिथिल हो जाती हैं, पर लार बनने की प्रक्रिया चलती रहती है,ब्रह्ममुहूर्त में बनी लार सर्वोत्तम होती है। इस लार का उपयोग चिकित्सा के लिये भी होता है। डायबिटीज के रोगियों के घाव ठीक करने में यह लार बड़ी उपयोगी होती है। चश्मे उतारने के लिये सुबह की लार आँखों में लगाने से अद्भुत लाभ हैं। लार में वह सब कुछ है जो माटी में है, जो शरीर में है, यही कारण है कि त्वचा में लगे दाग आदि भी इस लार से चले जाते हैं।
पानी खड़े होकर कभी न पियें, सदा ही बैठकर पियें, कहते हैं कि खड़े होकर जल पीने से गठिया आदि रोग हो जाते हैं। भार के अनुसार पानी पीना चाहिये। अपने वजन को दस से भाग देकर उसमें दो घटा दें, उतना लीटर पानी एक दिन में पिये, ७० किलो के व्यक्ति के लिये ५ लीटर। प्यास एक वेग भी है, कभी न रोकें, शरीर में जल की कमी होते ही वह रक्त से वह कमी पूरी करने लगता है।
जल जीवन है और जीवन का यह रूप जानना आवश्यक है।।

Sunday, 22 November 2015

दर्द में कैसे करे ध्यान

ध्यान के दौरान खुजली व दर्द जैसी बाधा डालने वाली भावनाओं से कैसे निबटा जाए ?
ध्यान में, ज्यादातर शारीरिक दर्द बाधा डालते हैं। क्या आप बताएंगे कि जब दर्द हो रहा है तब उस पर ध्यान कैसे किया जाए?
ओशो - यह वही है जिसकी मैं बात कर रहा था। यदि तुम दर्द महसूस करते हो तो इसके बारे में सतर्क रहो, कुछ करो नहीं। ध्यान बहुत बड़ी तलवार है। तुम सिर्फ दर्द पर ध्यान दो।
उदाहरण के लिए, तुम ध्यान के आखिरी चरण में शांति से बैठे हो, बिना हिले-डुले, और तुम बहुत सी परेशानियां शरीर में महसूस करोगे। तुम महसूस करोगे कि पैर मरते जा रहे हैं, सिर में भी खुजली हो रही है, तुम महसूस करोगे कि शरीर पर चींटियां रेंग रही हैं और तुमने बहुत बार देखा – वहां चींटियां नहीं हैं। रेंगना अन्दर महसूस हो रहा है, बाहर नहीं। तुम क्या करोगे? तुम महसूस करते हो पैर मरने जा रहे हैं – इस पर ध्यान करो, इसको सिर्फ सम्पूर्ण ध्यान दो। खुजली महसूस करो – खुजलाना मत, क्योंकि वह मदद नहीं करेगा। सिर्फ ध्यान दो। अपनी आंखें भी मत खोलो। सिर्फ अंदर से ध्यान दो और सिर्फ इंतजार करो और देखो, और कुछ क्षणों में खुजली गायब हो जाएगी। चाहे कुछ भी हो – यदि तुम दर्द भी महसूस करो, तेज दर्द पेट में या सिर में। यह संभव है, क्योंकि ध्यान में सारे शरीर में बदलाव आते हैं। ध्यान शरीर में रसायनिक बदलाव लाता है। नई चीजें होना शुरू हो जाती हैं; शरीर में एक अव्यवस्था होती है। कई बार पेट प्रभावित होता है क्योंकि पेट में तुमने बहुत सी भावनाएं दमित की हुई हैं, और उनमें उथल-पुथल मचती है। कई बार तुम्हें उल्टी आने को होगी, जी मिचलाएगा। कई बार तुम्हें तेज सिर दर्द महसूस होगा क्योंकि ध्यान तुम्हारे दिमाग का अन्दरूनी ढांचा बदल रहा होता है। ध्यान में तुम वास्तव में एक अव्यवस्था से गुजरते हो। जल्द ही चीजें व्यवस्थित हो जायेंगी। लेकिन, कुछ समय के लिए, हर चीज अव्यवस्थित होगी।
तो तुम्हें क्या करना है? सरलता से सिर में हो रहे दर्द को देखो; इसे देखते रहो। दृष्टा बने रहो। भूल जाओ कि तुम कर्ता हो, और धीरे-धीरे हर चीज शांत हो जाएगी और इतनी खूबसूरती से और इतनी सौम्यतापूर्वक कि तुम इसका विश्वास नहीं कर सकोगे यदि तुमने इसे अनुभव नहीं किया हो। और इतना ही नहीं कि सिर दर्द गायब हो जाएगा: वह ऊर्जा जिसने दर्द पैदा किया था उसे यदि सिर्फ देखा गया था, दर्द गायब हो जाएगा और वही ऊर्जा आनंद बन जाएगी। ऊर्जा वही है। दर्द और आनंद उसी ऊर्जा के दो आयाम हैं।
यदि तुम खामोशी से बैठे रहते हो और व्यवधानों पर ध्यान देते हो, सभी व्यवधान गायब हो जाएंगे। और जब सभी व्यवधान गायब हो जाएंगे, तुम्हें अचानक पता चलेगा कि सारा शरीर गायब हो गया है।
 
वास्तव में, क्या हो रहा था? ये चीजें क्यों हो रही थी? और जब तुम ध्यान नहीं करते हो तब वे नहीं होतीं। तुम सारे दिन मौजूद हो और हाथ कभी खुजली नहीं करते, सिर में दर्द नहीं होता और पेट भी बिल्कुल सही है और पैर भी सही हैं। सभी चीजे सही हैं। वास्तव में क्या हो रहा है? ये चीजें ध्यान के दौरान अचानक क्यों शुरु हो जाती हैं? शरीर लंबे समय तक प्रभुत्व में रहा है, और ध्यान में तुम शरीर को उसके प्रभुत्व के बाहर फेंक रहे हो। तुम इसे अपदस्थ कर रहे हो। यह चिपका रहता है; यह हर संभव तरीके से प्रभुत्व में रहने की कोशिश करता है। यह तुम्हें हटाने के लिए बहुत सी चीजे पैदा करेगा जिससे कि ध्यान खत्म हो जाये; तुम संयम खो देते हो और शरीर प्रभुत्व मंा आ जाता है। अब तक, शरीर प्रभुत्व में रहा है और तुम गुलाम रहे हो। ध्यान के माध्यम से, तुम सभी चीजें बदल रहे हो; यह एक महान क्रांति है। और, वास्तव में, कोई भी सम्राट ताकत नहीं छोड़ना चाहता।
शरीर राजनैतिक दांव-पेंच करता है – इसलिए यह हो रहा है। जब वह काल्पनिक दर्द पैदा करता है, तो खुजली होती है, चींटी चल रही होती हैं, शरीर तुम्हें भटकाने की कोशिश करता है। और यह स्वाभाविक है, क्योंकि शरीर लंबे समय से शासक रहा है, बहुत से जन्मों से यह सम्राट रहा है और तुम गुलाम। अब तुम हर चीज को पूरा बदल रहे हो। तुम अपनी सत्ता पुन: पाना चाह रहे हो, और यह स्वाभाविक है कि शरीर तुम्हें भटकाने की जो भी कोशिश कर सकता है करेगा। यदि तुम विचलित हो जाते हो, तुम खो जाओगे। साधारणतः, लोग इन चीजों को दबा देते हैं। वे मंत्र का उच्चारण शुरू देंगे; वे शरीर को नहीं देखेंगे।
मैं तुम्हें किसी तरह का दमन नहीं सिखा रहा हूं। मैं सिर्फ होश सिखाता हूं। सिर्फ देखो, ध्यान दो, और क्योंकि यह काल्पनिक है, यह तुरंत गायब हो जाएगा। जब सभी दर्द और खुजली और चीटियां गायब हो जाएंगी और शरीर गुलाम की तरह सही जगह पर स्थिर हो जाएगा, अचानक बहुत-सा आनंद उत्पन्न होता है तुम उसे संजो नहीं सकते। अचानक इतना उत्सव पैदा होता है कि तुम प्रकट नहीं कर सकते; तुम्हारे भीतर से एक ऐसी शांति छलकती है जो समझ से परे है, एक आनंद जो कि इस संसार का नही है।
ओशो, योग: दी मास्टरी बीओडं माइंड प्रवचन #2 – मैं केवल होश सिखाता हूं

Sunday, 8 November 2015

the value of life (story of bhagwan budh)in hindi

                                    Image result for budh & shishy                                                                                                                                                                                                                                       
     एक आदमी ने भगवान बुद्ध से पुछा : जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध ने उसे एक Stone दिया
और कहा : जा और इस stone का
मूल्य पता करके आ , लेकिन ध्यान 
रखना stone को बेचना नही है I
वह आदमी stone को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला : इसकी कीमत क्या है?
संतरे वाला चमकीले stone को देख
कर बोला, "12 संतरे लेजा और इसे
मुझे दे जा"
आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले stone को देखा और कहा
"एक बोरी आलू ले जा और
इस stone को मेरे पास छोड़ जा"
आगे एक सोना बेचने वाले के
पास गया उसे stone दिखाया सुनार
उस चमकीले stone को देखकर बोला, "50 लाख मे बेच दे" l
उसने मना कर दिया तो सुनार बोला "2 करोड़ मे दे दे या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे..
उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू
ने इसे बेचने से मना किया है l
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे stone दिखाया l
जौहरी ने जब उस बेसकीमती रुबी को देखा , तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया फिर उस बेसकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका l
फिर जौहरी बोला , "कहा से लाया है ये बेसकीमती रुबी? सारी कायनात , सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नही लगाई जा सकती
ये तो बेसकीमती है l"
वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया l
अपनी आप बिती बताई और बोला
"अब बताओ भगवान ,
मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध बोले :
संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत "12 संतरे" की बताई l
सब्जी वाले के पास गया उसने
इसकी कीमत "1 बोरी आलू" बताई l
आगे सुनार ने "2 करोड़" बताई l
और
जौहरी ने इसे "बेसकीमती" बताया l
अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है l
तू बेशक हीरा है..!!
लेकिन,
सामने वाला तेरी कीमत,
अपनी औकात - अपनी जानकारी - अपनी हैसियत से लगाएगा।
घबराओ मत दुनिया में..
तुझे पहचानने वाले भी मिल जायेगे।

love is god- life hope & truth (osho)

                                                 Image result for love husband & wife                                                                                                                                                                  
  प्रेममय हो
नहीं कहता तुमसे पत्नी को छोडो, बल्कि कहता हूं इतना प्रेम करो कि पत्नी में परमात्मा दिखाई पड़ने लगे। नहीं कहता पति को छोड़ो, इतना प्रेम करो कि पति में परमात्मा दिखाई पड़ने लगे। प्रेम जैसे गहरा होता है, वहीं परमात्मा की झलक आनी शुरू हो जाती है। है ही नहीं परमात्मा कुछ और सिवाय प्रेम की गहरी झलक के, प्रेम की गहरी लपट के। बच्चों को छोड़ कर मत भागो! उनकी आखों में झांको। वहां अभी परमात्मा ज्यादा ताजा है। अभी वहां धूल नहीं जमी। अभी बच्चे सूख नहीं गए हैं; अभी रसपूर्ण हैं। उनसे कुछ सीखो!……..
अच्छी दुनिया होगी तो हम बच्चे को सिखाएंगे कम, उससे सीखेंगे ज्यादा। और जो सिखाएंगे, वे उसे सजग करके सिखाएंगे कि ये दो कौड़ी की बातें हैं कामचलाऊ हैं, उपयोगी हैं तेरी जिंदगी में, रोटी रोजी कमाने में सहयोगी होंगी, इनसे आजीविका मिल जाएगी, इनसे जीवन नहीं मिलता। और हम बच्चे से सीखेंगे जीवन। उसकी आखों में झलकता हुआ प्रेम, आश्चर्यचकित विमुग्ध भाव। बच्चे की अवाक हो जाने की क्षमता। छोटी—छोटी चीजों से ध्यानमग्न हो जाने की कला। एक तितली के पीछे ही दौड़ पडा तो सारा जगत भूल जाता है, ऐसा उसका चित्त एकाग्र हो जाता है। एक फूल को ही देखता है तो ठिठका रह जाता है। भरोसा नहीं आता। इतना सौदर्य भी इस जगत में हो सकता है! इसीलिए तो बच्चे पूछे जाते हैं, प्रश्नों पर प्रश्न पूछे जाते हैं; थका देंगे तुम्हें, इतने प्रश्न पूछते हैं। उनके प्रश्नों का कोई अंत नहीं। क्योंकि उनकी जिज्ञासा का कोई अंत नहीं। उनकी मुमुक्षा का कोई अंत नहीं। जानने की कैसी अभीप्सा है।
अगर हम में समझ हो, तो हम बच्चों से उनकी सरलता सीखेंगे, उनका प्रेम सीखेंगे, उनका निर्दोष भाव सीखेंगे, उनकी आश्चर्यविमुग्ध होने की क्षमता और पात्रता सीखेगे। तब शायद तुम्हारा हृदय भरने लगे एक नये रस से। तुम भी शायद नाच सको छोटे बच्चों के साथ। तुम भी शायद खेल सको छोटे बच्चों की भांति। तुम्हारे जीवन में भी एक लीला प्रकट हो। परमेश्वर लीलामय है, तुम भी थोड़े लीलामय हो जाओ तो उसकी भाषा समझ में आए, उससे सेतु बने, उससे थोड़ा संबंध जुड़े, उससे थोडी गांठ बंधे।
इसलिए कहता हूं रसमय होओ। रसमय होओ अर्थात प्रेममय होओ, प्रीतिमय होओ। इसलिए कहता हूं : रसमय होओ। चांद तारे नाच रहे हैं, पशु पक्षी नाच रहे हैं, पृथ्वी, ग्रह उपग्रह नाच रहे हैं, सारा अस्तित्व नाच रहा है। एक तुम क्यों खडे हो उदास? क्यों अलग थलग? क्यों अपने को अजनबी बना रखा है? क्यों तोड़ लिया है अपने को इस विराट अस्तित्व से? किस अहंकार में अकड़े हो? कैसी जड़ता? झुको! अर्पित होओ! अस्तित्व से गलबहियां लो! अस्तित्व को आलिंगन करो! नाचो इसके साथ।
सपना यह संसार
ओशो

Friday, 30 October 2015

मानसिक कामवासना



                                     Image result for sex khajuraho                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  मनुष्य को छोड़कर सारे पशु और पक्षियों की यौन व्यवस्था सावधिक है। एक विशेष मौसम में वे यौन पीड़ित होते हैं, कामातुर होते हैं; बाकी वर्षभर नहीं होते। सिर्फ आदमी अकेला जानवर है जो वर्षभर काम पीड़ित होता है। यह काम पीड़ा मानसिक है, मेंटल है। अगर आदमी भी स्वाभाविक हो तो वह भी एक सीमा में, एक समय पर कामातुर होगा; शेष समय कामातुरता नहीं होगी। लेकिन आदमी ने सभी स्वाभाविक व्यवस्था के ऊपर मानसिक व्यवस्था जड़ दी है। सभी चीजों के ऊपर उसने अपना इंतजाम अलग से कर लिया है। वह अलग इंतजाम हमारे जीवन की विकृति है, और हमारी विक्षिप्तता है। न तो आपको पता चलता है कि आप में कामवासना जगी है, वह स्वाभाविक है, बायोलाजिकल है या साइकोलाजिकल है! आपको पता नहीं चलता क्योंकि बायोलाजिकल कामवासना को आपने जाना ही नहीं है। इसके पहले कि वह जगती, मानसिक कामवासना जग जाती है। छोटे-छोटे बच्चे जो कि चौदह वर्ष में जाकर बायोलाजिकली मेच्योर होंगे, जैविक अथो में कामवा सना के योग्य होंगे, लेकिन चौदह वर्ष के पहले ही मानसिक वासना के वे बहुत पहले योग्य और समर्थ हो गए होते हैं।
सुना है मैंने कि एक बूढ़ी औरत अपने नाती-पोतों को लेकर अजायबघर में गयी। वहां स्टार्क नाम के पक्षी के बाबत यूरोप में कथा है, बच्चों को समझाने के लिए कि जब घर में बच्चे पैदा होते हैं तो बड़े-बूढ़ों से बच्चे पूछते हैं कि बच्चे कहां से आए? तो बड़े-बूढ़े कहते हैं—यह स्टार्क पक्षी ले आया। वहां अजायबघर में स्टार्क पक्षी के पा स वह बूढ़ी गयी। उन बच्चों ने पूछा—यह कौन-सा पक्षी है? उस बूढ़ी ने कहा—यह वही पक्षी है जो बच्चों को लाता है। छोटे-छोटे बच्चे हैं, वे एक दूसरे की तरफ देखकर हंसे, और एक बच्चे ने अपने पड़ौसी बच्चे से कहा कि क्या इस ना समझ बूढ़ी को हम असली राज बता दें? मे वी टैल हर दि रियल सीक्रेट, दिस पुअर ओल्ड लेडी। इसको अभी तक पता नहीं इस गरीब को, यह अभी स्टार्क पक्षी से समझ रही है कि बच्चे आते हैं।
चारों तरफ की हवा, चारों तरफ का वातावरण बहुत छोटे-छोटे बच्चों के मन में एक मानसिक कामातुरता को जगा देता है। फिर यह मानसिक कामातुरता उनके ऊपर हावी हो जाती है, यह जीवनभर पीछा करती है। और उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि जो बायोलाजिकल अर्ज थी, वह जो जैविक वासना थी, वह उठ ही नहीं पायी, या जब उठी तब उन्हें पता नहीं चला। और तब एक अदभुत घटना घटेगी, और वह अदभुत घटना यह है कि वे कभी तृप्त न होंगे। क्योंकि मानसिक कामवासना कभी तृप्त नहीं हो सकती है, जो वास्तविक नहीं है वह तृप्त नहीं हो सकता। असली भूख तृप्त हो सकती है; झूठी भूख तृप्त नहीं हो सकती। इसलिए वासनाएं तो तृप्त हो सकती हैं लेकिन हमारे द्वारा जो कल्टीवेटेड डिजायर्स हैं, हमने ही जो आयोजन कर ली हैं वासनाएं, वे कभी तृप्त नहीं हो सकतीं।
इसलिए पशु-पक्षी, वे भी वासनाओं में जीते हैं, लेकिन हमारे जैसे तना वग्रस्त नहीं हैं। कोई तनाव नहीं दिखाई पड़ता उनमें। गाय की आंख में झांककर देखिए, वह कोई निर्वासना को उपलब्ध नहीं हो गयी है, कोई ऋमुनि नहीं हो गई है, कोई तीर्थकर नहीं हो गयी है, पर उसकी आंखों में वही सरलता होती है जो तीर्थकर की आंखों में होती है। बात क्या है? वह तो वासना में जी रही है। लेकिन फिर भी उसकी वासना प्राकृतिक है। प्राकृतिक वासना तनाव नहीं लाती है। ऊपर नहीं ले जा सकती प्राकृतिक वासना, लेकिन नीचे भी नहीं गिराती। ऊपर जाना हो तो प्राकृतिक वासना से ऊपर उठना होता है। लेकिन अगर नीचे गिरना हो तो प्राकृतिक वासना के ऊपर अप्राकृतिक वासना को स्थापित करना होता है।
महावीर वाणी (भाग–1) प्रवचन–11

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· . प्रेम आत्मा का भोजन है।

     ·    ·  ....... प्रेम आत्मा का भोजन है। प्रेम आत्मा में छिपी परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग ...